Book Title: Anekant 1954 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 17
________________ किरण १०] गराबी क्यों? [३१७ जगती है माल भी खराब बनता है। इसी प्रकार हायसे और अल्पोत्पादक श्रमके समर्थकोंपर यह कहावत पूरी कागज तैयार करना। इसमें भी समय ज्यादा लगता है तरह लागू होती है। और खराब माल तैयार होता है। मनुष्यकी शक्ति प्रधिक बेकारी दूर करने के दो उपाय है, एक तो अधिक लगती है। जिस कामके लिये मशीनें नहीं हैं या जहां प्रादमियोंसे अधिक उत्पादन करना, दूसरा पुराने या अल्प मशीनें नहीं मिल सकतो वहाँकी बात दूसरी है पर उत्पादनमेंही अधिक प्रादमियोंको खपा देना । पहिला बेकारी हटने के नाम पर मशीनोंका बहिष्कार करना देशको तरीका समाजके वैभवका है, दूसरा समाजकी गरीबी या कंगाल बनाना है। सबको जीविका देनेकी मार्थिक योजना कंगालीका। न बनाकर हस्तोद्योगके नामपर व्यक्तिवाद पनपना. देश . अनुत्पादकार्जन-कुछ लोग ऐसा काम करते हैं और दुनियाके साथ दुश्मनी करना है, उन्हें कंगाल जिससे देशम धनका या सुविधाका या गुखका उत्पादनतो बनाना है। नहीं बढ़ता फिर भी व्यक्तिगत रूपमें लोग कुछ कमा लेते जहाँ अमुक तरहका माल बेचनेके लिये पांच दुकानोंकी हैं। यह अनुत्पादकान है। इससे कुछ लोगोंकी शक्ति जरूरत है वहाँ पच्चीस दुकान बन जाना भी अल्पोपादक- न्यर्थ जाती है। जो शक्ति कुछ उत्पादन कर सकती थी श्रम है। क्योंकि ग्राहकोंकी सुविधा तो उतनी पैदा की। कि ग्राहकाका सुविधा तो उतना पदा की वह अनुत्पादक कार्यों में खर्चा हो जानेसे देशको गरीबी ही जायगी पर श्रमखर्च होगा पाँचकी जगह पच्चीस का । बढाती है। इस प्रकार हर एकका श्रम भक्पोत्पादक होगा । व्यक्ति- सट्टा भादि इसी श्रेणी का है। इससे खींचतान कर वादमें यह हानि स्वाभाविक है; क्योंकि किस किस काममें कृत्रिमरूपमें बाजार ऊंचा-नीचा किया जाता है, और इसी कहाँ कितने भादमियोंको लगानेकी जरूरत है इसकी कोई उतार चढ़ावमें सटोरिये लोग व्यर्थ ही काफी सम्पत्ति सामाजिक व्यवस्था तो होती नहीं है, जिसे जो करना झपट लेते है। यह सम्पत्ति ग्राहकों और उत्पादकोंके होता है अपनी इच्छासे करने लगता है। इसलिये एक पाकिटसे विनती है और कुछ मुफ्तखोरोंको अमीर बनाती दुकानकी जगह चार दुकानदार एक प्रेसकी जगह चार है। देशका इससे कोई लाभ नहीं, श्रमका तथा धनका प्रस बन जाते हैं, ग्राहक एककी जगह चार जगह बट नुकसान ही है। जाते हैं इसलिये दुकानको अधिक मुनाफा लेना पड़ता है, बीमा व्यवसाय भी इसी कोटिका है। इससे देशमें फिर भा बहुत अधिक नहीं लिया जा सकता है इसलिये कुछ उत्पादन नहीं बढ़ता, बल्कि कभी कभी काफी उनको भी गरीबी में रहना पड़ता है। इस प्रकार ग्राहक नुकसान होता है। जैसे सम्पत्तिका अधिक बीमा भी नुकसान उठाते हैं और दुकानदार भी नुकसान उठाते कराके, सम्पत्तिमें इस ढंगसे भाग लगा देना जो हैं पर व्यक्तिवादमें श्राज इसका इलाज नहीं है। स्वाभाविक लगी हुई कहलाये, आग बुझाने की तत्परतासे देश में अनोत्पादनके लिये जितने श्रादमियोंकी जरूरत कोशिश न करना, इस प्रकार सम्पत्ति नष्ट करके अधिक है उससे अधिक श्रादमियोंका उसी काममें खपाना भी पैसे वसुल कर लेना। बीमा कम्पनियाँ ऐसे बदमाशोंका अस्पोत्पादकश्रम है । अमेरिकामें एक समय अस्सी फीसदी पैसा चुका तो देती है पर यह पाता कहां से है ? दूसरे आदमो खेतीमें लगे थे फल यह था कि अन्य उद्योग पनप बीमावालोंके शोषणमें से ही यह पैसा दिया जाता है, नहीं पाते थे और देश गरीब था, अब पच्चीस फीसदी यदि बीमा-कम्पनीका दिवाला निकल जाये तो शेयर मादमी ही खेती में लगे हैं और देश अमीर है। जो लोग होल्डरोंके पैसेसे यह चुकाना कहलाया। मतलब यह कि किसी भी एक काममें जरूरतसे ज्यादा प्रादमियोंको खपाने बोमा कम्पनियाँ बहुतसे ईमानदारोंको लुभाकर उनसे पैसा की योजना बनाते हैं व अल्पोत्पादक श्रमसे देशको कंगाल छीनती हैं और कुछ भले बुरोंको बांट देती हैं और खुद बनाते हैं। सम्भवतः वे शुभ कामनासे भी ऐसा करते भी बीच में दलाली खा जाती हैं। इससे इतने लोगोंकी होंगे पर उनकी शुभ कामनाएँ देशको कंगाल बनानेकी शक्ति व्यर्थ तो जाती ही है, उत्पादन भी कुछ नहीं होता तरफ ही प्रेरित करती हैं। अंग्रेजीकी यह कहावत बहुत है, साथ ही समय समय पर लाखोंकी सम्पत्ति जानबूमठीक है कि 'नरकका रास्ता शुभकामनाओंसे पट पड़ा है कर बर्बाद की जाती है, यहां तक कि कभी कभी जीवन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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