Book Title: Anekant 1954 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 23
________________ किरण १० ] जैन धर्म और दर्शन ३२३ की थी। उनके और बौद्धनैयायकोंके संसर्ग और संघर्षके तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथस्वामी हो चुके थे। अब तक इस कारण प्राचीन न्यायका कितना ही अंश परिवर्द्धित और विषयमें सन्देह था कि पार्श्वनाथ स्वामी ऐतिहासिक व्यक्ति परिवर्तित किया गया और नवीन न्यायके रचनेकी आवश्यकता थे या नहीं, परन्तु डा. हर्मन जैकोबीने सिद्ध किया है हुई थी। शाकटायन आदि वैयाकरण, कुन्दकुन्द, समन्तभद्- कि पार्श्वनाथने ईसासे पूर्व आठवीं शताब्दीमें जैनधर्मका स्वामी, उमास्वामी, सिद्धसेन दिवाकर, भट्टाकलङ्कदेव, आदि प्रचार किया था। पार्श्वनाथके पूर्ववर्ती अन्य बाईस तीर्थंकरोंनैयायिक, टीकाकृत कुलरवि मल्लिनाथ, कोषकार अमरसिंह, के सम्बन्धमें अब तक कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं अभिधानकार पूज्यपाद, हेमचन्द्र तथा गणितज्ञ महावीराचार्य, मिला है। आदि विद्वान जैन धर्मावलम्बी थे। भारतीय ज्ञान भण्डार । मूल परम्प इन सबका बहुत ऋणी है। __'तीर्थक', निर्गन्थ, और नग्न नाम भी जैनोंके लिये अच्छी तरह परिचय तथा आलोचना न होनेके कारण आलाचना न होनेके कारण व्यवहृत होते हैं। यह तीसरा नाम जैनोंके प्रधान और अब भी जैनधर्मके विषयमें लोगोंके तरह तरह के ऊटपटांग प्राचीनतम दिगम्बर सम्प्रदायके कारण पड़ा है । मेगस्थनीज ख्याल बने हैं। कोई कहता था यह बौद्धधर्मका ही एक इन्हें नग्न दार्शनिक ( Gymnosphists ) के नामसे भेद है। कोई कहता था वैदिक (हिन्दू) धर्म में जो अनेक उल्लेख करता है। ग्रीस देशमें एक ईलियाटिक नामका सम्प्रदाय हैं, इन्हीं से यह भी एक है जिसे महावीर स्वामी- सम्प्रदाय हा है। वह नित्य, परिवर्तन रहित एक अद्वैत ने प्रवर्तित किया था। कोई कोई कहते थे कि जैन आर्य नहीं सत्तामात्र स्वीकार करके जगतके सारे परिवर्तनों, गतियों और हैं, क्योंकि वे नग्न मूर्तियोंको पूजते हैं। जैनधर्म भारतके क्रियानोंकी संभावनाको अस्वीकार करता है। इस मतका मूलनिवासियोंके किसी एक धर्म सम्प्रदायका केवल एक प्रतिद्वन्द्वी एक 'हिराक्लीटियन' सम्प्रदाय हुआ है वह रूपान्तर है। इस तरह नाना अनभिज्ञताओंके कारण नाना विश्वतत्त्वकी (द्रव्य) की नित्यता सम्पूर्ण रूपसे अस्वीकार प्रकारकी कल्पनाओंसे प्रसूत भ्रांतियाँ फैल रही थीं, उनकी करता है। उसके मतसे जगत सर्वथा परिवर्तनशील है । निराधारता अब धीरे-धीरे प्रकट होती जाती है। जगत-स्रोत निरबाध गतिसे वह रहा है, एक क्षण भरके जैनधर्म बौद्धधर्मसे अति प्राचीन लिए भी कोई वस्तु एक भावसे स्थित होकर नहीं रह यह अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म सकती। ईलियाटिक-सम्प्रदायके द्वारा प्रचारित उक्त नित्यवौद्धधर्मकी शाखा नहीं है महावीर स्वामी जैनधर्मके संस्थापक वाद और हीराक्लीटियन सम्प्रदाय द्वारा प्रचारित परिवर्तननहीं हैं, उन्होंने केवल प्राचीन धर्मका प्रचार किया था। बाद पाश्चात्य दर्शनोंमें समय समय पर अनेक रूपोंमें नाना महावीर या वर्द्धमान स्वामी बुद्धदेवके समकालीन थे। समस्याओंके आवरणमें प्रकट हुए हैं। इन दो मतोंके समबुद्धदेवने बुद्धत्व प्राप्त करके धर्मप्रचार कार्यका व्रत लेकर न्वयकी अनेक बार चेष्टा भी हुई है। परन्तु वह सफल कभी जिस समय धर्मचक्रका प्रवर्तन किया था, उस समय महा- नहीं हुई । वर्तमान समयके प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक बर्गवीर स्वामी एक सर्व विश्रुत तथा मान्यधर्म शिक्षक थे। सान (Bergson) का दर्शन हिराक्लीटियनक मतका बौद्धोंके बिपिटिक नामक ग्रन्थमें 'नातपुत्त' नामक जिस ही रूपान्तर है। निर्ग्रन्थ धर्मप्रचारकका उल्लेख है, वह 'नातपुत्त' ही महावीर भारतीय नित्य-अनित्यवाद स्वामी हैं उन्होंने ज्ञातृनामक क्षत्रियवंशमें जन्मग्रहण किया वेदान्तदर्शनमें भी सदासे यह दार्शनिक विवाद प्रकाशथा, इसलिए वे ज्ञातपुत्र (पाली भाषामें जा [ना] त पुत्र) मान हो रहा है । वेदान्तके मतसे केवल नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तकहलाते थे । जैन मतानुसार महावीरस्वामी चौबीसवें या सत्य स्वभाव चैतन्य ही 'सत्' है, शेष जो कुछ है वह केवल अन्तिम तीर्थंकर थे। उनके लगभग २०० वर्ष पहले तेईसवें नाम रूपका विकार 'माया प्रपंच'-'असत्' है । शङ्कराचार्यने १ दिगम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें महावीर स्वामीके वंशका सत् शब्दकी जो व्याख्या की है उसके अनुसार इस दिखलाई उल्लेख 'नाथ' नामसे मिलता है, जो निश्चय ही देने वाले जगत प्रपंचकी कोई भी वस्तु सत् नहीं हो सकती। ही 'ज्ञातृ' के प्राकृत रूप 'णात' का ही रूपान्तर है। भूत, भविष्यत् , वर्तमान इन तीनों कालोंमें जिस वस्तुके Jain Education International For Personal & Private Use Only www ainelibrary.org

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