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अने
कान्त
मार्च १६५४
यह चित्ताकर्षक मूर्ति श्रीसीमन्धरस्वामीकी है और राजकोटके नूतन जैनमन्दिर में विराजमान है । इस मन्दिर और मूर्तिका निर्माण सोनगढ़ के सन्त सत्पुरुष कानजी स्वामीकी प्र ेरणा से हुआ है और उन्होंके द्वारा यह प्रतिष्ठित है । यात्राथियोंको गिरनारजी जाते समय इस भव्य मूर्तिका दर्शन जरूर करना चाहिये ।
सम्पादक मण्डल
श्रीजुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर' बा० छोटेलाल जैन M. RA.S. बा० जय भगवान जैन एडवोकेट पण्डित डी. एस. जैतली पं० परमानन्द शास्त्री
अनेकान्त वर्ष १२ किरण १०
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विषय-सूची
३०३
1. श्री शारदा स्तवनम्-भ. शुभचन्द्र
[२० परमानन्द जैन शास्त्री ३ २. जन्म जाति गर्वायतम्- ['युगवीर' ३७४ ७. जैन धर्म और जैन दर्शन३. कविवर भूधरदास और उनकी विचार धारा
[श्री अम्बुजाक्ष सरकार एम.ए.वी.एल. ३२२ [पं. परमानन्द जैन शास्त्री ३०५ ८. उज्जैनके निकट प्राचीन दि. जैन मूर्तियाँ४. श्री बाहुबलीकी आश्चर्यमयी प्रतिमा
[बा. छोटेलाल जैन ३२७ [श्राचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि ३.१ १. श्रमणका उत्तर लेख न छापना- ....... ३२८ ५. गरीबी फ्यो -[स्वामी सत्यभक्त संगभसे) ३१४ १०. श्री जिज्ञासा पर मेरा विचार-टाइटिल पे०३ ६. हमारी तीर्थ यात्रा संस्मरण
[ चुल्लक सिद्धि सागर ३३० मेरीभावनाका नया संस्करण मेरोभावना की बहत दिनोंसे मांगे पारही थीं, अतः वीरसेवामन्दिरने मेरीभावनाका यह नया संस्करण ३२ पौंडवे बढ़िया काग़ज पर छाप कर प्रकाशित किया है। जो सज्जन बांटनेके लिये चाहें उन्हें५) रुपया सैकड़ाके हिसाबसे दी जावेंगी। पोस्टेज खर्च अलग देना होगा।
एक प्रतिका मूल्य -) एक माना है।
मैनेजर वीरसेवामन्दिर, ग्रन्थमाला, जैनम्यूजियमकी आवश्यकता
जैन आर्ट-गैलरी देहलीमें किसी उचित स्थान पर एक जैन म्यूजियमकी दिल्लीमें किसी योग्य स्थानपर जैसे लाल मन्दिर या अत्यन्त आवश्यकता है जिसमें पुरातत्त्वकी दृष्टिसे सब नई दिल्लीमें एक 'जैन पार्ट-गैलरी' की अत्यन्त आवश्यकता
है। जिसमें जैन आर्टको सर्वोत्तमरूपसे प्रदर्शित किया जाय । सामग्री एकत्रित की जाय । अाशा है समाज पूरा ध्यान देगा
समाजको इसपर विचारकर शीघ्रही कार्यरूपमें परिणत करना वरना वीरसेवामन्दिको इस कमीकी पूर्ति करनी चाहिए।
चाहिए । अथवा वीरसेवामन्दिर जो अपना भवन बनवानेका १८-३-५४ ]
श्रायोजन करे उसे इस लक्ष्यकी ओर ध्यान देना चाहिए। -पन्नालाल जैन अग्रवाल
-पन्नालाल जैन अग्रवाल अनेकान्तकी सहायताके सात माग (1) अनेकान्तके 'संरक्षक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना । (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बनाना। (३) विवाह-शादी आदि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवाना। (४) अपनी ओर से दूसरोंको अनेकान्त भेट-स्वरूर अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या-संस्थाओं, लायबेरियों,
सभा-सोसाइटियों और जैन-अजैन विद्वानोंको। (५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें देनेके लिये २५),५०) आदिकी सहायता भेजना। २५ की
सहायतामें १० को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। (६)अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें देना तथा दिलाना । (७) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना ।
सहायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पता:नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको
मैनेजर 'अनेकान्त' - 'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेंटस्वरूप भेजा जायगा।
वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली ।
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वार्षिक मूल्य ५)
वर्ष १२ किरण १०
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
ॐ अहंम
| नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यने कान्तः
वस्तु तत्त्व-संघातक
वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली फाल्गुण वीर नि० संवत् २४८०, वि० संवत् २०१० भ० पद्मनन्दि- शिष्य- शुभचन्द्र-कृतम्
श्रीशारदास्तवनम्
सुरेन्द्र-नागेन्द्र-नरेन्द्रवंद्या, या चर्चिता योगिजनैः पवित्रैः । कवित्व-वक्तृत्व-फलाधिरूढ़ों, सा शारदा मे वितनोतु बुद्धिम् ॥ १ ॥ शब्दागमैस्तर्पित - देववृन्दं, मायाक्षरी सार्वपथीनमार्गम् । मंत्रातरैश्चचितदेहरूपमर्चन्ति ये त्वां भुवि वन्दनीयाम् ॥ २ ॥ या चक्षुषा ज्ञानमयेन वाणी, विश्वं पुनातीन्दुकलेव नित्यम् । शब्दागमं भास्वति वर्तमानं, सा पातु वो हंसरथाधिरूढ़ा ।। ३ ।। प्रमाण - सिद्धान्त - सुतत्त्वबोधाद्या संस्तुता योगि- सुरेन्द्रवृन्दैः । तां स्तोतुकामोऽपि न लज्जयामि पुत्रेषु मातेव हितापरा सा ॥ ४ ॥ नीहारहारोत्थितधौतवस्त्राम् श्रीबीजमंत्राक्षर - दिव्यरूपाम् । या गद्य-पद्यैः स्तवनैः पवित्रैस्त्वं स्तोतुकामो भुवने नरेन्द्रः ॥ ५ ॥ अवश्यसेव्यं तब पादपद्म ब्रह्म ेन्द्र चन्द्रार्क-हृदि स्थितं यः । न दृश्यमानः कुरुते बुधानां ज्ञानं परं योगिनि योगिगम्यम् ॥ ६ ॥ कायेन वाचा मनसा च कृत्या, न प्रार्थ्यते ब्रह्मपदं त्वदीयम् । भक्ति परां त्वच्चरणारविन्दे, कवित्वशक्तिं मयि देहि दीने ॥ ७ ॥ तव स्तुतिं यो वितनोतु वागि ! वर्णाक्षरैरचितरूपमालाम् । स गाते पुण्य- पवित्र मुक्तिमर्थागमं खण्डित - वादि-वृन्दम् ॥ ८ ॥ श्रीपद्मनन्दन्द्रमुनीन्द्र-पट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः ॥ विदां विनोदाय विशारदायाः श्रीशारदायाः स्तवनं चकार ॥ ६ ॥ इतिश्रीशारदास्तवनम |
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एक किरण का मूल्य II)
मार्च
१६५४
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जन्म-जाति-गर्वापहार
- [कुछ अर्सा हुआ मुझे एक गुटका वैद्यश्री पं० कन्हैयालाल जी कानपुरसे देखनेको मिला था, जो २०० वर्षसे अपस्का लिखा हुआ है और जिसमें कुछ प्राकृत वैद्यक ग्रन्थों, निमित्त शास्त्रों. यंत्रों-मंत्रों तथा कितनी ही फुटकर बातोंके साथ अनेक-सुभाषित पद्योंका भी संग्रह है। उसकी कतिपय बातोंको मैंने उस समय नोट किया था, जिनमेंसे दो एकका परिचय पहले 'अनेकान्त' के पाठकोंको दिया जा चुका है। आज उसके पृष्ठ २२३ पर उदश्त दो सुभाषित पयोंने भावाबुवादके साथ पाठकोंके सामने रक्खा जाता है, जो कि जन्म-जाति-विषयक गर्वको दूर करनेमें सहायक हैं। -युगवीर ]
कौरोयं कृमिजं सुवर्णमुपला [ ] दूर्वापि गोरोमतः पंचतामरसं शशांकमु (उ) दधेरिंदीवरं गोमयात् । काष्ठादग्निरहेः फणादपि मणि गोपित्तगो (तो) रोचना, प्राकाश्यं स्वगुणोदयेन गुणिनो गच्छंति किं जन्मना ॥१॥ जन्मस्थानं न खलु विमलं वर्णनीयो न वर्णो, दूरे शोमा वपुषि नियता पंकर्शकां करोति । नूनं तस्याः सकतासुरभिद्रव्यगापहारी ।
को जानीते परिमलगुणांकस्तु कस्तूरिकायाः। २॥ भावार्थ-उस रेशमको देखो जो कि कीड़ोंसे उत्पन्न होता है, उस सुवर्णको देखो जो कि पत्थरसे पैदा होता है, उस (मांगलिक गिनी जाने वाली हरी भरी) दूबको देखो. जो कि गौके रोमोंसे अपनी उत्पत्तिको लिये हुए है, उस लाल कमल को देखो जिसका जन्म कीचड़से है, उस चन्द्रमाको देखो जो समुद्रसे (मन्थन-द्वारा) उद्भूत हुआ कहा जाता है, उस इन्दीवर (नीलकमल) को देखो जिसकी उत्पत्ति गोमयसे बतलाई जाती है। उस अग्निको देखो जो कि काठसे उत्पन्न होती है, उस मणिको देखो जो कि सर्पके फणसे उद्भूत होती है, उस (चमकीले पीतवर्ण) गोरोचनको देखो जो कि गायके पित्तसे तयार होता अथवा बनता है, और फिर यह शिक्षा लो कि जो गुणी हैं-गुणोंसे युक्त हैं-ये अपने गुणोंके उदय-विकाशके द्वारा स्वयं प्रकाशको-प्रसिद्धि एवं लोकप्रियताको प्राप्त होते हैं, उनके जन्मस्थान या जातिसे क्या ?–चे उनके उस प्रकाश अथवा विकाशमें बाधक नहीं होते। और इसलिए हीन जन्मस्थान अथवा जातिकी बातको लेकर उनका तिरस्कार नहीं किया जा सकता ॥ १ ॥ इसी तरह उस कस्तूरीको देखो जिसका जन्मस्थान विमल नहीं किन्तु समल है-वह मुगकी नाभिमें उत्पन्न होती है, जिसका वर्ण भी वर्णनीय (प्रशंसाके योग्य ) नहीं-वह काली कलूटी कुरूप जाम पड़ती है। (इसीसे) शोभाकी बात तो उससे दूर वह शरीरमें स्थित अथवा लेपको प्राप्त हुई पंककी शंकाको उत्पन्न करती है ऐसा मालूम होने लगता है कि शरीरमें कुछ कीचड़ लगा है। इतने पर भी उसमें सकल सुगन्धित द्रव्योंके गर्वको हरने वाला जो परिमल (सातिशायि गन्ध ) गुण है उसके मूल्यको कौन अॉक सकता है ? क्या उसके जन्म जाति या वर्णके द्वारा उसे प्रॉका या जाना जा सकता है ? नहीं। ऐसी स्थितिमें जन्म-जाति कुल अथवा वर्ण जैसी बातको लेकर किसीका भी अपने लिये गर्व करना और दूसरे गुणीजनोंका तिरस्कार करना व्यर्थ ही नहीं किन्तु नासमझीका भी योतक है॥२॥
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कविवर भूधरदास और उनकी विचारधारा
(पं० परमानन्द जैन शास्त्री) हिन्दीभाषाके जैनकवियोंमें पं. भूधरदासजीका नाम भी कविवरकी आत्मा जैनधर्मके रहस्यसे केवल परिचित ही उल्लेखनीय है । आप आगरेके निवासी थे और आपकी जाति नहीं थी किन्तु उसका सरस रस उनके आत्म-प्रदे शोंमें भिद थी खंडेलवाल । उन दिनों आगरा अध्यात्मविद्याका केन्द्र बना चुका था, जो उनकी परिणतिको बदलने तथा सरल बनाने में हुआ था। आगरेमें आने जाने वाले सज्जन उस समय वहां- एक अद्वितीय कारण था । उन्हें कविता करनेका अच्छा की गोष्ठीसे पूरा लाभ लेते थे। अध्यात्म के साथ वहां अभ्यास था। उनके मित्र चाहते थे कि कविवर कुछ ऐसे प्राचार-मार्गका भी खासा अभ्यास किया जाता था, प्रतिदिन साहित्यका निर्माण कर जाय, जिसे पढ़कर दूसरे लोग भी शास्त्रसभा होती थी, सामायिक और पूजनादि क्रियाओंके अपनी प्रात्म-साधना अथवा जीवनचर्याके साथ वस्तुतत्त्वको साथ प्रारम-साधनाके मार्ग पर भी चर्चा चलती थी। हिंसा, सझने में सहायक हो सकें। उन्हीं दिनों आगरेमें जयसिंह मूठ, चोरी, कुशील और पदार्थसंग्रहरूप पापोंकी निवृत्तिके सवाई सूबा और हाकिम गुलाबचन्द वहां आए, शाह हरीलिये यथाशक्य प्रयत्न किया जाता था और बुद्धिपूर्वक उनमें सिंहके वंशमें जो धर्मानुरागी मनुष्य के उनकी बार-बार प्रवृत्ति न करनेका उपदेश भी होता था, गोष्ठीके प्रायः सभी प्रेरणासे कविके प्रमादका अन्त हो गया और कविने सं० सदस्यगण उनका परिमाण अथवा त्याग यथाशक्ति करते थे, १७८१ में पौष कृष्णा १३ के दिन 'शतक' नामका ग्रन्थ
और यदि उनका त्याग करने में कुछ कचाई या अशक्ति बनाकर समाप्त किया। मालूम होती थी तो पहले उसे दूर करनेका यथा साध्य
अध्यात्मरसकी चर्चा करते हुए कविवर प्रात्म-रसमें प्रयत्न किया जाता था, उस आत्म निर्बलता (कमजोरी) को
विभोर हो उठते थे। उनका मन कभी-कभी वैराग्यकी तरंगों दूर कर करने की चेष्टा की जाती थी, और उनके त्यागकी
में उछलने लगता था। और कभी-कभी उनकी दृष्टि धनभावनाको बलवती बनाया जाता था, तथा उनके त्यागका चुप
सम्पदाकी चंचलता, अस्थिरता और शरीर आदिकी उस चाप साधन भी किया जाता था। बाहरके लोगों पर इस बात
पर इस बात विनाशीक परिणति पर जाती थी, और जब वे संसारकी उस का बड़ा प्रभाव पड़ता था और वे जैनधर्मकी महत्तासे
दुःखमय परिणतिका विचार करते जिसके परिणमनका दृश्य प्रेरित हो अपनेको उसकी शरणमें ले जानेमें अपना गौरव
भी कभी-कभी उनकी आंखोंके सामने आ जाया करता था। समझते थे।
तो वे यह सोचते ही रह जाते थे कि अब क्या करना चाहिये, जो नवागन्तुक भाई राज्यकार्यमें भाग लेते थे, वे रात्रिमें।
इतनेमें मनकी गति बदल जाती थी और विचारधारा उस अवकाश होनेपर धर्मसाधनमें अपनेको लगानेमें अपना कर्तव्य समझते थे। उस समय धर्म और तजनित धार्मिक क्रिया
स्थानसे दूर जा पड़ती थी, अनेक तकणाएँ उत्पन्न होती और .
समा जाती थों अनेक यिचार आते और चले जाते थे, पर वे काण्ड बड़ी श्रद्धा तथा प्रारम-विश्वासके साथ किये जाते थे, आजकल जैसी धार्मिक शिथिलता या अश्रद्धाका कहीं पर ।
अपने जीवनका कोई अन्तिम लक्ष्य स्थिर नहीं कर पा रहे थे।
घरके भी सभी कार्य करते थे, परन्तु मन उनमें वहीं लगता भी प्राभास नहीं होता था । श्रद्धालु धर्मात्माओंकी उस . ' समय कोई कमी भी नहीं थी, पर आज तो उनकी संख्या था, कभी प्रमाद सताता था और कभी कुछ । हृदयमें प्रारमअत्यन्त विरल दिखाई देती है। किन्तु लोकदिखावा करनेवाले श्रागरे मैं बालबुद्धि भूधर खंडेलवाल, बालकके ख्यालया सौ-दोसौ रुपया देकरसंगमरमरका फर्शादि लगवाकर नाम सौं कवित्त कर जाने है। ऐसे ही करत भयो जैसिंघ सवाई खदवानेवाले तथा अपनी इष्ट सिद्धिके लिये बोल कबूल या मान- सवा, हाकिम गुलाबचन्द आये तिहि थाने हैं। हरीसिंह मनौती रूप अभिमतकी पुष्टिमें सहायक पद्मावती आदि शाहके सुवंश धर्मरागी नर, तिनके कहेसौं जोरि कीनी एक देवियोंकी उपासना करने वाले लोगोंकी भीड़ अधिक दिखाई ठाने है । फिरि-फिर प्रेरे मेरे पालसको अन्त भयो, उनकी देती है। ये सब क्रियाएँ जैनधर्मकी निर्मल एवं निस्पृह सहाय यह मेरो मन माने है ॥ सहरतसे इक मात्मपरिणतिसे सर्वथा भिन्न हैं उनमें जैनधर्मकी उस पाख तमलीन । तिथितेरस रविवारको,सतक समापत कीन । प्राण-प्रतिष्ठाका अंशभी नहीं है।
-जिन शतक प्रशस्ति ।
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३०६ ]
अनेकान्त
सीको रंग की यह भी विदा हो जाती थी उडती किन्तु संसारके दुःखोंसे छूटने की जो टीस हृदयमें घर किये हुए थी वह दूर न होती थी, और न उसकी पूर्तिका कोई ठोस प्रयत्न ही हो पाता था । अध्यात्मगोष्ठी में जाना और चर्चा करनेका विषय उसी क्रमसे बराबर चल रहा था, उनके मित्रोंकी तो एकमात्र अभिलाषा थी 'पद्यबद्धसाहित्यका निर्माण' । अतः जब वे 'अवसर पाते कविवरको उसकी में रणा अवश्य किया करते थे।
एक दिन वे अपने मित्रोंके साथ बैठे हुए थे कि वहांसे एक वृद्ध पुरुष गुजरा, जिसका शरीर थक चुका था, दृष्टि अत्यन्त कमजोर थी, दुबला-पतला लठियाके सहारे चल रहा था, उसका सारा बदन कांप रहा था, मुंहसे कभी-कभी लार भी टपक पड़ती थी। बुद्धि शठियासी गई थी। शरीर अशक्र हो रहा था किंतु फिर भी वह किसी श्राशासे चलनेका प्रयत्न कर रहा था। यद्यपि लडिया भी स्थिरवासे पकड़ नहीं पा रहा था यह वहांसे दस पांच कदम ही आगेको चल पाया था कि देव योगसे उसकी लाठी छूट गई और वह बेचारा चामसे नीचे गिर गया, गिरने के साथही उसे लोगोंने उठाया, खड़ा किया, वह हांप रहा था, चोट लगनेसे कराहने लगा, लोगोंने उसे जैसे-तैसे लाठी पकड़ाई और किसी तरह उसे ले जाकर उसके घर तक पहुँचाया। उस समय मित्रोंमें बूढ़ेकी दशाका और उसकी उस घटनाका जिक्र चल रहा था । मित्रोंमेंसे एकने कहा भाई क्या देखते हो ? यही दशा हम सबकी श्राने वाली है, उसकी व्यथाको वही जानता है, दूसरा तो उसकी व्यथाका कुछ अनुभव भी नहीं कर सकता, हमें भी सचेत होनेकी आवश्यकता है, कविवर भी उन सबकी बातें सुन रहे थे, उनसे न रहा गया और वे बोल उठे
आवारे बुढ़ापा मानी सुधि बुधि बिसरानी ॥ श्रवनकी शक्ति घटी, चाल चलै अटपटी, देह लटी भूख घटी, लोचन भरत पानी || १|| दाँतनकी पंक्ति टूटी हाइनकी संधि छूटी, कायाकी नगरि लूटी, जात - नहि पहिचानी ||२|| बालोंने वरन फेरा, रोगने शरीर घेरा, पुत्रहू न आवै नेरा, औरोंकी कहा कहानी ||३|| भूधर समुझि अब, स्वहित करेगो कब यह गति है है जब तब पछते प्रानी ॥४॥
पदके अन्तिम चरणको कविने कई बार पढ़ा और यह कहा कि यही दशा तो हमारी होने वाली है, जिस पर हम कुछ दिलगीर और कभी कुछ हंस से रहे हैं। यदि हम ब नहीं सँभले, न चेते, और न अपने हितकी ओर दृष्टि
[ किरण १०
दी, 'तो मैं कप स्वहित करूँगा' ? फिर मुझे जीवनमें केवल पछतावा ही रह जायगा। पर एक बात सोचने की है और वह यह कि यह यज्ञ मानव कितना अभिमानी है, रूप सम्पदाका लोभी, विषय-सुखमें मग्न रहने वाला नरकीट है, बड़े की दशाको देखकर तरह-तरहके विकल्प करता है, परके बुढ़ापे और उसके सुख-दुखकी चर्चा तो करता है किन्तु अपनी ओर झांककर भी नहीं देखता और न उसकी दुर्बल दुःखावस्थायें, अनन्त विकल्पोंकि मध्य पड़ी हुई भयावह अव स्थाका अवलोकन ही करता है, और न आशा तृष्णाको जीतने अथवा कम करनेका प्रयत्न ही करता है । हां, चाहदाहकी भीषण ज्वालामें जलाता हुआ भी अपनेको ज्ञान है, पर सुखी मान रहा है। वही इसका इस अज्ञानसे छुटकारा क्यों नहीं होता उसमें बार चार प्रवृत्ति क्यों होती है वह कुछ समझ नहीं आता, यह शरीर जिसे मैं अपना मान कर सब तरहसे पुष्ट कर रहा है एक दिन मिट्टीमें मिल जायेगा। यह तो जड़ है और मैं स्वयं ज्ञायक भावरूप चेतन द्रव्य हूँ, इसका और मेरा क्या नाता, मेरी और इस शरीरकीकी जाति भी एक नहीं है फिर भी चिरकालसे यह मेरा साथी बन रहा है और मैं इसका दास बन कर बराबर सेवा करता रहता हूँ और इससे सब काम भी लेता हूँ। यह सब मैं स्वयं पढ़ता हूँ और दूसरोंसे कहता भी हूँ फिर भी मैंने इन दोनोंकी कभी जुदाई पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसे बराबर अपना मानता रहा, इसी कारण स्वाहित करने की बात दूर पड़ती रही, इन विचारोंके साथ कविवर निद्राकी गोदमें निमग्न हो गये ।
प्रातःकाल उठकर कविवर जब सामायिक करने बैठे, तब पुनः शरीरकी जरा अवस्थाका ध्यान श्राया । और कविवर सोचने लगे
जब पर्ला पुराना पड़ जाता है, उसके दोनों खुरे हिलने चलने लग जाते हैं, उरं-मदरा खखराने लगता है-आवाज करने लगता है। पंखुड़िया छिद्दी हो जाती हैं, तकली बल खाजाती है— वह नीचेकी श्रोर नव जाती है, तब सूतकी गति श्रीधी नहीं हो सकती, वह वारवार टूटने लगता है। आयुमाल भी तब काम नहीं देती, जब सभी अंग चलाचल हो जाते हैं तब वह रोजीना मरम्मत चाहता है अन्यथा वह अपने कार्यमें अक्षम होजाता है । किन्तु नया चरखला सबका मन मोह लेता है, वह अपनी अबाधगतिले दूसरोंको अपनी ओर आकर्षित करता है, किन्तु पुरातन हो जाने पर उसकी
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किरण-१०]
कविवर भूधरदास और उनकी विचार-धारा
[३०७
भी वही दशा हो जाती है, और अन्त में वह इंधनका काम पुरुषार्थकी कुछ कमी है। यह सब विकल्पपुंज कविको देता है। ठीक इसी प्रकार जब यह शरीर रूपी चर्खा पुराना स्थिर नहीं होने देते थे। पर मंदिरजीमें प्रवेश करते ही ज्यों पड़ जाता है, दोनों पग अशक्त हो जाते हैं। हाथ, मुह, ही अन्दर पार्श्वप्रभुकी मर्विका दर्शन किया त्यों ही दृष्टिमें नाक, कान, आंख और हृदय आदि, शरीरके सभी अवयव कुछ अद्भुत प्रसादकी रेखा प्रस्फुटित हुई । कविवरकी दृष्टि जर्जरित, निस्तेज और चलाचल हो जाते हैं तब शब्दकी गति मूर्तिके उस प्रशांत रूप पर जमी हुई थी मानों उन्हें साक्षात् भी ठीक ढंगसे नहीं हो सकती। उसमें अशक्ति और लड़- पार्श्वप्रभुका दर्शन हो रहा था, परन्तु शरीरकी सारी चेष्टाएँ खड़ानापन आ जाता है। कुछ कहना चाहता है और कुछ क्रिया शून्य निश्चेष्ठ थीं। कविवर आत्म-विभोर थे-मानों वे कहा जाता है। चर्खेकी तो मरम्मत हो जाती है। परन्तु इस समाधिमें तल्लीन हों, उनके मित्र उन्हें पुकार रहे थे, पं] शरीर रूप चर्खेकी मरम्मत वैद्योंसे भी नहीं हो सकती। जी भाइये समय हो रहा है कुछ अध्यात्मकी चर्चा द्वारा उसकी मरम्मत करते हुए वैद्य हार जाते हैं ऐसी स्थितिमें आत्मबोध करानेका उपक्रम कीजिये पर दूसरोंको कविवरकी आयुकी स्थिति पर कोई भरोसा नहीं रहता, वह अस्थिर हो उस दशाका कोई प्राभास नहीं था, हाँ, दूसरे लोगोंको तो जाती है। किन्तु जब शरीर नया रहता है, उसमें बल, तेज इतना ही ज्ञात होता था कि आज कविवरका चेहरा प्रसन्न है।
और कार्य करनेकी शक्ति विद्यमान रहती है। तब वह दूसरों वे भक्तिके प्रवाहमें निमग्न है। इतने में कविवरके पढ़नेकी को अपनी ओर आकर्षित करता ही है। किन्तु शरीर और आवाज सुनाई दी, वे कह रहे हैं :उसके वर्णादिक गुणोंके पलटने पर उसकी वही दशा हो
भवि देखि छवि भगवानकी। जाती है। और अन्तमें वह अग्निमें जला दिया जाता है।
सुन्दर सहज सोम आनंदमय, दाता परम कल्याणकी। ऐसी स्थितिमें हे भूधर ! तुम्हीं सोचो, तुम्हारा क्या कर्तव्य
नासादृष्टि मुदित मुख वारिज, सीमा सब उपमानको । है। तुम्हारी किसमें भलाई है । यही भाव कविके निम्नपदमें गुंफित हुए हैं
अंग अडोल अचल आसन दिद, वही दशा निज ध्यानकी।
इस जोगासन जोगरीतिसौं, सिद्धभई शिव-थानकी । चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना ॥
ऐसैं प्रगद दिखावै मारग, मुद्रा - धात - परवानकी । पग खूटे दो हाल न लागे, उरमदरा खखराना।
जिस देखें देखन अभिलाषा, रहत नरंचक आनकी । छीदी हुई पांखुड़ी पांसू , फिर नहीं मनमाना ॥१॥
तृषत होत 'भूधर' जो अब ये, अंजुलि अमृतपानकी । रसनातकलीने बलखाया, सो अब कैसे खूटे।
हे भाई ! तुम भगवानकी छवीको देखो, वह सहज शब्द सूत सूधा नहिं निकसै, घड़ी-घड़ी पल टूटै ॥२॥
सुन्दर हैं, सौम्य है, आनन्दमय है, परम कल्याणका दाता है, आयु मालका नहीं भरोसा, अङ्ग चलाचल सारे। रोज इलाज मरम्मत चाहें, वैद बाढ़ ही हारे ॥३॥
नासादृष्ठि है, मुख कमल मुदित है, सभी अंग अडोल और
आसन सुहढ है, यही दशा आत्म-ध्यानकी है । इसी योगानया चरखला रंगाचंगा, सबका चित्त चुरावै। पलटा वरन गये गुन अगले. अब देखै नहिं आवै ।।४
सन और योग्यानुष्ठानसे उन्होंने वसुविध-समिधि जला कर मोटा महीं कात कर भाई, कर अपना सुरमेरा।
शिव स्थानकी प्राप्ति की है इस तरह धातु-पाषाएकी यह मूर्ति
आत्म-मार्गका दर्शन कराती है। जिसके दर्शनसे फिर अन्यके अंत आगमें ईधन होगा, भूधर समझ सबेरा ॥५॥
देखनेकी अभिलाषा भी नहीं रहती । अतः हे मधुर ! तू तृप्त कविवर इस पदको पढ़ ही रहे थे कि सहसा प्रातः काल उठकर कविवर जब सामायिक करने बैठे तब उस बुड्ढे- होकर उस छविका अमृत पान कर, वह तुझे बड़े भारी भाग्यकी दशाका विकल्प पुनः उठा, जिसे कविने जैसे तैसे दबाया
से मिली है। जिसका विमल दर्शन दुःखोंका नाशक है और और नित्यकर्मसे निमिटकर मंदिरजीमें पहुंचे । मंदिरजीमें
पूजनसे पातकोंका समूह गिर जाता है । उसके बिना इस । जानेसे पहले कविवरके मनमें बारबार यह भावना उद्गत हो
खारी संसार समुद्रसे अन्य कोई पार करने वाला नहीं है।। रही थी कि आत्मदर्शन कितनी सूक्ष्म वस्तु है क्या मैं उसका
अतः तू उन्हींका ध्यान धर, एक पर भी उन्हें मत छोड़ । तू पात्र नहीं हो सकता ? जिन दर्शन करते करते युग बीत गये देखत दुख भाजि जाति दशों दिश पूजत पातक पुज गिरे। परन्तु प्रात्मदर्शनसे रिक्त रहे, यह तेरा अभाग्य है या तेरे इस संसार क्षार सागरसौं और न कोई पार करै ।
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३०८ ]
अनेकान्त
[किरण
सोच और समझ, यह नर भव अासान नहीं है, तात,मात, तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उतंग खरे भ्रात, सुत दारा श्रादि सभी परिकर अपने अपने स्वार्थके ग़र्जी दास खबास अवास अटा, धनजोर करोरनकोश भरे है। तू नाहक पराये कारण अपनेको नरकका पात्र बना रहा ऐसे बढेतौ कहा भयो हेनर,छोरिचले उठिअन्त छरे। है। परकी चिंता में प्रात्म निधिको व्यर्थ क्यों खो रहा है, तू धाम खरे रहे काम परे रहे दाम डरे रहे ठाम धरे है मत भूल, यह दगा जाहिर है । उस ओर दृष्टि क्यों नहीं देता। लक्ष्मीके कारण जो अहंकार उत्पन्न होता है यह ज वह मनुष्यदेह दुर्लभ है, दाव मत चूक । जो अब चूक गए उसके नशेमें इतना मशगूल हो जाता है कि वह अर तो केवल पछतावा ही हाथ रहेगा, यह मानव रूपी हीरा तुझे कर्तव्यसे भी हाथ धो बैठता. है । ऐशो अशरतमें वैभव भाग्योदयसे मिला है तू अज्ञानी बन उसके मूल्यको न समझ नजारेका जब पागलपन सवार होता है तब वह अचिन्त कर व्यर्थ मत फैक । नटका स्वांग मत भर, यह आयु छिनमें एवं अकल्पनीय कार्य कर बैठता है, जिनकी कभी स्वप्न गल जायगी, फिर करोड़ों रुपया खर्च करने पर भी प्राप्त न भी पाशा नहीं हो सकती। मानो विवेक उसके हृदयसे कूच्च होगी, उठ जाग, और स्वरूपमें सावधान हो।
कर जाता है, न्याय अन्यायका उसे कोई भान नहीं होता, यह माया उगनी है, झूठी है जगतको ठगती फिरती है, वह सदा अभिमानमें चूर रहता है, कभी कोमल दृष्टिसे जिसने इसका विश्वास किया वही पछताया, यह अपनी थोड़ी दूसरोंकी ओर झांक कर भी नहीं देखता, वह यह भी नहीं सी चटक मटक दिखा कर तुमे लुभाती है, यह कुल्टा है, सोचता कि आज तो मेरे वैभवका विस्तार है यदि कलको इसके अनेक स्वामी हो रहे हैं। परन्तु इसकी किसीसे भी यह न रहा तो मेरी भी इन रंकों जैसी दुर्दशा होगी, मुझे तृप्ति नहीं हुई, इसने कभी किसीके साथ भी प्रेमका बर्ताव कंगला बन कर पराये पैरोंकी खाक झाड़नी पड़ेगी। भूख, नहीं किया। श्रतः हे भूधर ! यह सब जगको भोंदू बनाकर गर्मी शर्दीकी व्यथा सहनी पड़ेगी। छलती फिरती है। तू इस मायाके चक्करमें व्यर्थ क्यों परेशान परन्तु फिर भी यह धन और जीवनसे राग रखता है तथा हो रहा है। यह माया तेरा कभी साथ न देगी, तू इसे नहीं विरागसे कोसों दूर भागता है। जिस तरह खर्गोश अपनी छोड़ेगा, तो यह तुझे छोड़ कर अन्यत्र भाग जायगी, माया प्रांखें बन्द करके यह जानता है कि अब सब जगह अन्धेरा कभी स्थिर नहीं रहती। इस तरह के अनेक दृश्य तूने अपनी हो गया है, मुझे कोई नहीं देखता कविने यही प्राशय अपने इन प्रांखोंसे देखे हैं, इसकी चंचलता और मेन्मोहकता निम्न पद्यमें अंकित किया है :लुभाने वाली है। जरा इस ओर मुके कि स्वहितसे वंचित 'देखो भर जोबनमें पुत्रको वियोग आयो, हुए । इतना सब कुछ होते हुए भी यह मानव मोहसे लक्ष्मी- तैसें ही निहारी निज नारी काल मग मैं । की ओर ही झुकता है, स्वात्मःकी ओर तो भूलकर भी नहीं जे जे पुण्यवान जीव दीसत हैं यान ही पे, देखता, परको उपदेश देता है, उन्हें मोह छोदनेकी प्रेरणा रंक भये फिरें तेऊ पनही न पगमै । करता है, पर स्वयं उसीमें मग्न रहना चाहता है । चाहता है एते पै अभाग धत-जीतबसौं धरै राग, किसी तरह धन इकट्ठा हो जाय तो मेरे सब कार्य पूरे होय न विराग जानै रहूँगौ अलगमैं । हो जावेंगे और धनाशा पूर्तिके अनेक साधनभी जुटाता है आखिन विलोकि अन्ध सू । अंधेरी करै, उन्हींकी चिन्तामें रात-दिन मग्न रहता है। रात्रिमें स्वप्न- ऐसे राजरोगको इलाज कहा जग में ॥ ३५॥ सागरमें मग्न हुअा अपनेको धनी और वैभवसे सम्पन्न सम
हे भूधर ! तू क्या संसारकी इस विषम परिस्थितिसे झता है। पर अन्तिम अवस्थाकी ओर उसका कोई लक्ष्य परिचित नहीं है. और यदि है तो फिर पर पदार्थों में रागी भी नहीं होता। यही भाव कविने शतकके निम्न दो पद्योमें
क्यों हो रहा है ? क्या उन पदार्थोंसे तेरा कोई सुहित हुश्रा व्यक्त किये हैं
है, या होता है ? क्या तूने यह कभी अनुभब भी किया है चाहत हैं धन होय किसीविध,तो सब काज सरें जियराजी, कि मेरी यह परिणति दुखदाई है, और मेरी भूल ही मुझे गेहचिनायकरूंगहना कछु,व्याहिसुतासुत बांटिए भाजी। दुःखका पात्र बना रही है । जब संसारका अणुमात्र भी परचिंतत यौं दिन जाहिंचले,जम आन अचानक देतदगाजी पदार्थ तेरा नहीं है, फिर तेरा उस पर राग क्यों होता है ? खेलत खेलखिलारि गए, रहिजाइ रुपीशतरंजकी बाजी। चित्तवृत्ति स्वहितकी ओर न झुक कर परहितको ओर क्यों
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किरण १० ]
झुकती है, तू यह सब जानते हुए भी अनजान सा क्यों हो रहा है यह रहस्य कुछ मेरी समझ में नहीं श्राता
कविवर भूधरदास और उनकी विचारधारा
हे भूधर ! परपदार्थों पर तेरे इस रागका कारण अनन्तजन्मोंका संचित परमें श्रात्म कल्पनारूप तेरा मिथ्या अध्य वसाय ही है जिसकी वासनाका संस्कार तुझे उनकी श्रोर श्राकर्षित करता रहता है—बार बार झुकाता है। यही वासना रूप संस्कार तेरे दुःखोंका जनक है । अतः उसे दूर करनेका प्रयत्न करना ही तेरे हितका उपाय है; क्योंकि जब तक परमें तेरी उम्र मिथ्या वासनाका संस्कार दूर नहीं होगा तब तक पर पदार्थोंसे तेरा ममत्व घटना संभव नहीं है। यदि तुझे अपने हितकी चिन्ता है, तू सुखी होना चाहता है, और निजानन्दरसमें लीन होनेकी तेरी भावना है तो तू उस भ्रामक संस्कारको छोड़नेका शीघ्र ही प्रयत्न कर, जब तक तू ऐसा प्रयत्न नहीं करता तब तक तेरा वह मानसिक दुःख किसी तरह भी कम नहीं हो सकता, किन्तु वह तेरे नूतन दुःखका जनक होता रहेगा।
इस तरह विचार करते हुए कविवरने अपनी भूल पर गहरा विचार किया और आत्म-हितमें बाधक कारणका पता लगा कर उसके छोड़ने अथवा उससे छूटने की ओर अपनी शक्ति और विवेककी ओर विशेष ध्यान दिया । कविवर सोचते हैं कि देखो, मेरी यह भूल अनादि कालसे मेरे दुःखों की जनक होती रही है, मैं बावला हुआ उन दुःखोंकी असह्य वेदनाको सहता रहा हूँ, परंतु कभी भी मैंने उनसे छूटनेका सही उपाय नहीं किया, और इस तरह मैंने अपनी जिन्दगीका बहुभाग यों ही गुजार दिया। विषयोंमें रत हुआ कष्ट परपराकी उस वेदनाको सहता हुआ भी किसी खास प्रतीतिका कोई अनुभव नहीं किया । दुखसे छूटनेके जो कुछ उपाय ब तक मेरे द्वारा किए गए हैं वे सब भ्रामक थे। मैं अपनी मिथ्याधारणवश अपने दुःखोंका कारण परको समझता रहा और उससे अपने राग-द्वेष रूप कल्पनाजानमें सदा उलकता रहा, यह मेरी कैसी नादानी ( अज्ञानता ) थी जिसकी ओर मेरा कभी ध्यान ही नहीं जाता था, अब भाग्योदयसे मेरे उस विवेककी जागृति हुई है जिसके द्वारा मैं अपनी उस अनादि भूलको सममनेका प्रयत्न कर पाया हूँ। अब मुझे यह विश्वास हो गया है कि मैं उन दुःखोंसे वास्तविक छुटकारा पा सकता हूँ । पर मुझे अपनी उस पूर्व अवस्थाका ख्याल बार बार क्यों श्राता है ? जिसका ध्यान आते ही मेरे रोंगटे हो जाते हैं। यह मेरी मानसिक निर्वखतः
३०६
अथवा आत्म कमजोरी है। इस कमजोरीको दूर कर मुझे श्रात्मबल बढ़ाना श्रावश्यक है। वास्तव में जिनभगवान और जिनचचन ही इस असार संसारसमुद्रसे पार करने में समर्थ हैं। अतः भव-भवमें मुझे उन्हींकी शरण मिले यही मेरी आन्तरिक कामना है जिन वचनोंने ही मेरी दृष्टिको निर्मल बनाया है और मेरे उस ग्रान्तर्विषेकको जागृत किया है जिससे मैं उस अनादि भूलकों समझ पाया हूँ । जिनवचनरूप ज्ञानःशलाकासे वह अज्ञान अन्धकार रूप कल्मष अंजन भुल गया है और मेरी दृष्टिमें निर्मलता आगई है। अब मुके सांसारिक झंझटें दुखद जान जान पड़ती है। और जगत के ये सारे खेल प्रसार और झूठे प्रतीत होते हैं। मेरा मन अब उनमें नहीं लगता, यह इन्द्रिय विषय कारे विषधरके समान भयंकर प्रतीत होते हैं। मेरी यह भावना निरन्तर जोर पकढ़ती जाती है कि तू अब घरसे उदास हो जंगलमें चला जा, और वहाँ मनकी उस पल गतिको रोकनेका प्रयत्न कर, अपनी परिणतिको स्वरूपगामिनी बना वह अनादिसे पर गामिनी हो रही है, उसे अपनी ज्ञान और विवेक ज्योतिके द्वारा निर्मल बनानेका सतत उद्योग कर, जिससे अविचत्र ध्यानकी सिद्धि हो, जो कर्म कलंकके जलानेमें असमर्थ है। क्योंकि श्रात्म-समाधिकी दृढ़ता यथाजात मुद्राके बिना नहीं हो सकती। और न विविध परीषहोंके सहनेकी वह क्षमता ही आ सकती है कविवरकी इस भावनाका यह रूप निम्न पथमें अंकित मिलता है।
कब गहवाससौ उदास होय वन सेऊँ, बेॐ निजरूप गति रोकू मन-करीकी। हि हो अडोल एक आसन अचल अंग, सहिहाँ परीसा शीत घाम मेघ झरीकी । सारंग समाज कबध खुजे हे आनि, ध्यान -दल-जोर जीतू सेना मोह-रीकी । एकल विहारी जथाजात लिंगधारी कब, हो इच्छा चारी बलिहारी हौं वा घरी की।
कविवरकी यह उदात्त भावना उनके समुन्नत जीवनका प्रतीक है। कविकी उपलब्ध रचनाएँ उनकी प्रथम साधक वस्था की है जिनका ध्यानसे समीक्षण करने पर उनमें कविकी अन्तर्भावना प्रच्छन्न रूपसे अंकित पाई जाती है। जो उनके मुमुक्षु जीवन बितानेकी ओर संकेत करती है ।
xइस असार संसारमैं और न सरन उपाय । जन्म-जन्म जी मैं, जिनवर धर्म सहाय ॥
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३१०]
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अनेकान्त
[ करण १० कविवर कहते हैं कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि जरा त्यों ही कुविसन रत पुरुष होय अवसि अविवेक। (बुढ़ापा) मृत्युकी लघु बहन है फिर भी यह जीव अपने हित अनहित सोचे नहीं हिये विसनकी टेक ॥ ७२ हितकी चिन्ता नहीं करता, यह इस आत्माकी बड़ी भूल है। सज्जन टरै न टेवसौं न दुख देय। यही भाव उनके निम्न दोहेमें निहित है
चन्दन कटत कुठार मुख, अवसि सुवास करेय ।। १०६ "जरा मौतकी लघुवहन यामें संशयनाहिं । .. दुर्जन और सलेश्मा ये समान जगमांहि । तौ भी सुहित न चिन्तवै बड़ी भूल जगमाहिं ।। ६२ ज्यों ज्यों मधरो दीजिये त्यों त्यों कोप कराहिं ।। ११३ .. रचनाएँ
जैसी करनी आचरै तैसो ही फल होय । कविकी इस समय तीन कृतियाँ उपलब्ध हैं, जिनशतक, इन्द्रायनकी बेलिके आम न लागै कोय ॥ १२० पदसंग्रह और पार्श्वपुराण । . .
बढी परिग्रह पोट सिर, घटी न घटकी चाह । ये तीनों ही कृतियाँ अपने विषयकी सुन्दर रचनाएँ हैं। ज्यों ईधनके योगसौं अगिन करै अति दाह ।। १५० मह पढ़नेमें सरस मालूम होती हैं, और कविके भावुक . सारस सरवर तजगए, सूखो नीर निराट । . हृदयकी अभिव्यंजक हैं। उनमें पाशवपुराणकी रचना अत्यन्त __ फलविन विरख विलोककै पक्षी लागे वाट ॥ १६० सरल और संक्षिप्त होते हुए भी पाश्र्घनाथके जीवनकी परि
कविवरने अपने पाश्चपुराणकी रचना संवत् १७५९ में चायक है। जीवन-परिचयके साथ उसमें अनेक सूक्रियाँ
प्रागसमें अषाढ सुदि पंचमीके दिन पूर्ण की है। और जिनमौजूद हैं जो पाठकवे. हृदयको केवल स्पर्श ही नहीं करतीं।
शतककी रचनाका उल्लेख पहले किया जा चुका है। पदप्रत्युत उनमें वस्तुस्थितिके दर्शन भी होते हैं। पाठकोंकी।
का संग्रह कविने कब बनाया। इसका कोई उल्लेख अभी तक जानकारीके लिए कुछ सूकि पद्य नीचे दिये जाते हैं- . प्राप्त नहीं हा। मालूम होता है कविने उसकी रचना भिन्न
उपजे एकहि गर्भसौं सज्चन दुजेन येह। भिन्न समयों में की है। इस पदसंग्रहमें कविकी अनेक भावलोह कवच रक्षा करे खांडो खंडे देह ॥ ५८ पूर्ण स्तुतियोंका भी संकलन किया गया है जो विविध समयों दर्जन दूषित संतको सरल सुभाव न जाय। में रची गई हैं।
दर्पणकी छबि छारसौं अधिकहिं उज्जवल थाय ॥६८ पिता नीर परसै नहीं, दूर रहे रवियार । - संवत् सतरह शतकमैं, और नवासी लीय । ता अंबुजमें मूढ अलि उझि मरै अविचार ॥७१ सुदि अषाढतिथि पंचमी ग्रंथ समापत कीय ॥
'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें
'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से ११३ वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक मुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है। लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइल थोड़ी ही रह गई हैं। अतः मंगाने में शीघ्रता करें। फाइलों को लागत मून्यं पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा।
मैनेजर-'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दिल्ली।
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श्रीबाहुबलीकी आश्चर्यमयी प्रतिमा
[ आचार्य श्रीविजयेन्द्रसूरि ]
श्रवणबेलगोल नामके ग्राम में अतिविशाल, स्थापत्यकलाकी दृष्टिसे श्रद्भुत एक मनुष्याकार मूर्ति है, जो श्रीबाहुबलीकी है यह मूर्ति पर्वतके शिखरपर विद्यमान है और पर्वतकी एक बृहदाकार शिलाको काटकर इसका निर्माण किया गया है। नितान्त एकान्त वातावरण में स्थित यह तपोरत प्रतिमा मीलों दूरीसे दर्शकका ध्यान अपनी चोर आकृष्ट करती है।
श्रवणबेलगोल गांव मैसूर राज्यमें मैसूरसे ६२ सिंकेरी स्टेशनसे ४२, हासनशहर से ३२ और चमरायपट्टनसे ८ मीलकी दूरीपर है। इसके पासही हलेबेलगोल और कोडी बेलगोल नामक गाँव हैं, उनसे पृथक् दर्शाने के लिए ही इसे श्रमण अर्थात् जैनसाधुत्रोंका बेलगोल कहा जाता है । बेलगोल कन्नड़ भाषाका शब्द है और इसका अर्थ है : श्वेत सरोवर । इस स्थानपर स्थित एक सरोवरके कारण ही सम्भवतः यह नाम पड़ा है। इस सरोवरके उत्तर और दक्षिण में दो पहाड़िवाँ हैं और उनके नाम क्रमशः चन्द्रगिरि और विंध्यगिरि है | इस विंध्यगिरिपर चामुण्डरायने बाहुबली अथवा भुजबलीकी - जिनका लोकप्रसिद्ध नाम गोम्मटस्वामी या गोम्मटेश्वर है- विशाल प्रतिमाका निर्माण कराया । यह मूर्ति पर्वतके चारों ओर १५ मीलकी दूरीसे दिखाई देती है और चन्नरायपट्टनसे तो बहुत अधिक स्पष्ट हो जाती है।
इस विशाल प्रतिमाके अासपास बादमें चामुण्डरायका अनुकरण करके वीर-पाण्ड्य के मुख्याधिकारीने १४३२ ई० में कारक मूवी २२ मीलमें गोम्मटेश्वरकी दूसरी मूर्ति बनवाई। कुछ काल बाद प्रधान तिम्मराजने वेणूरमूडी १२ मील और श्रवणबेलगोलसे १६० मील में सन् १६०४ ई० में गोम्मटेश्वरकी उसी प्रकारकी एक और प्रतिमा निर्मित करवाई। इन तीनोंके निर्माणकाल में अन्तर होनेपर भी तीनों एक ही सी हैं। इससे जैनकलाकी एकनियम-बद्धता और अविच्छिन्न प्रवाहका परिचय मिलता है । प्रतिमा
ये प्रतिमाएँ संसार के आश्चर्योंमेंसे हैं। श्री रमेशचन्द्र मजूमदारके विचारसे तो यह प्रतिमाएं विश्वभर में अद्वितीय
हैं | श्रवणबेलगोलवाली प्रतिमाकी ऊंचाई २७ फीट है। इसके विभिन्न अंगों की मापसे इसकी विशालताका अनुमान किया जा सकता है।
चरणसे कानके अधोभाग तक २० ०" कानके अधोभागसे मस्तक तक ६-६” चरणकी लम्बाई
३०"
चरणके अग्रभागकी चौड़ाई चरणका अंगूठा छातीकी चौड़ाई
४-६७
२१-३"
२६-०
यह हलके भूरे प्रोनाइट पत्थरके एक विशाल खण्डको काटकर बनाई गई है और जिस स्थानपर स्थित है, वहीं पर ही निर्मित की गई थी। कारकल वाली प्रतिमा भी उसी पथरकी है और उसकी ऊँचाई ४२ फीट है, अनुमानतः यह २१७४ मन भारी है। इन विशालकाय प्रतिमाओं में वेणूर वाली प्रतिमा सबसे छोटी है, इसकी ऊंचाई ३७ फीट है । कलात्मक दृष्टिसे तीनों एक होनेपर भी वेणूरकी प्रतिमाके कपोलोंमें गड्ढेसे हैं जो गंभीर मुस्कराहटकासा भाव लिए हैं। सम्भवतः उसके प्रभावोत्पादक भावमें कुछ न्यूनता आ गई है।
श्रवणबेलगोलकी प्रतिमा तीनोंसे सर्वाधिक प्राचीन अथवा विशाल ही नहीं है किन्तु ढालू पहाड़ीकी चोटी पर स्थित होनेके कारण इसके निर्माण में बड़ी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा होगा। यह मूर्ति उत्तराभिमुख सीधी खड़ी है और दिगम्बर है। जांघोंसे ऊपरका भाग बिना किसी सहारेके है उस स्थल तक वह बरमीकसे अच्छादित है। जिसमेंसे सांप निकलते प्रतीत होते हैं। उसके दोनों पैरों और भुजाओंके चारों ओर माधवी लबा लिपटी हुई है और लता अपने अन्तिम तिरों पर पुष्प गुच्छोंसे शोभित है। मूर्तिके पैर एक विकसित कमल पर स्थित हैं ।
इस प्रतिमाके निर्माता हैं शिल्पी अरिष्टनेमि । उन्होंने प्रतिमा निर्माण में अंगों का निर्माण ऐसे नपे तुले ढंग से किया है कि उसमें किसी प्रकारका दोष निकाल सकना सम्भव नहीं है। सामुद्रिक शास्त्रमें जिन अंगोंका दीर्घ और बड़ा होना सौभाग्य-सूचक माना जाता है वे अंग वैसे ही हैं;
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३१२]
अनेकान्त
[किरण १०
उदाहरणार्थ कानोंका निचला भाग, विशाल कंधे और भाजानुबाहु । मूर्तिके कंधे सीधे हैं. उनसे दो विशालभुजाएं स्वाभाविक ढंगसे अवलम्बित हैं हाथ की उंगलियाँ सीधः हैं और अंगूठा ऊपरको उठा हुआ उंगलियोंसे अलग है । पेद पर निबलियां गलेकी धारियां, घुघरीले बालोंके गुच्छे आदि स्पष्ट हैं । कलात्मक दृष्टि से आडम्बर- हीन, सादी और सुडौल होनेपर भी भावग्यजनाकी दृष्टिसे अनुपम हैं। बाहुबली
जैसा कि ऊपर निर्देश किया गया है ये तीनों मूर्तियाँ बाहुबलीकी हैं जो प्रथम तीर्थकर आदिजिन ऋषभनाथके पुत्र थे अनुति परम्पराके अनुसार उनकी दो पत्नियां थीं, सुमङ्गला और सुनन्दा । सुमङ्गलासे उत्पन्न जुड़वां का नाम था भरत और ब्राह्मी, एक लड़का और एक लड़की, सुमङ्गलासे ही अन्य १८ पुत्र उत्पन्न हुए सुनन्दासे दोसन्तान थीं, बाहुबली और सुन्दरी। जब भगवान ऋषभदेवने केवल-ज्ञान प्राप्तिके लिए गृह-त्याग किया तो उन्होंने अपना राज्य भरतादि सो पुत्रोंको बांट दिया। बाहवलीको तक्षशिलाका राज्य मिला । भरतने सम्पूर्ण पृथ्वीका विजय करके चक्रवर्तीका पद धारण तो किया परन्तु भरत चक्रवर्तिका चक्र प्रायुधशाला (शस्त्रा गार) में प्रवेश नहीं करता था।मन्त्रीसे कारण पूछने पर ज्ञात हा कि उनके भाई बाहबलीने अधीनता स्वीकार नहीं की, इस कारण यह चक्र शस्त्रागारमें प्रवेश नहीं करता । भरतने सन्देश
भेजकर बाहुबलीसे अधीनता स्वीकार करनेको कहा. परन्तु बाहुबलीने यह स्वीकार नहीं किया भरतने बाहुबली पर चढ़ाई की, दोनों में भयङ्कर युद्ध हश्रा, अन्तभ विजय लक्ष्मी बाहुबलीको प्राप्त हुई। विजय प्राप्त कर लेने पर भी बाहुबलीको वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने भगवान् ऋषभदेवके पास जानेका
विचार किया। चलते समय यह विचार प्राया कि मेरे १८ भाई पहले ही दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त कर चुके हैं वे वहां होंगे और उन्हें वन्दन करना पड़ेगा, इसलिए केवलज्ञान प्राप्त करके ही वहां जाना ठीक रहेगा। यह विचार कर वहीं तपस्यारत हो गए। वर्षभर मूतिकी भांति खड़े रहे ! वृक्षों में लिपटी लताएं उनके शरीर में लिपट गई । उन्होंने अपने वितानसे उनके सिरपर छत्र सा बना बना दिया। उनके पैरोंके बीच कुश उग
आए जो देखने में बल्मीकसे प्रतीत होने लगे । एक वर्ष तक उग्र तप करने पर भी जब उन्हें केवल ज्ञान नहीं
प्राप्त हुश्रा- क्योंकि उनके मनमें यह भाव विद्यमान था कि मुझे अपने से छोटे भाइयोंको वन्दन करना पड़ेगा-उन्हें प्रतिबोध कराने के हेतु उनकी बहिनें ब्राह्मी और सुन्दरी पायीं
और बोली- भाई ! मोहके मदोन्मत्त हाथीसे नीचे उतरो । इसने ही तुम्हारी तपस्याको निरर्थक बना * यह उल्लेख श्वेताम्बर-मान्यताके अनुसार है।
सम्पादक
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किरण १०]
रखा है। यह सुनकर बाहुवलीको ज्योति-मार्ग मिल गया और उन्हें केवल ज्ञान हो गया ।
श्री बाहुबलीकी आश्चर्यमयी प्रतिमा
1
यह प्रतिमा इन्हीं बाहुबलीकी की है उत्तरभारत में यह इसी नाम से विख्यात है । परंतु दक्षिण में यह गोम्मटेश्वर नामसे प्रसिद्ध है। प्राचीन ग्रंथोंमें गोम्मटेश्वर नामका प्रयोग नहीं मिलता। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यह नाम चाचार्य नेमिचन्द्र विद्वान्तवर्ती द्वारा दिया हुआ · मूर्तिके निर्माता चामुण्डरायका एक अन्य नाम गोम्मटराय था, कन्नड़ी में गोम्मटका अर्थ होता है 'कामदेव'; यह नाम ही वस्तुतः कन्नड़ भाषा का है। गोम्मटराय (चामुण्डराय ) के पूज्य होने के कारण बाहुबली गोम्मटेश्वर कहलाए होंगे। दक्षिणी भाषाका शब्द होनेके कारण इसका यहाँ चलन हो
गया ।
चामुण्डराय
"चाराय गंगवं राजा राचमखके मन्त्री और सेनापति थे। इससे पूर्व चामुण्डराव गंगवंशीय मारसिंह द्वितीय और उनके उतराधिकारी पांचालदेवके भी मन्त्री रह चुके थे। पांचालदेवके बाद ही राम गही पर बैठे राचमहल गद्दी थे । मारसिंह द्वितीयका शासनकाल चेर, चोल, पाण्ड्यवंशों पर विजय प्राप्तिके लिए प्रसिद्ध है मारसिंह आचार्य अजितसेनके शिष्य थे और अपने युगके बड़े भारी पोदा ये और अनेक जैनमन्दिरोंका निर्माण कराया था। राचमस्व भी मारसिंहकी भांति जैनधर्म पर श्रद्धा रखते थे ।
1
चामुण्डराय तीन तीन नृपतियोंके समय श्रमात्य रहे । इन्हीं के शौर्य के कारण ही मारसिंह द्वितीय वज्जल, गोनूर और उगी क्षेत्रों में विजय प्राप्त कर सके राम के लिए भी उन्होंने अनेक युद्ध जीते। गोविन्दराज, वेंकोंडु राज आदि अनेक राजाओंको परास्त किया। अपनी योग्यता के कारण इन्हें अनेक विरुद प्राप्त हुए। श्रवणबेलगोल के शिक्षाले चामुण्डरायकी बहुत प्रशंसा है इन लेखों में अधिकांश युद्धों विजय प्राप्त करनेका ही उक्जेल है। परन्तु जीवनके उत्तरकालमें चामुण्डराय धामिक कृत्योंमें प्रवृत्त रहे । वृद्धावस्थामें इन्होंने अपना जीवन गुरु अजितसेनकी सेवामें व्यतीत किया ।
चामुण्डराय द्वारा निमित इस प्रतिमाके सम्बन्धमें अनेक प्रकारकी किंवदन्तियों प्रचलित है बादुपक्षि* यह सब कथन श्वेताम्बर- मान्यता के अनुसार है ।
- सम्पादक
स्वतः निर्मित थी ।
प्रतिमा निर्माण काल
-:
।
चरित्र नामक संस्कृत काव्य के अनुसार राचमश्की राजसभामें चामुण्डरायने एक पथिक-व्यापारीसे यह सुना कि उत्तर में पौदनपुरी स्थानपर भरत द्वारा स्थापित बाहुबलीकी एक प्रतिमा है। उसने अपनी माता समेत उस प्रतिमाके दर्शनका विचार किया परन्तु पोदनपुरी जाना अत्यन्त दुष्कर समझ कर एक सुवर्णवाणसे पहाड़ीको वेदकर रावण द्वारा स्थापित बाहुबलीकी प्रतिमाका पुनरुद्वार किया । देवचन्द्र द्वारा रचित कनाडी भाषाकी एक नवीन पुस्तक में भी थोड़े अन्तरसे यही कथा आयी है इसके अनुसार इस प्रतिमाके सम्बन्धमें चामुण्डरावकी माताने पद्मपुराणका पाठ सुनते समय यह सुना कि पोदनपुरी मे बाहुबलीकी प्रतिमा है। इस कथायें भी यह प्रतीत होता है कि चामुण्डरावने यह प्रतिमा नहीं बनवाई अपितु इस शिल्पियोंने इस प्रतिमाके सब अंगोंको ठीक ढंगले सुडौल पहाड़ पर एक प्रतिमा पहलेसे विद्यमान थी, चामुण्डरायने बनवाकर सविधि स्थापना और प्रतिष्ठा कराई । श्रवणबेळगोळमें भी कुछ इसी प्रकारकी छोक-कथाएं प्रचक्षित है और उनसे ऊपरकी किंवदन्तियोंके अनुसार प्रतीत होता है कि इस स्थान पर एक प्रतिमा थी जो पृथ्वीसे
[ ३१३
जिस शिलालेख में चायडरावने अपना वर्णन किया है उसमें केवल अपनी विजयोंका उल्लेख किया है किसी धार्मिक कृत्यका नहीं । यदि मारसिंह द्वितीय के समय उसने प्रतिमाका निर्माण कराया होता तो शिक्षा अवश्य इसका निर्देश रहता। मारसिंह द्वितीयकी मृत्यु १७५ ई० में हुई । चामुण्डरायने अपने ग्रन्थ चामुण्डरायपुराण में भी इस प्रतिमाके सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं किया। इस पुस्तकका रचनाकाल १०८ ई है। राजम द्वितीयने २८४ द्वितीयने १८४ ई० तक राज्य किया । इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रतिमाका निर्माण १७८ और १८४ ई० के बीच हुआ होगा।
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बाहुबल-चरितमें आये एक श्लोकके अनुसार चामु डरावने बेलगुज नगर में कुम्भलग्न में रविवार चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन विभय नाम कविक पद्ाताय संवत्सरके प्रशस्त मृगशिरा नक्षत्र में गोमटेश्वर की स्थापना की। इस श्लोक में निर्दिष्ट समय पर अबतक ज्योतिषके
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३१४
हिसाब से जो कार्य हुआ है उसके अनुसार ३७८ और और ६८४ के वीच ३ अप्रैल १८० ई० को मृगशिरा नक्षत्र था और पूर्व दिवससे (चैत्रकी बीसवीं तिथि) शुक्ल पक्षकी पंचमी लग गई थी और रविवारको कुम्भलग्न भी था। परन्तु कल्कि संवत् ६०० ई० सन्का १०७२ होता है और इस सन् में चैत्रशुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि चैत्रके तेईसवें दिन शुक्रवार पड़ता है जो उपर्युक्त श्लोकमें
अनेकान्त
[ किरण १०
निर्दिष्ट समयके प्रतिकूल है । परन्तु यह मान लिया गया है कि कल्कि संवत् ६०० का अभिप्राय छुटी शताब्दि है, संस्कृतका इसके अनुरूप पद है 'कल्क्यब्दे ष्टशताख्ये' । विभवको वां वर्ष मान लेनेसे २०८ कलमब्द बनता है। जो कि ईस्वी सन् का १८० बन जाता है । इस गणना ऊपरकी संगति बैठ जाती है और प्रतिमाका स्थापनाकाल २ अप्रैल १८० ई० निश्चित होता है। (हिन्दुस्थान से )
'गरीबी क्यों' इस प्रश्नका सीधा-सा और बंधाबंधाया उत्तर दिया जाता है 'पू'जीवादी शोषणके कारण गरीबी है।' इस उत्तर में सच्चाई है और काफी सचाई है, फिर भी कितने लोग इस सचाईका मर्म समझते हैं मैं नहीं कह सकता । पूंजीवादसे गरीबी क्यों आती है इसकी छानबीन भी शायद ही कोई करता हो। महर्षि मार्क्सने मुनाफा या अतिरिक्त मूल्यका जो विश्लेषण किया है वही रटरटाया उत्तर बहुत से लोग दुहरा देते हैं। पर यह सिर्फ दिशा-निर्देश है उससे गरीबी के सब या पर्याप्त कारणों पर प्रकाश नहीं पड़ता, सिर्फ गरीबीके विषवृक्षके बीजका पता लगता है । पर वह बीज अंकुरित कैसा होता है फूलता फलता कैसे है इसका पता बहुतों को नहीं है।
साधारणतः शोषकोंमें मिलमालिकों, बैकरों तथा बड़ेकारखानेदारोंको गिना जाता है, और यह ठीक भी है। छोटे-छोटे कारखाने जिनमें दस-दस पाँच-पाँच आदमी काम करते हैं, उनमें मालिक तो उतना ही कमा पाता है जितना कि उस कारखाने में एक मैनेजर रख दिया जाय और उसे वेतन दिया जाय । पूंजीवादी प्रथा न होने पर भी उन छोटे-छोटे कारखानों में मजदूरोंको ग्रामदानीका उतना ही हिस्सा मिलेगा जितना आज मिलता है। इसलिये उनका शोषकों में गिनना ठीक नहीं । बाकी किसान, मजदूर, दुकानदार, अध्यापक, लेखक, कलाकार आदि भी शोषकोंमें नहीं गिने जाते और है भी यह ठीक । बल्कि इनमेंसे अधिकाँश शोषित ही होते हैं। सच पूछा जाय तो इस प्रकार देशकी जनता में शोषकोंका अनुपात हजारमें एकके हिसाब से पढ़ता है। ऐसी हालत में यह कहना कठिन है
गरीबी क्यों ?
(गरीब दस कारणों की खोज और व्याख्या)
कि एक आदमीका शोषण इतना अधिक हो जाता है कि वह ६६९ श्रादमियोंको गरीब करदे । .
अभी मैं एक बड़ी भारी कपड़ेकी मिल में गया । पता लगा कि यहाँ साधारणसे साधारण मजदूरको कम-से-कम ७५) माह मिलता है। और किसी किसीको ३००) माह से भी अधिक मिलता है। तब मैंने सोचा कि इन मजदूरोंकी टोटल श्रमदनी प्रति व्यक्ति १०० ) माहवार समझना चाहिये ।
मान लीजिये कि मजदूर तो १००) माह पाता है और मालिक पच्चीस हजार रुपया माह लेकर घोर शोषण और अन्याय करता है । अगर मालिक यह पच्चीस हजार रुपमा न ले और यह रुपया मजदूरोंमें बंट जाय तो पाँच हजार मजदूरों में पच्चीस हजार रुपवा बंटनेसे हरएक मजदूरको सौ के बदले एक सौ पाँच रुपया माहवार मिलने लगे । निःसन्देह इससे मजदूरकी ग्रामदानीमें तो अन्तर पड़ेगा। पर क्या यह अन्तर इतना बड़ा है कि १००) में मजदूरको गरीब कह दिया जाय और १०५ में अमीर कह दिया जाय ? क्या देशकी अमोरीकी आदर्शमें और श्राजकी गरीबी में सिर्फ पाँच फीसदीका ही फर्क है।
यदि देश के अमीरोंकी सब सम्पत्ति गरीबोंमें बांट दी जाय तब भी क्या गरीबोंकी सम्पत्ति ५ फीसदी से अधिक बढ़ सकती है ? अगर हम पैतीस करोड़ रुपया हर साल अमीरोंसे छोनकर पैंतीस करोड़ गरीबोंमें बांट दे तो सबको एक-एक रुपया मिल जायगा । इस प्रकार सालमें एक-एक रुपएकी आमदनीसे क्या गरीबी अमीरोमें बदल जाएगी । पैंतीस करोड़ की बात जाने दें पर वह रुपया सिर्फ साढ़े
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किरण १०]
गरीबी क्यों?
[३१५
तीन करोड़ आदमियोंमें ही बांटे तो भी दस-दस रुपए १. अश्रम-बहुतसे लोग श्रम करनेके योग्य होने हिस्सोंमें पायेंगे इससे भी गरीबी अमीरीमें तब्दील नहीं पर भी श्रम नहीं करते । इसलिए उनसे जो सुख-सुविधा हो सकती। तब सम्पत्ति दानयज्ञमें हर साल दस बीस या सुख-सुविधाका सामान पैदा हो सकता है वह नहीं हो करोड रुपया पानेसे भी क्या होगा?
सकता है वह नहीं हो पाता । बालक और वृद्धोंको छोड़ ___ जो लोग दानके द्वारा गरीब देशको अमीर बनाना दिया जाय तो भी इस श्रेणी में कई करोड़ आदमी पाये चाहते हैं वे अर्थ शास्त्रकी वर्णमाला भी नहीं जानते ऐसा जाते हैं। कह देना अपमान जनक होगा, जो लोग विचारकतामें नहीं (क)-समाजकी कोई सेवा न करने वाले युवक संस्कारमान्य यश प्रतिष्ठामें ही बड़प्पन समझते हैं वे इसे साधुवेषी, जो लाखोंकी संख्यामें हैं। वे सिर्फ भजन पूजा छोटे मुंह बड़ी बात समझेगे, कुछ लोग इसे धृष्टता कहेंगे करते हुए आशीर्वाद देते हुए मुफ्त में खाते हैं। इसलिए यह बात न कहकर इतना तो कहना चाहिए कि ' (ख)-भिखारी काम करनेकी योग्यता रखते हुए भी ये लोग अर्थशास्त्रके मामले में देशको काफी गुमराह कर किसी न किसी बहानेसे भीख माँगते है। इनसे भी कोई रहे हैं न वे गरीबीके कारणोंकों इंट कर उसका निदान उत्पादन नहीं होता। कर पा रहे हैं न उसका इलाज। .
(ग)-पैत्रिक सम्पत्ति मिल जानेसे, या दहेज प्रादिमें
सम्पत्ति मिल जानेसे जो पड़े पड़े खाते हैं और कुछ उत्पादस कारण
दन नहीं करते। ऐसे लोग भी हजारोंकी संख्यामें हैं। शोषणका प्रत्यक्ष परिणाम विषम वितरण भी गरीबी
(घ)-घरमें चार दिनको खानेको है, मजदूरी क्यों का कारण है, पर यह एक ही कारण है, वह भी इतना
करें, इस प्रकारका विचार करने वाले लोग बीच-बीचमें बड़ा नहीं कि अन्य कारण न हों तो अकेला यही कारण
काम नहीं करते, इससे भी उत्पादन कम होता है। मजदूर देशको गरीब बनादे। विषम वितरण और शोषण अमे
संगठन करके अधिक मजदूरी ले लेते हैं और फिर कुछ रिकामे हाने पर भा अमारका ससारका सबस बड़ा धन दिन काम नहीं करते। वान देश है। इसलिए सिर्फ गरीबीके लिए इसी पर सारा
(ङ)-चाटुकार चापलूसी करके कुछ मांगने वाले दोष नहीं मडा जा सकता। हाँ! कुछ कारण इसके
लोग भी मुफ्तखोर हैं। राजाओंके पास ऐसे लोग रहते हैं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष परिणाम स्वरूप अवश्य हैं।
या रहते थे जो हुजूरकी जय हो श्रादि बोल कर हुजूरको खैर ! हमें देशकी और व्यक्तिकी गरीबीके सब
खुश करके चैनसे खाने पीनेकी सामग्री पा जाते हैं। कारणों पर विचार करना है और उनसे जितने कारण यद्यपि इन मुसाहितोंकी चापलूसोंकी टोलियाँ कम होती दर हो सकें दर करना है। और यह भी सोचना है कि जाती हैं पर अभी भी हैं। गरीबीके किस कारणको दूर करनेका क्या परिणाम होगा।
इस प्रकार कई करोड आदमी हैं जो कोई उत्पादन गरीबीके दस कारण हैं
श्रम नहीं करते। अगर ये काममें लगें तो देशकी सुख१. प्रश्रम
(नोशिहो) सम्पत्ति काफी बढ़ जाये। २. श्रमानुपलब्धि (शिहोनोशिनो) २. श्रमानुपलब्धि-श्रम करनेकी तैयारी होने पर ३. कामचोरी
(कज्जो चुरो) भी श्रम करनेका अवसर नहीं मिलता। इस बेकारीके ४. असहयोग
(नोमाजो) कारणसे काफी उत्पादन हकता है और देश गरीब रहता ५. वृथोत्पादकश्रम ( नकंजेजशिहो) है। बेकारीका कारण यह नहीं है कि देश में काम नहीं है। ... अनुत्पादक श्रम (नोजेजशिहो) काम तो असीम पड़ा है। पीढ़ियों तक सारी जनता काम.. पापश्रम
(पाप शिहो) में जुरी रहे तो भी काम पूरा न होगा. इतना पड़ा है। न ८. अल्पोत्पादक श्रम (येजेज शिहो) अधिकांश लोगोंके पास रहने योग्य ठीक मकान हैं न सब 1. अनुत्पादकार्जन (नोजेज अर्नो) जगह यातायातके लिये सड़कें हैं, न भरपूर कपड़े हैं, न 10. अनुचित वितरण (नोधिन मुरो) घरमें जरूरी सामान है, न सबको उचित शिक्षण मिल
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३१६
पाता है, न कलाओं का विकास हो पाता है, न चिकित्सा की भरपूर व्यवस्था है, न सबके पास यातायातके भरपूर साधन हैं, इत्यादि असीम काम पड़ा है, इसलिए काम के अभावमें बेकारी नहीं है। एक तरफ काम पड़ा है, दूसरी तरफ कामकी सामग्री पड़ी है, तीसरी तरफ काम करने वाले बेकार बैठे हैं, इन तीनोंको मिलानेकी कोई आर्थिक व्यवस्था नहीं है यही बेकारीका कारण है जिससे असीम उत्पादन रुका पड़ा है और देश गरीब है ।
अनेकान्त
[ वर्ष ४७
रहते है और बेज़रूरी काम भ्रम और साधनोंकी बर्बादी करने लगते हैं।
३. कामचोरी - काम करने वाले नौकरोंमें उत्तेजनाका कोई कारण न होने से वे किसी तरह समय पूरा करते हैं कम-से-कम काम करते हैं, किसी न किसी बहानेसे समय बर्बाद करते हैं. मन्द गतिसे काम करते हैं इसलिये उत्पादन कम होता है । कामका ठेका दिया जाय या नौकरोंको हिस्सेदारकी तरह आमदनी मेंसे हिस्सा दिया जाय तो इस तरह समयकी बर्बादी न हो, न मन्दगतिले काम हो । उत्पादन बढ़े। इसलिए किसी न किसी तरह का संघीकरण करना जरूरी है ।
४. असहयोग–व्यक्तिवादी आर्थिक व्यवस्था होनेसे काममें दूसरोंका उचित सहयोग नहीं मिलता इसलिए कार्य ठीक ढंगसे और ठीक परिमाणमें नहीं हो पाता, इसलिए उत्पादन काफी घट जाता है। जानकारोंकी सलाह न मिल सकना, यातायातके ठीक साधन न मिलना, या जरूरत समझी जानेमे काफी महंगे और अधूरे साधन मिलना, मजदूरोंका अड़कर बैठ जाना आदि अस हयोगके कारण उत्पादन घटता है। व्यक्तिवादका यह स्वाभाविक पाप है।
५. वृथोत्पादकश्रम - श्रम करने पर उत्पादन तो होता है पर वह उत्पादन किसी कामका नहीं होता या उचित कामका नहीं होता। एक आदमी काफी मेहनत करके दवाइयाँ बनाता है, पर दवाई किसी कामकी नहीं होती सिर्फ किसी तरह दवाई बेच कर पेट पान लिया जाता है। इसी तरह कोई बेकार के खिलौने बना कर पेट पालने लगता है, ये सब वृथोत्पादक श्रम हैं इनसे मेहनत तो होती है पर कुछ लाभ नहीं होता बल्कि कृष सामग्री बेकार नष्ट हो जाती है । व्यक्तिवादकी प्रधानतामें जब आदमी का कोई धन्या नहीं मिलता वह ऐसे थोपा एक अम करके गुजर करने लगता है जरूरी काम पड़े
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६. अनुत्पादकश्रम — जिसमें मेहनत तो की जाय पर उससे उत्पादन या लाभ कुछ न हो वह अनुत्पादक श्रम है ।
बीमारीका इलाज करने के लिए जप, होम, बलिदान, परिक्रमा तथा पूजा आदि धन और शक्ति बर्बाद करना या पानी बरसाने आदिके लिये ऐसे कार्य करना, जिससे शारीरिक शक्तिका कोई उपभोग नहीं ऐसी शारीरिक शक्ति बढ़ानेके लिये मेहनत करना जैसे पहलवानी आदि शांतिकी ठीक योजनाओंके बिना विश्व शान्ति यज्ञ करना, आदि अनुत्पादक भ्रम है।
मनुष्यजातिकी दृष्टिसे सैनिकता के कार्य भी अनुस्पादक श्रम हैं। फौजी बजटका बढ़ना भी देशकी गरीबीको निमन्त्रण देना है।
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स्वास्थ्य के लिये व्यायाम करना, मनकी शांतिके लिये प्रार्थना आदि करना, अनुत्पादक भ्रम नहीं है। क्योंकि जिस शारीरिक और मानसिक नामके जिये ये किये जाते हैं उस जाम के ये उचित उपाय है। धनुषा दक अममें ऐसे अनुचित कार्य किए जाते है जो अपने लक्ष्य के उपाय साबित नहीं होते । अनुत्पादमश्रम में देशका उत्पादन तो बढ़ता ही नहीं किन्तु उत्पादन के निमित्त धन-जन-शक्तिकी बर्बादी होती है।
७. पापश्रम चोरी डकैती हुआ आदि कार्योंनें जो श्रम किया जाता है उससे पाप तो होता ही है पर देश में उत्पादन कुछ नहीं बढ़ता। जिनका धन जाता है वे तो गरीब होते ही हैं पर जिन्हें धन मिलता है वे भी मुफ्तके धनको जल्दी उड़ा डालते हैं। इस तरह के पापकार्य जिस देशमें जिसने अधिक होंगे देशकी गरीबी उतनी ही बढ़ेगी।
८. अल्पोत्पादकश्रम-जिस अममे जितना पैदा होना चाहिये उससे कम पैदा करना, अर्थात्-थोड़े कार्यमें अधिक लोगोंका लगना या अधिक शक्ति लगना पोत्पादकश्रम है जैसे
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जो कार्य मशीनोंके जरिये अधिक मात्रा में पैदा किया जा सकता है उसे कोरे हाथोंसे करना । इससे अधिक शादमी अधिक शक्ति खर्च करके कम पैदा कर पायेंगे । जैसे मिलोंकी अपेक्षा हाथसे सूत कातना। इसमें अधिक आदमियोंके द्वारा थोड़ा कपड़ा पैदा होता है, कई ज्यादा
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किरण १०]
गराबी क्यों?
[३१७
जगती है माल भी खराब बनता है। इसी प्रकार हायसे और अल्पोत्पादक श्रमके समर्थकोंपर यह कहावत पूरी कागज तैयार करना। इसमें भी समय ज्यादा लगता है तरह लागू होती है।
और खराब माल तैयार होता है। मनुष्यकी शक्ति प्रधिक बेकारी दूर करने के दो उपाय है, एक तो अधिक लगती है। जिस कामके लिये मशीनें नहीं हैं या जहां प्रादमियोंसे अधिक उत्पादन करना, दूसरा पुराने या अल्प मशीनें नहीं मिल सकतो वहाँकी बात दूसरी है पर उत्पादनमेंही अधिक प्रादमियोंको खपा देना । पहिला बेकारी हटने के नाम पर मशीनोंका बहिष्कार करना देशको तरीका समाजके वैभवका है, दूसरा समाजकी गरीबी या कंगाल बनाना है। सबको जीविका देनेकी मार्थिक योजना कंगालीका। न बनाकर हस्तोद्योगके नामपर व्यक्तिवाद पनपना. देश . अनुत्पादकार्जन-कुछ लोग ऐसा काम करते हैं
और दुनियाके साथ दुश्मनी करना है, उन्हें कंगाल जिससे देशम धनका या सुविधाका या गुखका उत्पादनतो बनाना है।
नहीं बढ़ता फिर भी व्यक्तिगत रूपमें लोग कुछ कमा लेते जहाँ अमुक तरहका माल बेचनेके लिये पांच दुकानोंकी हैं। यह अनुत्पादकान है। इससे कुछ लोगोंकी शक्ति जरूरत है वहाँ पच्चीस दुकान बन जाना भी अल्पोपादक- न्यर्थ जाती है। जो शक्ति कुछ उत्पादन कर सकती थी श्रम है। क्योंकि ग्राहकोंकी सुविधा तो उतनी पैदा की।
कि ग्राहकाका सुविधा तो उतना पदा की वह अनुत्पादक कार्यों में खर्चा हो जानेसे देशको गरीबी ही जायगी पर श्रमखर्च होगा पाँचकी जगह पच्चीस का । बढाती है। इस प्रकार हर एकका श्रम भक्पोत्पादक होगा । व्यक्ति- सट्टा भादि इसी श्रेणी का है। इससे खींचतान कर वादमें यह हानि स्वाभाविक है; क्योंकि किस किस काममें कृत्रिमरूपमें बाजार ऊंचा-नीचा किया जाता है, और इसी कहाँ कितने भादमियोंको लगानेकी जरूरत है इसकी कोई उतार चढ़ावमें सटोरिये लोग व्यर्थ ही काफी सम्पत्ति सामाजिक व्यवस्था तो होती नहीं है, जिसे जो करना झपट लेते है। यह सम्पत्ति ग्राहकों और उत्पादकोंके होता है अपनी इच्छासे करने लगता है। इसलिये एक पाकिटसे विनती है और कुछ मुफ्तखोरोंको अमीर बनाती दुकानकी जगह चार दुकानदार एक प्रेसकी जगह चार है। देशका इससे कोई लाभ नहीं, श्रमका तथा धनका प्रस बन जाते हैं, ग्राहक एककी जगह चार जगह बट नुकसान ही है। जाते हैं इसलिये दुकानको अधिक मुनाफा लेना पड़ता है, बीमा व्यवसाय भी इसी कोटिका है। इससे देशमें फिर भा बहुत अधिक नहीं लिया जा सकता है इसलिये कुछ उत्पादन नहीं बढ़ता, बल्कि कभी कभी काफी उनको भी गरीबी में रहना पड़ता है। इस प्रकार ग्राहक नुकसान होता है। जैसे सम्पत्तिका अधिक बीमा भी नुकसान उठाते हैं और दुकानदार भी नुकसान उठाते कराके, सम्पत्तिमें इस ढंगसे भाग लगा देना जो हैं पर व्यक्तिवादमें श्राज इसका इलाज नहीं है। स्वाभाविक लगी हुई कहलाये, आग बुझाने की तत्परतासे
देश में अनोत्पादनके लिये जितने श्रादमियोंकी जरूरत कोशिश न करना, इस प्रकार सम्पत्ति नष्ट करके अधिक है उससे अधिक श्रादमियोंका उसी काममें खपाना भी पैसे वसुल कर लेना। बीमा कम्पनियाँ ऐसे बदमाशोंका अस्पोत्पादकश्रम है । अमेरिकामें एक समय अस्सी फीसदी पैसा चुका तो देती है पर यह पाता कहां से है ? दूसरे
आदमो खेतीमें लगे थे फल यह था कि अन्य उद्योग पनप बीमावालोंके शोषणमें से ही यह पैसा दिया जाता है, नहीं पाते थे और देश गरीब था, अब पच्चीस फीसदी यदि बीमा-कम्पनीका दिवाला निकल जाये तो शेयर मादमी ही खेती में लगे हैं और देश अमीर है। जो लोग होल्डरोंके पैसेसे यह चुकाना कहलाया। मतलब यह कि किसी भी एक काममें जरूरतसे ज्यादा प्रादमियोंको खपाने बोमा कम्पनियाँ बहुतसे ईमानदारोंको लुभाकर उनसे पैसा की योजना बनाते हैं व अल्पोत्पादक श्रमसे देशको कंगाल छीनती हैं और कुछ भले बुरोंको बांट देती हैं और खुद बनाते हैं। सम्भवतः वे शुभ कामनासे भी ऐसा करते भी बीच में दलाली खा जाती हैं। इससे इतने लोगोंकी होंगे पर उनकी शुभ कामनाएँ देशको कंगाल बनानेकी शक्ति व्यर्थ तो जाती ही है, उत्पादन भी कुछ नहीं होता तरफ ही प्रेरित करती हैं। अंग्रेजीकी यह कहावत बहुत है, साथ ही समय समय पर लाखोंकी सम्पत्ति जानबूमठीक है कि 'नरकका रास्ता शुभकामनाओंसे पट पड़ा है कर बर्बाद की जाती है, यहां तक कि कभी कभी जीवन
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३१८]
अनेकान्त
[किरण १० बीमामें मन्दविषसे या आकस्मिक कारणोंके बहाने जानें किसी देशकी या मानव समाजकी गरीबीके ये दस तक ले ली जाती हैं। पर यह व्यक्तिवादका अनिवार्य कारण हैं। हमें इन सभी कारणोंको दूर करना है। पाप बना हुआ है। यह भी अनुत्पादकार्जन है। किसी एक ही कारणको दूर करनेकी बात पर जोर देने से, विज्ञापनबाजी और दलालीके भी बहुतसे काम अनु
एक कारण तो दूर किया जाता है पर दूसरे कारणको त्पादकार्जन हैं । इससे उत्पादन तो नहीं बढ़ता, सिर्फ बुला लिया जाता है। जैसे साम्यवादी लोग विषम व्यक्तिवादकी लूट खसौटमें ये बिचभैये भी कुछ लूट खसोट वितरणको हटानेकी बात कहकर अल्पोत्पादक श्रमको लेते हैं। यह भी व्यक्तिवादका अनिवार्य पाप बना हुआ है। इतना अधिक बुला लेते हैं कि विषम वितरणकी गरीबीसे ___यह सब अनुत्पादकार्जन है इससे देश गरीब ही
र सेकड़ों गुणी गरीबी अल्पोत्पादकश्रमसे बढ़ जाती हैं।
सक होता है। श्रावश्यक सीमित कलाकृतियाँ श्रानंद पैदा
इसलिये गरीबीके दसों कारणोंको दूर करना चाहिये और करनेके कारण अनुत्पादकार्जनमें न गिनी जायंगी।
एक कारण हानेका विचार करते समय इस बातका
ख्याल रखना चाहिये कि उससे गरीबीका दूसरा कारण १०. अनुचित वितरण-मेहनत और गुणके अनु
उभड़ न पड़े या इतना न उभड़ पड़े कि एक तरफ जितनी सार फल न मिलना, यह अनुचित वितरण है । इससे
गरीबी दूरकी जाय दूसरी तरफसे उससे अधिक गरीबी एक तरफ मुफ्तखोरी विलास आदि बढ़ता है दूसरी तरफ , अनुत्पादहीनता बढ़ती है। बेकारी शोषण आदि इसीके दुर्भाग्यसे इस समय देशमें गरीबीके सब कारणों पर परिणाम हैं। इसे ही जीवादका पाप कहते हैं। जो कि विचार करने वाले राजनीतिक लोगोंकी कमी है। किसी व्यक्तिवादका एक रूप है। इससे वेकारी फैलती है। एक दो कारणों पर जोर देनेवाले तथा दूसरे कारणोंको मजदूरोंमें उत्साह नहीं होता, 'इससे उत्पादन रुकता है उभाड़ने वाले कार्यक्रमही यहाँ चल रहे हैं। यह देशका
और विषम वितरणसे एक तरफ माल सड़ता है दूसरी दुर्भाग्य है । इस दुर्भाग्यको दूर करनेके लिये सर्वतोमुख तरफ मालके लिये लोग तड़पते रहते हैं इस प्रकार इससे . दृष्टिसे, विवेकसे और निरतिवादसे काम लेना चाहिये । देश कंगाल होता है।
-'संगम' से
वीरसेवामन्दिरका नया प्रकाशन । पाठकोंको यह जानकर अत्यन्त हर्ष होगा कि आचार्य पूज्यपादका 'समाधितन्त्र और इष्टोपदेश' नामकी दोनों आध्यात्मिक कृतियाँ संस्कृतटीकाके साथ बहुत दिनोंसे अप्राप्य थी, तथा मुमुक्षु आध्यात्म प्रेमी महानुभावोंकी इन ग्रन्थोंकी मांग होनेके फलस्वरूप वीरसेवामन्दिरने समाधितन्त्र और इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ पंडित परमानन्द शास्त्री कृत हिन्दीटीका और प्रभाचन्द्राचार्यकृत समाधितन्त्र टीका और आचार्यकल्प पंडित आशाधरजी कृत इष्टोपदेशकी संस्कृतटीका भी साथमें लगा दी है। स्वाध्याय प्रेमियोंके लिये यह ग्रन्थ खास तौरसे उपयोगी है। पृष्ठ संख्या सब तीनसौ से ऊपर है । सजिन्द प्रतिका मूल्य ३) रुपया और विना जिन्दके २॥) रुपया है। वाइडिग होकर ग्रन्थ एक महीनेमें प्रकाशित हो जायगा । ग्राहकों और पाठकोंको अभीसे अपना आर्डर भेज देना चाहिये।
- मैनेजर-वीरसेवामन्दिर,
१दरियागंज, देहली
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हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण
(श्री पं० परमानन्द जैन शास्त्री) कारकलसे ३४ मील चलकर 'वरंगल' आए । यहाँ स चौकीके समीप हमें रुकना पड़ा। और शिमोगा एक छोटीसी धर्मशाला एक कुवा और तालाबके अन्दर जानेके लिये हमें बतलाया गया कि इस रास्तेसे लारी एक मदिर है दूरसे देखने पर पावापुरका दृश्य आँखोंके नहीं जा सकती आपको कुछ घेरेसे जाना पड़ेगा। सामने आ जाता है। मंदिरमें जाने के लिये तालाबमें अतः हमें विवश हो कर सीधा मार्ग छो एक छोटीसी नौका रहती है जिसमें मुश्किलसे १०-१२ बांए हाथकी ओर वाली सड़कसे गुजरना पड़ा, क्योंकि आदमी बैठ कर जाते हैं । हमलोग ४-५ बारमें गए. सीधे राम्तेसे जाने पर नदीके पुल पर से कार ही जा और उतनी ही बारमें वापिस लौट कर आए। नौकाका सकती थी, लारी नहीं, उस मोड़से हम दो तीन मील चार्ज ॥) दिया। मंदिर विशाल है। ४-५ जगह दर्शन ही चले थे कि एक ग्राम मिला, जिसका नाम मुझे इस हैं। मूर्तियोंको संख्या अधिक है और वे संभवतः दो सौके समय स्मरण नहीं है, वहाँ हम लोगोंने शामका भोजन लगभग होंगी। मध्य मंदिरके चारों किनारों पर भी दश किया। उसके बाद उसी गांवकी नदीके मध्यमें से निकल सुन्दर मूर्तियाँ विराजमान हैं । मन्दिर में बैठ कर शांति कर पार वाली घाटीकी सड़कमें हमारा रास्ता मिल गया। का अनुभव होता है । इस मन्दिरका प्रबन्ध 'हुम्मच' यहाँ नदीका पुल नहीं है, नदी में पानी अधिक नहीं था, के भट्रारके आधीन है। प्रबन्ध साधारण है। परन्तु सिर्फ घटने तक ही था. हम लोगोंने लारीसे उतर कर तालाबमें सफाई कम थी-घास-फूस हो रहा था। नदीको पैरोंसे पार कर पुनः लारीमें बैठ गए । घाटीके बरसात कम होनेसे तालाबमें पानी भी कम था, तालाब रास्तेमें : मीलकी चढ़ाई है और इतनी ही उतराई है। में कमल भी लगे हुए हैं, जब वे प्रातःकाल खिलते हैं सड़कके दोनों ओर सघन वृक्षोंकी ऊँची ऊँची विशाल तब तालाबकी शोभा देखते ही बनती है। गर्मी के दिनोंमें पंक्तियाँ मनोहर जान पड़ती हैं । वृक्षोंकी सघन कतारों तालाबका पानी भी गरम हो जाता है। परन्तु मन्दिरमें के कारण ऊँची नीची भमि-विषयक विषम स्थान दर्गम स्थित लोगोंको ठंडी वायुके झकोरे शान्ति प्रदान करते से दिखाई देते थे। चढ़ाई अधिक हानेके कारण हैं। उक्त भट्टारकजीके पास वरंगक्षेत्र-सम्बन्धी एक मोटरका इञ्जन जब अधिक गर्म हो जाता था तब हम 'स्थलपुराण' और उसका महात्म्य भी है ऐसा कहा लोग उतर कर कुछ दूर पैदल ही चलते थे । परन्तु जाता है । हुम्मच शिमोगा जिले में है। यहकि पद्मा- रात्रिको वह स्थान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था। 'वती वस्तिके मंदिरमें एक बड़ा भारी शिलालेख अंकित कहा जाता है कि उस जंगलमें शेर व्याघ, चीता वगैरह है जो कनाड़ी और संस्कृत भाषामें उत्कीर्ण किया हुआ हिंस्त्र-जन्तुओंका निवास है । पर हम लोग बिना किसी है। उसमें अनेक जैनाचार्योंका इतिवृत्त और नाम अंकित भयके १८ मील लम्बी उस घाटीको पार कर ३॥ बजे मिलते हैं जो अनुसन्धान प्रिय विद्वानोंके लिये बहुत रात्रिके करीब शिमोगा पहुंचे। और वहां दुकानोंकी उपयोगी हैं । यहाँ पुरानी भट्टारकीय गद्दी है जिस पर पटडियों पर बिछौना बिछा कर थोडी नींद ली। और
आज भी भट्टारक देवेन्दुकीर्ति मौजूद हैं। यहाँ एक प्रातः काल नैमित्तिक कार्योंसे निवृत्त होकर तथा मंदिरमें शास्त्रभंडार भी है जिसमें संस्कृत प्राकृत और कनाड़ी दर्शन कर हरिहरके लिये चल दिये। और साड़े ग्यारह भाषाके अनेक अप्रकाशित ग्रन्थ मौजूद हैं। बजेके लगभग हम हरिहर पहुँचे । हरिहरमें हम सर
वरंगसे चलते समय काजू और सुपारी आदिके कारी बंगलामें ठहरे और वहाँ भोजनादि बना खाकर विशाल सुन्दर पेड़ दिखाई देते थे । दृश्य बड़ा ही दो बजेके करीब चलकर रातको ८॥ बजेके लगभग मनोरम था। सड़कके दोनों ओरकी हरित वृक्षावली हुगली पहुंचे और मोटरसे केवल बिस्तरादि उतार कर दर्शकके चित्तको आकृष्ट कर रही थी। हम लोग वरंग हम लोगोंने मंदिरमें दर्शन किये मंदिर अच्छा है उस से १०-१२ मीलका ही रास्ता तय कर पाये थे कि पुलि- में मूल नायककी मूर्ति बड़ी सुन्दर हैं। जैन मन्दिरकी
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३२० ]
धर्मशाला में थोड़ेसे स्थानमें रात्रिको विश्राम करना पड़ा; क्योंकि धर्मशाला अन्य यात्रियोंसे भरी हुई थी, उनके शोरोगुलसे रात्रिमें नींद नहीं आई, फिर भी प्रातः काल चार बजे उठ कर चल दिये, और रास्ते में भोजनादि कार्योंसे उन्मुक्त हो कर २|| बजेके करीब हम लोग पहुंचे।
अनेकान्त
[ किरण १०.
दशा हूमड़, पंचम कासार आदि जातियोंके लोग पाये जाते हैं। शहर में दो दिगम्बर जैनमंदिर हैं जिनमें पार्श्वनाथकी मूलनायक प्रतिमा विराजमान हैं। हम लोगोंने उनकी सानन्द बन्दना की । बीजापुरसे दो मील दूरी पर जमीनमें गड़ा अति प्राचीनकालीन कलाकौशल सम्पन्न भगवान पार्श्वनाथका मंदिर मिला था । उसमें भगवान पार्श्व नाथकी लगभग एक हाथ ऊँची १०८ सर्प फणों से युक्त पद्मासन मूर्ति विराजमान है । उसके सिंहासन पर कनड़ी भाषामें एक शिलालेख उत्कीर्ण किया हुआ है; परन्तु उसके अक्षर अत्यन्त घिस जाने से पढ़ने में नहीं आते । बीजापुरके पंच ही उक्त मन्दिरकी पूजाका प्रबन्ध करते हैं ।
बीजापुर - बम्बई अहाते के दक्षिणी विभागका एक प्राचीन प्रसिद्ध नगर था । इसे पूर्व समय में 'विजयपुर '
नाम से पुकारा जाता था ईसाकी द्वितीय शताब्दी में इस नगर पर बादामी राष्ट्रकूट राजाओंका सन् ७६० ६७३ तक अधिकार रहा है। उनके बाद सन् १७३ से १९६० तक कलचुरी राजाओंका और होसाल वंशके यशस्वी राजा बल्लालका अधिकार रहा है । जिनमें दक्षिणी बीजापुरमें सिंदा राजाओंने सन् १९२० से १९८० तक शासन किया है। इनमें अधिकांश राजा जैनधर्म प्रिय थे— उनकी जैन धर्मपर आस्था और प्रेम था, यही कारण है कि इनके समय में इस प्रान्तमें सैकड़ों जैन मंदिर बने थे परंतु आज उन मंदिरोंके प्राचीन खंडहरात और अनेक मूर्तियाँ मूर्ति-लेखोंसे अंकित पाई जाती हैं | और सन् १९७० से १३वीं शताब्दी तक यादव वंशके राजाओंने मुसलमानों के आक्रमण से पूर्व तक राज्य किया है। मुसलमान बादशाहोंमें सबसे पहले अलाउ द्दीन खिलजीने देवगिरि पर हमला किया था । और वहां से बहुमूल्य सम्पत्ति रत्न जवाहिरात और सोना वगैरह लूट कर लाया था इसने यादव वंशके नवमें राजा रामदेवको परास्त किया था । सन् १६८६ ई० में ओरंगजेबने बीजापुर पर कब्जा कर लिया। इसने इस प्रान्तके अनेक मन्दिरोंको धराशायी करवा दिया और मूर्तियोंको खंडित करवा दिया। बीजापुरके मुसलमानों के सातवें बादशाह मुहम्मद आदिल शाहने एक मकबरा बनवाया था जो‘गोल गुम्बज' के नामसे आज भी प्रसिद्ध है । इसमें आवाज लगानेसे जो प्रतिध्वनि निकलती है वह बड़ी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है इसी कारण इसे 'बोली गुम्बज' भी कहा जाता । मुसलमानों बाद बीपुर पर महाराष्ट्रों का अधिकार हो गया और उनके बाद अंग्रेजोंका शासन रहा 1
मुसलमानोंके शासन काल में दर्शनीय पुरातन जैन मन्दिरों को ध्वंस करा दिया था और मूर्तियोंको अखण्डितदशामें चन्दा बावड़ीमें फिकवा दिया गया था । किलेमें जो जैन मूर्तियाँ मिली थीं उन्हें और बावड़ी वाली मूर्तियों को अंग्रेजोंने बोली गुम्बज वाले पुरातन संग्राहलय में रखवा दिया था । संग्राहलयकी मूर्तियोंमें से एक मूर्ति काले पाषाणकी है जो करीब तीन हाथ ऊँची होगी। इस मर्निके आसनमें जो लेख अंकित है वह संवत् १२३२ का है यह लेख मैंने उसी समय पूरा नोट कर लिया था; परन्तु वह यात्रामें इधर उधर हो गया, इसी कारण उसे यहाँ नहीं दिया जा सका ।
बीजापुर में मुसलमानोंकी दो मस्जिदें हैं, जो पुरानी मस्जिद और जुम्मा मस्जिद के नामसे पुकारी जाती हैं । कहा जाता है कि ये दोनों ही मस्जिदें हिन्दू और जैन मन्दिरोंको तोड़ कर उनके पत्थरों और स्तम्भोंसे बनाई गई हैं। पुरानी मस्जिदके मध्यकी लेन उत्तरी बगलके पास नक्कासीदार एक काले स्तम्भ पर कनाड़ी अक्षरों में संस्कृतका एक शिला लेख अंकित है इतना ही नहीं किन्तु चारों ओरके अन्य कई स्तम्भों पर भी संस्कृत और कनड़ीमें लेख उत्कीर्ण हैं उनमें एक लेख सन् १३२० ई० का बतलाया जाता है। इन सब उल्लेखोंसे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उक्त शिलालेख वाले पुरातन जैन पाषाण स्तम्भ जैन मन्दिरों के हैं। इस तरह जैनियोंके धार्मिक स्थानोंका मुसलमानोंने विध्वंस किया, बीजापुरमें जैनियोंके पच्चीस तीस घर हैं जिनमें है । परन्तु जैनियोंने आज तक किसीके धार्मिक स्थानों.
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किरण १०]
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
[ ३२१
को क्षति पहुंचानेका कोई उपक्रम नहीं किया। मुक्ति-सुखके लिये चैत्यनिर्माण करना, दान देना और
बीजापुरसे चलकर हम लोग रास्ते में एक बड़ी पूजनादिक क्रियाओंका उपदेश नहीं दिया ; क्योंकि ये नदीको पार कर १ बजेके करीब शोलापुर पहुंचे और सव क्रियाएँ प्राणियोंके मरण और पीड़नादिककी कारण जैन श्राविकाश्रममें टहरे।
हैं; किन्तु आपके गुणोंमें अनुराग करने वाले श्रावप्रातःकालकी नैमित्तिक क्रियाओंसे फ़ारिख हो कर उनके निम्न पद्यसे स्पष्ट है :
कोंने स्वयं ही उनका अनुष्ठान कर लिया है जैसा कि जिनमन्दिरमें दर्शन किये और श्रीमती सुमतिबाईने श्राविकाश्रममें एक सभाका आयोजन किया जिसमें
"विमोक्षसुखचैत्यदानपरिपूजनाद्यात्मिकाः,
क्रिया बहुविधासुभ्रन्मरणपीड़नादिहेतवः ।" मुख्तार साला० राजकृष्णजी बाबूलाल जमादार, मेरा, विद्युल्लता और सुमतिबाईजीके संक्षिप्त भाषण हुए।
त्वया ज्वलितकेवलेन नहि देशितः किंतु ताश्राविकाश्रमका कार्य अच्छा चल रहा है । श्री सुमतिबाई
स्त्वयि प्रसृतभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः ॥३७।। जी अपना अधिकांश समय संस्था-संचालनमें तथा कुछ ___ इस पद्यको सुनकर आचार्यश्रीने कहा कि आदिसमय ज्ञान-गोष्ठीमें भी बिताती हैं। सोलापुरमें कई पुराणमें जिनसेनाचार्योंने जिनपूजाका सम्मुल्लेख जैनसंस्थाएँ हैं । जैन समाजका पुरातन पत्र 'जैन बोधक' किया है । तब मुख्तार साहबने कहा कि भगवान आदि यहाँ से ही प्रकाशित होता है, श्रीकुन्थुसागर ग्रंथमालाके नाथने गृहस्थ अवस्थामें भले ही जिनपूजाका उपदेश प्रकाशन भी यहाँ से ही होते हैं और जीबराज ग्रन्थ- दिया हो; किन्तु केवलज्ञान प्राप्त करनेके बाद उपदेश मालाका आफिस और सेठ माणिकचन्द दि० जैन दिया हो, ऐसा कोई उल्लेख अभी तक किसी ग्रन्थमें परीक्षालय बम्बईका दफ्तर भी यहाँ ही है। सोलापर देखने में नहीं आया। इसके बाद आचार्यश्रीसे कुछ व्यापारका केन्द्रस्थल है। सोलापुरसे ता० १२ के समय एकान्तमें तत्त्व चर्चाके लिए समय प्रदान करनेकी 'दपहर बाद चल कर हम लोग वास आए। और वहां प्रार्थन की गई, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। सेठजीके एक क्वाटरमें ठहरे जो एक मिलके मालिक हैं अनन्तर आचार्यश्री चर्याके लिए चले गए। और हम और जिनके अनुरोधसे प्राचार्य शांतिसागरजी उन्हींके ।
लोग उनके आहारके बाद डेरे पर आये, तथा भोज
नादिसे निवृत्त होकर और सामानको लारीमें व्यवस्थि बगीचेमें ठहरे हुए थे। हम लोगोंने रात्रिमें विश्राम कर
। कर आचार्यश्रीके पास मुख्तार सा०, लाला राजप्रातःकाल आवश्यक क्रियाओंसे निमिट कर आचार्यश्रीके
कृष्णजी और सेठ छदामीलालजी बाबूलाल जमादार दर्शन करने गये । प्रथम जिनदर्शन कर आचार्य
और मैं गए। और करीब डेढ़ घण्टे तक विविध विषयों महाराजके दर्शन किये, जहाँ पं० तनसुखरायजी कालाने
पर बड़ी शांतिसे चर्चा होती रही। पश्चात् हम लोग४ लाला राजकृष्णजी और मुख्तार साहब आदिका
बजेके लगभग वासटाउनसे रवाना होकर सिद्ध क्षेत्र परिचय कुछ भ्रान्त एवं आक्षेपात्मकरूपमें उपस्थित
कुंथलगिरी आये। कुंथलगिरिमें देखा तो धर्मशाला किया जिसका तत्काल परिहार किया गया और जनता ने तथा आचार्य महाराजने पंडितजीकी उस अनर्गल
यात्रियोंसे परिपूर्ण थी। फिर भी जैसे तैसे थोड़ी नींद प्रवृत्तिको रोका । उसके बाद आचार्य महाराजका उप
ले कर रात्रि व्यतीत की, रात्रिमें और भी यात्री आये । देश प्रारम्भ हुआ। आपने श्रावक व्रतोंका कथन करते
और प्रातःकाल नैमित्तिक क्रियाओंसे निमिट कर हुए कहा कि जिन भगवानने श्रावकोंको जिन पूजादिका
वन्दना की । निर्वाणकाण्डके अनुसार कुंथलगिरिसे उपदेश दिया । तब मुख्तार श्रीजगलकिशोरजीने कुलभूषण और देशभूषण मुनि मुक्ति गये थे जैसा कि आचार्यश्रीसे पूछा कि महाराज आचार्य पात्रकेशरीने. निवाणकाण्डकी निम्न गाथासे प्रकट है :जो अकलंकदेवसे पूर्ववर्ती हैं, उन्होंने अपने 'जिनेन्द्र- वंसस्थलवरणियरे पच्छिमभायम्मि कुंथुगिरीसिहरे स्तुति' नामके ग्रन्थमें यह स्पष्ट बतलाया है कि ज्वलित कृलदेसभूषणमुणी, णिव्वाणगया णमो तेसि ।। (देदीप्यमान) केवल ज्ञानके धारक जिनेन्द्रभगवानने यहाँ पर १०१२ मन्दिर हैं। पर वे प्रायः सब ही
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३२२ ] अनेकान्त
[किरण १० आधुनिक हैं प्राचीन मंदिर जीर्णशीर्ण हो गया था पाते हैं । यह क्षेत्र कितना पुराना है इसका कोई इतिवृत्त जिसका जीर्णोद्धर संवत् १९३२ में भट्टारक कनककीर्ति मुझे जल्दीमें प्राप्त नहीं हो सका। हम लोगोंने सानन्द ईडरवालोंकी ओरसे किया गया था। यहाँ एक ब्रह्मचर्या- यात्रा की। और भोजनादिके पश्चात् यहांसे ओरंगाश्रम भी है जिसमें उस प्रान्तके अनेक विद्यार्थी शिक्षा बादके लिये रवाना हुए।
(क्रमशः)
जैनधर्म और जैनदर्शन
( लेखक : श्री अम्बुजाक्ष एम. ए. बी. एल.) पुण्यभूमि भारतवर्ष में वैदक (हिन्दू) बौद्ध और जैन उपस्थित हो जाता है । अशोकस्तम्भ, चीनी यात्री ह्वयेन्सांग इन तीन प्रधान धर्मोंका अभ्युत्थान हुआ है। यद्यपि बौद्धधर्म का भारत भ्रमण, आदि जो प्राचीन इतिहासकी निर्विवाद भारतके अनेक सम्प्रदायों और अनेक प्रकारके प्राचारों बातें हैं उनका बहुत बड़ा भाग बौद्धधर्मके साथ मिला व्यवहारों में अपना प्रभाव छोड़ गया है, परन्तु वह अपनी हुआ है भारतके कीतिशाली चक्रवर्ती राजाओंने. बौद्धधर्मको जन्मभूमिसे खदेड़ दिया गया है और सिंहल, ब्रह्मदेश, राजधर्मके रूपमें ग्रहण किया था, इसलिए किसी समय तिब्बत, चीन आदि देशोंमें वर्तमान है। इस समय हमारे हिमालयसे लेकर कन्याकुमारी तककी समस्त भारत भूमि देशमें बौद्धधर्मके सम्बन्धमें यथेष्ट अालोचना होती है, परन्तु पीले कपड़े वालोंसे व्याप्त हो गयी थी। किन्तु भारतीय जैनधर्मके विषयमें अब तक कोई भी उल्लेख योग्य आलोचना इतिहासमें जैनधर्मका प्रभाव कहाँ तक विस्तृत हुआ था नहीं हुई। जैनधर्मके सम्बन्धमें हमारा ज्ञान बहुतही परिमित यह अब तक भी पूर्ण रूपसे मालूम नहीं होता है । भारतके है। स्कूलोंमें पढ़ाये जाने वाले इतिहासोंके एक दो पृष्ठोंमें विविध स्थानोंमें जैनकीर्तिके जो अनेक ध्वंसावशेष अब भी तीर्थकर महावीर द्वारा प्रचारित जैनधर्मके सम्बन्धमें जो वर्तमान है । उनके सम्बन्धमें अच्छी तरह अनुसन्धान करके अत्यन्त संक्षिप्त विवरण रहता है, उसको छोड़ कर हम कुछ ऐतिहासिक तत्त्वोंको खोजनेकी कोई उल्लेख योग्य चेष्दा नहीं भी नहीं जानते । जैनधर्म-सम्बन्धी विस्तृत आलोचना करनेकी हुई है। मैसूर राज्यके श्रवणबेलगोल नामके स्थानके चन्द्रलोगोंकी इच्छा भी होती है, पर अभी तक उसके पूर्ण होने- गिरि पर्वत पर जो थोड़ेसे शिलालेख प्राप्त हुए हैं, उनसे का कोई विशेष सुभीता नहीं है । कारण दो चार ग्रन्थोंको । मालूम होता है कि मौर्यवंशके प्रतिष्ठाता महाराज चन्द्रगुप्त छोड़ कर जैनधर्म सम्बन्धी अगणित ग्रन्थ अभी तक भी जैनमतावलम्बी थे। इस बातको श्री विन्संट स्मिथने अपने अप्रकाशित हैं। भिन्न-भिन्न मन्दिरोंके भण्डारोंमें जैन ग्रन्थ भारतके इतिहासके तृतीय संस्करण (१६१४ ) में लिखा छुपे हुए हैं, इसलिए पठन या आलोचना करनेके लिए ये है परन्तु इस विषयमैं कुछ लोगोंने शंका की है किन्तु अब दुर्लभ हैं।
अधिकांश मान्य विद्वान इस विषयमें एक मत हो गये हैं। हमारी उपेक्षा तथा अज्ञता
जैन शास्त्रोंमें लिखा है कि महाराज चन्द्रगुप्त (छ??) बौद्धधर्मके समान जैनधर्मकी आलोचना क्यों नहीं पाँचवे श्रुतकेवली भगबाहके द्वारा जैनधर्ममें दीक्षित किये हुई? इसके और भी कई कारण हैं। बौद्धधर्म पृथ्वीके गये थे और महाराज अशोक भी पहले अपने पितामहसे एक तृतीयांश प्राणियोंका धर्म है, किन्तु भारतके चालीस ग्रहीत जैनधर्मके अनुयायी थे पर पीछे उन्होंने जैनधर्मका करोड़ लोगोंमें जैनधर्मावलम्बी केवल लगभग बीस लाख परित्याग करके बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया था। भारतीय हैं। इसी कारण बौद्धधर्मके समान जैनधर्मके गुरुत्वका किसी विचारों पर जैनधर्म और जैनदर्शनने क्या प्रभाव डाला है, को अनुभव नहीं होता। इसके अतिरिक्त भारतमें बौद्ध इसका इतिहास लिखनेके समग्र उपकरण अब भी संग्रह प्रभाव विशेषताके साथ परिस्फुटित है। इसलिए भारतके नहीं किए गए हैं । पर यह बात अच्छी तरह निश्चित हो इतिहासकी आलोचनामें बौद्धधर्मका प्रसंग स्वयं ही आकर चुकी है कि जैन विद्वानोंने न्यायशास्त्र में बहुत अधिक उन्नति
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किरण १० ]
जैन धर्म और दर्शन
३२३
की थी। उनके और बौद्धनैयायकोंके संसर्ग और संघर्षके तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथस्वामी हो चुके थे। अब तक इस कारण प्राचीन न्यायका कितना ही अंश परिवर्द्धित और विषयमें सन्देह था कि पार्श्वनाथ स्वामी ऐतिहासिक व्यक्ति परिवर्तित किया गया और नवीन न्यायके रचनेकी आवश्यकता थे या नहीं, परन्तु डा. हर्मन जैकोबीने सिद्ध किया है हुई थी। शाकटायन आदि वैयाकरण, कुन्दकुन्द, समन्तभद्- कि पार्श्वनाथने ईसासे पूर्व आठवीं शताब्दीमें जैनधर्मका स्वामी, उमास्वामी, सिद्धसेन दिवाकर, भट्टाकलङ्कदेव, आदि प्रचार किया था। पार्श्वनाथके पूर्ववर्ती अन्य बाईस तीर्थंकरोंनैयायिक, टीकाकृत कुलरवि मल्लिनाथ, कोषकार अमरसिंह, के सम्बन्धमें अब तक कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं अभिधानकार पूज्यपाद, हेमचन्द्र तथा गणितज्ञ महावीराचार्य, मिला है। आदि विद्वान जैन धर्मावलम्बी थे। भारतीय ज्ञान भण्डार ।
मूल परम्प इन सबका बहुत ऋणी है।
__'तीर्थक', निर्गन्थ, और नग्न नाम भी जैनोंके लिये अच्छी तरह परिचय तथा आलोचना न होनेके कारण
आलाचना न होनेके कारण व्यवहृत होते हैं। यह तीसरा नाम जैनोंके प्रधान और अब भी जैनधर्मके विषयमें लोगोंके तरह तरह के ऊटपटांग प्राचीनतम दिगम्बर सम्प्रदायके कारण पड़ा है । मेगस्थनीज ख्याल बने हैं। कोई कहता था यह बौद्धधर्मका ही एक इन्हें नग्न दार्शनिक ( Gymnosphists ) के नामसे भेद है। कोई कहता था वैदिक (हिन्दू) धर्म में जो अनेक उल्लेख करता है। ग्रीस देशमें एक ईलियाटिक नामका सम्प्रदाय हैं, इन्हीं से यह भी एक है जिसे महावीर स्वामी- सम्प्रदाय हा है। वह नित्य, परिवर्तन रहित एक अद्वैत ने प्रवर्तित किया था। कोई कोई कहते थे कि जैन आर्य नहीं सत्तामात्र स्वीकार करके जगतके सारे परिवर्तनों, गतियों और हैं, क्योंकि वे नग्न मूर्तियोंको पूजते हैं। जैनधर्म भारतके क्रियानोंकी संभावनाको अस्वीकार करता है। इस मतका मूलनिवासियोंके किसी एक धर्म सम्प्रदायका केवल एक प्रतिद्वन्द्वी एक 'हिराक्लीटियन' सम्प्रदाय हुआ है वह रूपान्तर है। इस तरह नाना अनभिज्ञताओंके कारण नाना विश्वतत्त्वकी (द्रव्य) की नित्यता सम्पूर्ण रूपसे अस्वीकार प्रकारकी कल्पनाओंसे प्रसूत भ्रांतियाँ फैल रही थीं, उनकी करता है। उसके मतसे जगत सर्वथा परिवर्तनशील है । निराधारता अब धीरे-धीरे प्रकट होती जाती है। जगत-स्रोत निरबाध गतिसे वह रहा है, एक क्षण भरके जैनधर्म बौद्धधर्मसे अति प्राचीन
लिए भी कोई वस्तु एक भावसे स्थित होकर नहीं रह यह अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म सकती। ईलियाटिक-सम्प्रदायके द्वारा प्रचारित उक्त नित्यवौद्धधर्मकी शाखा नहीं है महावीर स्वामी जैनधर्मके संस्थापक वाद और हीराक्लीटियन सम्प्रदाय द्वारा प्रचारित परिवर्तननहीं हैं, उन्होंने केवल प्राचीन धर्मका प्रचार किया था। बाद पाश्चात्य दर्शनोंमें समय समय पर अनेक रूपोंमें नाना महावीर या वर्द्धमान स्वामी बुद्धदेवके समकालीन थे। समस्याओंके आवरणमें प्रकट हुए हैं। इन दो मतोंके समबुद्धदेवने बुद्धत्व प्राप्त करके धर्मप्रचार कार्यका व्रत लेकर न्वयकी अनेक बार चेष्टा भी हुई है। परन्तु वह सफल कभी जिस समय धर्मचक्रका प्रवर्तन किया था, उस समय महा- नहीं हुई । वर्तमान समयके प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक बर्गवीर स्वामी एक सर्व विश्रुत तथा मान्यधर्म शिक्षक थे। सान (Bergson) का दर्शन हिराक्लीटियनक मतका बौद्धोंके बिपिटिक नामक ग्रन्थमें 'नातपुत्त' नामक जिस ही रूपान्तर है। निर्ग्रन्थ धर्मप्रचारकका उल्लेख है, वह 'नातपुत्त' ही महावीर भारतीय नित्य-अनित्यवाद स्वामी हैं उन्होंने ज्ञातृनामक क्षत्रियवंशमें जन्मग्रहण किया वेदान्तदर्शनमें भी सदासे यह दार्शनिक विवाद प्रकाशथा, इसलिए वे ज्ञातपुत्र (पाली भाषामें जा [ना] त पुत्र) मान हो रहा है । वेदान्तके मतसे केवल नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तकहलाते थे । जैन मतानुसार महावीरस्वामी चौबीसवें या सत्य स्वभाव चैतन्य ही 'सत्' है, शेष जो कुछ है वह केवल अन्तिम तीर्थंकर थे। उनके लगभग २०० वर्ष पहले तेईसवें नाम रूपका विकार 'माया प्रपंच'-'असत्' है । शङ्कराचार्यने १ दिगम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें महावीर स्वामीके वंशका सत् शब्दकी जो व्याख्या की है उसके अनुसार इस दिखलाई
उल्लेख 'नाथ' नामसे मिलता है, जो निश्चय ही देने वाले जगत प्रपंचकी कोई भी वस्तु सत् नहीं हो सकती। ही 'ज्ञातृ' के प्राकृत रूप 'णात' का ही रूपान्तर है। भूत, भविष्यत् , वर्तमान इन तीनों कालोंमें जिस वस्तुके
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३२४]
अनेकान्त
[किरण १०
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सम्बन्धमें बुद्धिकी भ्रांति नहीं होती, वह सत् है और जिसके विनाशशील है, अर्थात् द्रव्यके स्वरूप या स्वभावकी अपेक्षासे सम्बन्धमें व्यभिचार होता है-वह असत् है । जो वर्तमान देखा जाय तो वह नित्यस्थायी पदार्थ है, किन्तु साक्षात् समयमें है, वह यदि अनादि अतीतके किसी समयमें नहीं परिदृश्यमान व्यवहारिक जगतकी अपेक्षासे देखा जाय तो था और अनन्त भविष्यत्के भी किसी समयमें नहीं रहेगा, वह अनित्य और परिवर्तनशील है। द्रव्यके सम्बन्धमें तो सत् नहीं हो सकता-वह असत् है। परिवर्तनशील नित्यता और परिवर्तन आंशिक या अपेक्षिक भावसे सत्य हैअसद्वस्तुके साथ वेदान्तका कोई सम्पर्क नहीं है। वेदांत- पर सर्वथा एकांतिक सत्य नहीं है। वेदान्तने व्यकी नित्यता दर्शन केवल अव त सब्रह्मतत्व दृष्टिसे अनुसंधान करता है। के ऊपर ही दृष्टि रखी है और भीतरकी वस्तुका सन्धान वेदान्तकी यही प्रथम बात है। 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' पाकर, बाहरके परिवर्तनमय जगत-प्रपञ्चकों तुच्छ कह कर
और यही अन्तिम बात है। क्योंकि-'तस्मिन् विज्ञाते सर्व- उड़ा दिया है और बौद्ध क्षणिकवादने बाहरके परिवर्तनकी मिदं विज्ञातं भवति।
प्रचुरताके प्रभावसे रूप-रस-गन्ध शब्द-स्पर्शादिकी विचित्रतामें वेदान्तके समान बौद्धदर्शनमें कोई त्रिकाल अव्यभि. ही मुग्ध होकर इस बहिवैचित्र्यके कारणभूत, नित्य-सूत्र चारी नित्य वस्तु नहीं मानी गयी है बौद्ध क्षणिकवादके ___अभ्यंतरको खो दिया है । पर स्याद्वादी जैनदर्शनने भीतर मतसे 'सर्वः क्षणं क्षणं । जगत् स्रोत अप्रतिहततया अबाध और बाहर, अाधार प्राधेय, धर्म और धर्मी, कारण और गतिसे बराबर वह रहा है-क्षणभरके लिए भी कोई कार्य, अद्वैत और वैविध्य दोनोंको ही यथास्थान, स्वीकार वस्तु एक ही भावसे एक ही अवस्थामें स्थिर होकर नहीं कर किया है। रह सकती। परिवर्तन ही जगतका मूलमन्त्र है ! जो इस स्याद्वादकी व्यापकता क्षणमें मौजूद है, वह आगामी क्षणमें ही नष्ट होकर दूसरा 'इस तरह स्याद्वादने, विरुद्ध वादोंकी मीमांसा करके रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार अनन्त मरण और उनके अन्तःसूत्र रूप आपेक्षिक सत्यका प्रतिपादन करके उसे अनन्त क्रीड़ायें इस विश्वके रंगमंच पर लगातार हुआ करती - पूर्णता प्रदान की है। विलियम जेम्स नामके विद्वान-द्वारा हैं । यहाँ स्थिति, स्थैर्य, नित्यता असम्भव है।
प्रचारित-Pragmtaism वादके साथ स्याद्वादकी अनेक जैन अनेकान्त
अंशोंमें तुलना हो सकती है । स्याद्वादका मूलसूत्र जुदे-जुदें 'स्याद्वादी जैनदर्शन वेदान्त और बौद्धमतकी आंशिक
दर्शन शास्त्रोंमें जुदे-जुदे रूपमें स्वीकृत हुआ है। यहाँ तक सत्यताको स्वीकार करके कहता है कि विश्वतत्व या द्रव्य
कि शंकराचार्यने पारमार्थिक-सत्यसे व्यवहारिक सत्यको जिस
कारण विशेष रूपमें माना है, वह इस स्याद्वादके मूलसूत्रके नित्य भी है और अनित्य भी। वह उत्पत्ति, ध्रु वता और
साथ अभिन्न है। श्रीशंकराचार्यने परिदृश्यमान या दिखविनाश इन तीन प्रकारकी परस्पर विरुद्ध अवस्थाओंमेंसे युक्त है । वेदान्तदर्शनमें जिस प्रकार 'स्वरूप' और 'तटस्थ' लक्षण
लायी देने वाले जगतका अस्तित्व अस्वीकार नहीं किया है। कहे गये हैं उसी प्रकार जैनदर्शनमें प्रत्येक वस्तुको समझाने
बौद्ध विज्ञानवाद एवं शून्यवादके विरुद्ध उन्होंने जगतकी के लिये दो तरहसे निर्देश करनेकी व्यवस्था है । एकको कहते
व्यवहारिक सत्ताको अत्यन्त दृढ़ताके साथ प्रमाणित किया है। हैं 'निश्चयनय' और दूसरेको कहते हैं 'व्यवहारनय' ।
समतल भूमि पर चलते समय एक तत्व, द्वितत्व, त्रितत्त्व, स्वरूप लक्षणका जो अर्थ है, ठीक वही अर्थ निश्चयनयका
आदि उच्चताके नानाप्रकारके भेद हमें दिखलायी देते हैं, है। वह वस्तुके निजभाव या स्वरूपको बतलाता है। व्यव
किन्तु बहुत ऊँचे शिखरसे नीचे देखने पर सत खण्डा महल हारनय वेदांतके तटस्थ लक्षणके अनुरूप है। उससे वक्ष्य
और कुटियामें किसी प्रकारका भेद नहीं जान पड़ता। इसी
तरह ब्रह्मबुद्धिसे देखने पर जगतमायाका विकास, ऐन्द्रजालिक माण वस्तु किसी दूसरी-वस्तुकी अपेक्षासे वर्णित होती है।
रचना अर्थात् अनित्य है। किन्तु साधारण बुद्धिसे देखने पर द्रव्य निश्चयनयसे ध्र व है किन्तु व्यवहारनयसे उत्पत्ति और
जगतकी सत्ता स्वीकार करना ही पड़ती है। दो प्रकारका सत्य १ 'यद्विषया बुद्धिर्नव्यभिचरति तत्सत् ,
दो विभिन्न दृष्टियोंके कारणसे स्वयं सिद्ध हैं। वेदांतसारमें यद्विषिया बुद्धिय॑भिचरति तदसत्' ।
मायाको जो प्रसिद्ध 'संज्ञा दी गई है, उससे भी इस प्रकारगीता शंकरभाष्य २-१६ । की भिन्न दृष्टियोंसे समुत्पन्न सत्यताके भिन्न रूपोंकी स्वीकृति
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किरण १०]
इष्ट है। बौद्ध दृश्यवादमें शून्यका जो व्यतिरेकमुख लक्षण किया है, उसमें भी स्याद्वादकी छाया स्पष्ट प्रतीत होती है । अस्ति, नास्ति, अस्ति नास्ति दोनों, श्रस्ति नास्ति दोनों नहीं, इन चार प्रकारकी भावनाओंके जो परे हैं, उसे शून्यत्व कहते हैं १ । इस प्रकार पूर्वी और पश्चिमी दर्शनोंके जुदे-जुदे स्थानों में स्याद्वादका मूलसूत्र तत्वज्ञानके कारण रूपसे स्वीकृत होने पर भी, स्याद्वादको स्वतन्त्र उच्च दार्शनिक मतके रूपमें प्रसिद्ध करनेका गौरव केवल जैनदर्शनको ही मिल सकता है।
जैनधर्म और जैनदर्शन
जैनसृष्टिक्रम
जैनदर्शनके मूलतत्त्व या द्रव्यके सम्बन्धमें जो कुछ कहा गया है उससे ही मालूम हो जाता है कि जैनदर्शन यह स्वीकार नहीं करता कि सृष्टि किसी विशेष समयमें उत्पन्न हुई है। एक ऐसा समय था जब सृष्टि नहीं थी, सर्वत्र शून्यता थी, उस महाशून्यके भीतर केवल सृष्टिकर्ता अकेला विराजमान था और उसी शून्यसे किसी एक समयमें उसने उस ब्रह्माण्डको बनाया । इस प्रकारका मत दार्शिनिक दृष्टिसे अतिशय भ्रमपूर्ण है । शून्यसे (असत्से) सत्की उत्पत्ति नहीं हो सकती । सत्यार्थवादियोंके मतसे केवल सत्से ही सत्की उत्पत्ति होना सम्भव है २ । सत्कार्यवादका यह मूलसूत्र संक्षेपमें भगवत् गीतामें मौजूद है। सांख्य और वेदांतके समान जैनदर्शन भी सत्कार्यवादी हैं ।
जैनधर्म हिंसाको इतनी प्रधानता क्यों दी गयी है ? यह ऐतिहासिकोंकी गवेषणाके योग्य विषय है। जैनसिद्धांतमें अहिंसा शब्दका अर्थ व्यापकसे व्यापकतर हुआ है । तथा अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रन्थोंमें वह रूपांतर भावसे ग्रहण किया गया गीताके निष्काम कर्म-उपदेशसा प्रतीत होता है तो भी, पहले हिंसा शब्द साधारण प्रचलित अर्थमें ही व्यवहृत होता था, इस विषय में कोई भी सन्देह नहीं है । वैदिक
'जैनदर्शन में 'जीव' तत्त्वकी जैसी विस्तृत आलोचना युगमें यज्ञ-क्रियामें पशुहिंसा अत्यंत निष्ठुर सीमा पर जा
है वैसी और किसी दर्शनमें न
पहुँची थी । इस क्रूरकर्मके विरुद्ध उस समय कितने ही
'वेदांतदर्शनमें संचित, क्रियामाण और प्रारब्ध इन तीन प्रकार का वर्णन है। जैनदर्शनमें इन्हींको यथाक्रम सत्ता, बन्ध और उदय कहा है। दोनों दर्शनोंमें इनका स्वरूप भी एकसा है ।"
'सयोगकेवली और अयोगकेवली अवस्थाके साथ हमारे शास्त्रोंकी जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्तिकी तुलना हो सकती है । जुदे जुदे गुणस्थानोंके समान मोक्षप्राप्तिकी जुदी जुदी अवस्थाएँ वैदिक दर्शनोंमें मानी गयी हैं। योगवाशिष्टमें शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, संसक्ति, पदार्थाभाविनी और नूर्यर्गाः इन सात ब्रह्मविद्, भूमियोंका वर्णन किया गया है।
(१) "सदसदुभयानुभय-चतुष्कोटिविनिर्मुक्त शून्यत्वम्” — (२) " नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः " -
[ ३२५
'संवरतत्व और 'प्रतिमा' पालन जैनदर्शनका चारित्रमार्ग है । इससे एक ऊँचे स्तरका नैतिक आदर्श प्रतिष्ठापित किया गया है । सब प्रकारसे सक्ति रहित होकर कर्म करना ही साधनाकी भित्ति है श्रासक्तिके कारण ही कर्मबन्ध होता है अनासक्त होकर कर्मकरनेसे उसके द्वारा कर्मबन्ध नहीं होगा । भगवद्गीतामें निष्काम कर्मका जो अनुपम उपदेश किया है, जैनशास्त्रोंके चरित्र विषयक ग्रन्थोंमें वह छाया विशदरूपमें दिखलाई देती है 1
'जैनधर्मने अहिंसा तत्वको अत्यन्त विस्तृत एवं व्यापक करके व्यवहारिक जीवनको पग पग पर नियमित और वैधानिक करके एक उपहासास्पद सीमा पार पहुंचा दिया है, ऐसा कतिपय लोगोंका कथन है । इस सम्बंध में जितने विधिनिषेध हैं उन सबको पालते हुए चलना इस बीसवीं शती के 'जटिल जीवनमें उपयोगी, सहज और संभव है या नहीं यह विचारणीय है ।
हिंसावादी सम्प्रदायों का उदय हुआ था, यह बात एक प्रकारसे सुनिश्चित है । वेदमें 'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि ' यह साधारण उपदेश रहने पर भी यज्ञकर्म में पशु हत्याकी अनेक विशेष विधियोंका उपदेश होनेके कारण यह साधारणfar (व्यवस्था) केवल विधिके रूपमें ही सीमित हो गयी थी, पद पदपर उपेक्षित तथा उल्लंघित होनेसे उसमें निहित कल्याणकारी उपदेश सदाके लिये विस्मृतिके गर्भ में विलीन हो गया था और अंत में 'पशुयज्ञके लिये ही बनाये गये हैं' यह अद्भुत मत प्रचलित हो गया था । इसके फलस्वरूप वैदिक कर्मकाण्ड; बलिमें मारे गये पशुओंोंके रक्त होकर समस्त सात्विक भावका विरोधी हो गया था । जैन
* "यज्ञाथं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । श्रतस्त्वां घातयिस्यामि तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥"
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कहते हैं कि उस समय यज्ञकी इस नृशंस पशु हत्या विरुद्ध जिस-जिस मतने विरोधका बीड़ा उठाया था उनमें जैनधर्म सबसे आगे था 'मुनयो यातवसनाः' कहकर ऋग्वेद जिन नग्न मुनियों का उल्लेख है, विद्वानोंका कथन है कि वे जैन दिगम्बर सन्यासी ही हैं।
बुद्धदेवको लक्ष्य करके जयदेवने कहा है
" निन्दसि यज्ञाविधेरहह श्रुतिज्ञातं
अनेकान्त
[ किरण १०
पद्धतिमें वैष्णव और शाक्रमतोंके समान भकिकी विचित्र तरनोंकी सम्भावना बहुत ही कम रह जाती है।
बहुत लोग यह भूल कर रहे थे कि बौद्धमत और जैनमतमें भिन्नता नहीं है पर दोनों धर्मो में कुछ अंशों में समानता होने पर भी असमानताकी कमी नहीं है। समानतामें पहली बात तो यह है कि दोनोंमें अहिंसाधर्मकी अत्यन्त प्रधानता है। दूसरे जिन, सुगत, तू सर्वज्ञ तथागत बुद्ध आदि नाम बौद्ध और जैन दोनों ही अपने अपने उपास्य देवोंके लिये प्रयुक करते हैं। तीसरे दोनों ही धर्मवाले बुद्धदेव या तीर्थकरों की एक ही प्रकारकी पाषाण प्रतिमाएँ बनवाकर चैत्यों या स्तूपोंमें स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। स्तूपों और मूर्तियों में इतनी अधिक सरता है कि कभी कभी किसी मूर्ति और स्तूपका यह निर्णय करना कि यह जैनमूर्ति है या वौद्ध, विशेषज्ञोंके लिये कठिन हो जाता है। इन सब बाहरी समानताओं के अतिरिक्त दोनों धर्मोकी विशेष मान्यताथोंमें भी कहीं कहीं सरशता दिखती है, परन्तु उन सब विषयोंमें वैदिकधर्मके साथ जैन और बौद्ध दोनोंका ही प्रायः एक सत्य है। इस प्रकार बहुत सी समानताएँ होने पर भी दोनोंमें बहुत कुछ विरोध है। पहला विरोध तो यह है कि बौद्ध राणिरुपाड़ी हैं पर जैन क्षणिकवादको एकांतरूपमें स्वीकार नहीं करता। जैनधर्म कहता है कि कर्म फलरूपसे प्रवर्तमान जन्मांतरवादके साथ वणिकवादका कोई सामंजस्य नहीं हो सकता। शणिकवाद माननेसे कर्मफल मानना असम्भव है। जैनधर्ममें अहिंसा नीतिको जितनी सूक्ष्मतासे लिया है उतनी बौद्धोंमें नहीं है। अन्य द्वारा मारे हुए । जीवका मांस खानेको बीद्धधर्म मना नहीं करता, उसमें स्वयं हत्याकरना ही मना है। बौद्धदर्शनके पंचस्कयोंके समान कोई मनोवैज्ञानिक तभी जैनदर्शनमें माना नहीं गया। तत्त्वभी
सत्य हृदय दिशति पशुचातम् ?"
।
किन्तु यह अहिंसावाच जैनधर्ममें इस प्रकार अंग-अंगीभावसे मिश्रित है कि जैनधर्मकी सत्ता बौद्धधर्मके बहुत पहलेसे सिद्ध होनेके कारण पशुचानात्मक यज्ञ विधिके विरुद्ध पहले पहले खड़े होनेका श्रेष बुद्धदेवकी अपेक्षा जैनधर्मको ही अधिक है। वेदविधिकी निंदा करनेके कारण हमारे शास्त्रों में चार्वाक, जैन और बौद्ध पापड 'या अनास्तिक' मतके नामसे विख्यात हैं । इन तीनों सम्प्रदायोंकी झूठी निंदा करके जिन शास्त्रकारोंने अपनी साम्प्रदायिक संकीर्णताका परिचय दिया है, उनके इतिहासकी पर्यालोचना करनेसे मालूम होगा कि जो ग्रन्थ जितना ही प्राचीन है, उसमें बौद्धों की अपेक्षा जैनोंको उतनी ही अधिक गाली गलौज की है। अहिंसावादी जैनोंके शांत निरीह शिर पर किसी किसी शास्त्रकारने तो श्लोक पर श्लोक ग्रन्धित करके गालियोंकी मूसलाधार वर्षा की है । उदाहरणके तौर पर विष्णुपुराणको ले लीजिये अभीतककी खोजोंके अनुसार विष्णुपुराण सारे पुराणोंसे प्राचीनतम न होने पर भी अत्यन्त प्राचीन है। इसके तृतीय भागके सतरहवें और अठारवें अध्याय केवल जैनों की निंदासे पूर्ण है । 'नग्नदर्शनसे आढकार्य भ्रष्ट हो जाता है और नग्नके साथ संभाषण करनेसे उस दिनका पुण्य नष्ट हो जाता है। शतधनुनामक राजाने एक नग्न पापडले संभाषण किया था, इस कारण वह कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, गीध और मोरकी योनियोंमें जन्म धारण करके अंतमें अश्वमेधयज्ञके जलसे स्नान करने पर मुक्रिलाभ कर सका।' जैनोंक प्रति वैदिकोंके प्रबल चिपकी निम्नलिखित श्लोकोंसे अभि व्यक्ति होती है
।
'न पठेत् यावनी भाषां प्रार्थः कण्ठगतैरपि । हस्तिना पीड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमंदिरम् ॥
यद्यपि जैन लोग अनंत मुक्तात्माओं (सिद्धों) की उपासना करते हैं तो भी वास्तवमें वे व्यक्तित्वरहित पारमात्म्य स्वरूपकी ही पूजा करते हैं। व्यतित्व रहित होनेके कारण ही जैनपूजा
बौद्ध दर्शनमें जीवपर्याय अपेक्षाकृत सीमित है, जैनदर्शनके समान उदार और व्यापक नहीं है। वैदिकधमों तथा जैनधर्ममें मुक्तिके मार्ग में जिस प्रकार उत्तरोत्तर सीढियोंकी बात है, वैसी बौद्धधर्ममें नहीं है । जैनगोत्र वर्णके रूपमें जातिविचार मानते हैं, पर बौद्ध नहीं मानते ।
•
'जैन और बौद्धोंको एक समझनेका कारण जैनमतका भलीभांति मनन न करनेके सिवाय और कुछ नहीं है । प्राचीन भारतीय शास्त्रोंमें कहीं भी दोनोंको एक समकनेकी भूल नहीं की गई है। वेदांतसूत्र में जये जुदे स्थानों पर जुदे जुदे हेतुचादसे बौद्ध और जैनमतका खण्डन किया है।
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किरण १०]-................
जैनधर्म और जैनदर्शन
[३२७ शंका दिग्वजयमें लिखा है कि शंकराचार्यने काशीमें बौद्धोंके यह स्पष्ट रूपसे जैन और वैदिक शास्त्रों में घोषित किया साथ और उज्जयनीमें जैनोंके साथ शास्त्रार्थ किया था । यदि गया है । 'जन्मजन्मांतरोंमें कमाये हुये कर्मोको वासनाके दोनों मत एक होते, तो उनके साथ दो जुदे जुदे स्थानोंमें दो विध्वंसक निवृत्तिमार्गके द्वारा क्षय करके परम पद प्राप्तिकी बार शास्त्रार्थ करनेकी आवश्यकता नहीं थी। प्रबोधचन्द्रोदय साधना वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों ही धर्मोंमें तर-तमके . नाटकमें बौद्धभिन्तु और जैनदिगम्बरकी लड़ायीका वर्णन है। समान रूपसे उपदेशित की गई है । दार्शमिक मतवादोंके
वैदिक (हिन्दू) के साथ जैनधर्मका अनेक स्थानोंमें विस्तार और साधनाकी क्रियाओंकी-विशिष्टतामें मित्रता हो निरोध है। परन्तु विरोधकी अपेक्षा सादृश्यही अधिक है। सकती है, किन्तु उद्धृश्य और गन्तव्य स्थल सबका ही "इतने दिनोंसे कितने ही मुख्य विरोधोंकी ओर दृष्टि रखनेके एक है.. कारण वैर-विरोध बढ़ता रहा और लोगोंको एक दूसरेको रूचीनां वैचित्र्याजुकुटिलनानापथजुषां ।
अच्छी तरहसे देखसकनेका अवसर नहीं मिला । प्राचीन नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ वैदिक सब सह सकते थे परन्तु वेद परित्याग उनकी दृष्टिमें महिम्नस्तोत्रकी सर्व-धर्म-समानत्वको करनेमें समर्थ यह अपराध था। ..
उदारता वैदिक शास्त्रोंमें सतत उपदिष्ट होने पर भी संकीर्ण वैदिकधर्मको इष्ट जन्म-कर्मवाद जैन और बौद्ध दोनों साम्प्रदायिकतासे उत्पन्न विद्वष बुद्धि प्राचीन ग्रन्थोंमें जहाँ- . ही धर्मोंका भी मेरुदण्ड है। दोनों ही धर्मों में इसका अवि- तहाँ प्रकट हुई है। किन्तु आजकल हमने उस संकीर्णताकी कृत रूपसे प्रतिपादन किया गया है। जैनोंने कर्मको एक क्षुद्रमर्यादाका अतिक्रम करके यह कहना सीखा हैप्रकारके परमाणुरूप सूक्ष्म पदार्थ (कार्मणवर्गणा) के रूपमें यं शैवाः समुपासते शिव सते ब्रह्मति वेदान्तिनो, · कल्पना करके, उसमें कितनी सयुक्तिक श्रेष्ठ दार्शनिक- बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः । विशेषताओंकी.सृष्टि ही नहीं की है, किन्तु उसमें कर्म-फल- अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेतिमीमांसकाः . चादकी मूल मन्त्रताको पूर्णरूपसे सुरक्षित रखा है : वैदिक सोऽयं वो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः॥ दर्शनका दुःखवाद और जन्म-मरणात्मक दुःखरूप संसार ईसाकी आठवीं शतीमें इसी प्रकारके महान उदारभावोंसागरसे पार होनेके लिए निवृत्तिमार्ग अथवा मोक्षान्वेषण- से अनुप्राणित होकर जैनाचार्य मूर्तिमान स्यावाद भट्टाकलङ्कयह वैदिक-जैन और बौद्ध सबका ही प्रधान साध्य है । निवृत्ति देव कह गए हैंएवं तपके द्वारा कर्मबन्धका क्षय होने पर आत्मा कर्मबन्धसे यो विश्वं वेदवेद्य जननजलनिर्भङ्गिनः पारदृश्वा, मुक्त होकर स्वभावको प्राप्त करेगा और अपने नित्य-अबद्ध पौवापर्याविरुद्ध वचनमनुपमं निष्कलङ्क यदीयम् । शुद्ध.स्वभावके निस्सीम गौरवसे प्रकाशित होगा । उस समय- तं वन्दे साधुवन्द्य सकलगुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषतं, - भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
बुद्ध वा वर्धमान शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ॥ -"" तीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥
( वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थसे)
उज्जैनके निकट दि० जैन प्राचीन मूर्तियाँ
......... (बाबू छोटेलाल जैन)
, अभी ४ मार्चको पुरातत्त्व विभागके डिप्टी डायरेक्टर का है। यहाँ धरणेन्द्र पद्मावती सहित पाश्वनाथ धर्मजनरल श्री टी. एन रामचन्द्रन उज्जैनके दोरे पर गए थे। चक्र सहित २-और सिहलांछन और मातंगयक्ष तथा उज्जैनसे ४५ मील दूर 'गन्धबल' नामक स्थानमें अनेक सिद्धायनी यक्षिणी सहित एक खण्डित महावीर प्राचीन अवशेषोंका निरीक्षण किया, जिनमें अधिकांश दिग- स्वामीका पादपीठ दशमी शताब्दीका है । ३–प्रथम तीर्थकरम्बर जैन मूर्तियाँ थीं। ये अवशेष परमारयुग-कालीन दशमी की यक्षिणी चक्रेश्वरी । ४-सिद्धायनी सहित वर्द्धमान, शताब्दीके प्रतीत होते हैं।
पार्श्वनाथकी मूर्तिके ऊपरी भागमें है। -द्वारपाल । १. भवानीमन्दिर-यह जैनमन्दिर १० वीं शताब्दी. ६-द्वारपाल । ७-एक शिलापट्ट तीर्थकरोंका विद्या देवियों
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३२८ ]
सहित, देवियाँ कुण्डिका सहित प्रदर्शितकी गई हैं। 5द्वारपाल । छतका शिलाखण्ड जिसकी चौकोर वेदीमें कीर्तिमुख प्रदर्शित किये गए हैं । १० – खड्गासन वद्धमान प्रतिमा और उसके ऊपर पार्श्वनाथकी मूर्ति स्तम्भ पर अंकित है । ११ – बड्गासन वद्धमान, चमरेन्द्र तथा छत्रत्रयादि प्रातिहार्यों सहित । १२ शिलापट्ट चौवीस तीर्थंकरों सहित । १३ -- शान्तिनाथ, इसके नीचे दानपति और प्रतिष्ठाचार्य भी प्रणाम करते हुए प्रदर्शित किए गए हैं । १४ - शांतिनाथ १५ - हस्तिपदारूद चतुर्भुज इन्द्र | १७ – सुमतिनाथ | १८ – इन्द्र हाथीपर । १६ – मातंग और सिद्धानी सहित वद्धमान । २० द्वारपाल वीणासहित चारयक्ष, मातंगयक्ष, और शंखनिधिसहित ।
१६ – पद्मप्रभु ।
२ – उक्त भवानीमन्दिरसे ५० फीट दक्षिण पूर्वमें नेमिनाथकी मूर्ति है। तथा आदिनाथका मस्तकभाग, एक यक्षी, और वद्ध मानकी मूर्ति है । :
३. दरगाह - यहाँ वद्ध मानकी मूर्तिको लपेटे हुए एक बड़का वृक्ष है जहाँ निम्नलिखित मूर्तियाँ हैं । १ – सिद्धायनी और मातंग यक्षसहित वद्धमान । २ – अम्बिका यक्षी और सर्वाहयक्ष खड्गासन । ३ – चक्रेश्वरी आदिनाथ । ४द्वारपाल । ५ – यक्ष-यक्षी वद्धमान । ६ वद्धमान । ७पार्श्वनाथ | नेमिनाथ । ह― ईश्वर ( शिव ) यक्ष श्रेयांसनाथ | १० - त्रिमुखयक्ष संभवनाथ । ११ - त्रिमुखयक्ष । १२ धर्मचक्र गोमुखयत और चक्रेश्वरी ( आदिनाथ )
४. शीतलामाता मन्दिर - यहाँ चक्रेश्वरी, गौरीयक्षी, नेमिनाथकी यक्ष यक्षी ( अम्बिका ) । आदिनाथ, वद्ध मानकी खड्गासन मूर्तियाँ, शीतलनाथकी यक्षी माननी, पार्श्वनाथ, किसी तीर्थंकरका पादपीठ, दशवें तीर्थंकरका यक्ष ब्रह्मश्वर, एक तीर्थंकरका मस्तक, तथा श्रनेक शिलापट्ट, जो एक चबूतरे में जड़े हुए हैं उन पर तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ अंकित हैं, एक तीर्थंकर मूर्तिका ऊपरका भाग, जिसमें सुर पुष्पवृष्टि प्रदर्शित है, वद्धमानकी मूर्ति ।
५ हरिजनपुर - यह एक नया मन्दिर है जिसकी दीवालों पर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, सुमतिनाथ और मातंगयत की मूर्तियाँ अंकित हैं ।
६ चमरपुरीकी मात—– यह एक प्राचीन टीला है यहाँ इमलीके वृत्तके नीचे जैनमूर्तियाँ दबी हुई हैं । १२ फीट की
अनेकान्त
[ किरण १०
एक विशाल तीर्थंकर मूर्ति चमरेन्द्रों सहित संभवतः व मानकी है । नेमिनाथ और अम्बिकाकी मूर्ति भी है। इस टीलेकी खुदाई होनी चाहिए । यहाँ दशवीं शताब्दीका मंदिर प्राप्त होनेकी सम्भवना है ।
७ गंधर्वसेनकामन्दिर - इस मन्दिर में एक प्रस्तरखण्ड पर पार्श्वनाथको उपसर्गके बाद केवलज्ञान प्रालिका दृश्य अंकित है । यह प्रस्तरखण्ड दशमी शताब्दीसे पूर्व और पर गुप्त कालीन मालूम होता है। इसके अतिरिक द्धमान और आदिनाथकी मूर्तियाँ हैं ।
८ बालिका विद्यालय — यहाँ दो तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ हैं। उज्जैनमें सिन्धिया ओरियन्टल इन्स्टीटव ट है जहाँ हजारों हस्तलिखित ग्रन्थोंका संग्रह है जिनमें जैनग्रन्थ भी काफी हैं, जिनकी सूची के लिये पुस्तकाध्यक्षको लिखा गया है। यहाँ की मूर्तियोंके फोटो श्रागामी अंकमें प्रकाशित किये जायेंगे ।
श्रमणका उत्तरलेख न छापना
दो महीने से अधिक का समय हो चुका, जब मैंने श्रमा वर्ष ५ के दूसरे अंक प्रकाशित जैन साहित्यका विहंगालोकन नामके लेखमें 'जैन साहित्यका दोषपूर्ण विहंगावलोकन' नामका एक सयुक्तिक लेख लिखकर और श्रमणके सम्पादक डा० इन्द्रको प्रकाशनार्थ दिया था। परन्तु उन्होंने उसे अपने में अभी तक प्रकट नहीं किया, इतना ही नहीं किन्तु उन्होंने ला० राजकृष्णजी को उसे वापिस लिवानेको भी कहा था, और मुझे भी वापिस लेनेकी प्रेरणाकी थी और कहा था कि आप अपना लेख वापिस नहीं लेंगे तो मुझे अपनी पोजीशन क्लीयर (साफ करनी होगी। मैंने कहा कि आप अपनी पोजीशन क्लीयर (साफ) करें, पर उस लेखको जरूर प्रका शित करें । परन्तु श्रमणके दो अंक प्रकाशित हो जाने परभी डा० इन्द्रने उसे प्रकाशित नहीं किया। यह मनोवृत्ति बड़ी ही चिन्त्यनीय जान पड़ती हैं और उससे सत्यको बहुत कुछ श्राघात पहुंच सकता है। हम तो इतना ही चाहते हैं कि जिन पाठकोंके सामने भ्रमणका लेख गया उन्हीं पाठकोंके सामने हमारा उत्तरलेख भी जाना चाहिए, जिससे पाठकोंको वस्तुस्थिति के समझने में कोई गल्ती या भ्रम न हो ।
- परमानन्द जैन
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वीर सेवा - मन्दिर ट्रस्टकी मीटिंग
श्राज ता० २१-२-५४ रविवारको रात्रिके ॥ बजेके बाद निम्न महानुभावोंकी उपस्थिति में वीरसेवामन्दिर ट्रस्टकी मीटिंगका कार्यप्रारम्भ हुआ । १ बाबू छोटेलालजी कलकत्ता (अध्यक्ष) २ पं० जुगलकिशोरजी (अधिष्ठाता ) ३ बाबू जयभगवानजी एडवोकेट (मन्त्री) पानीपत, ४ ला० राजकृष्णजी ( ० व्यवस्थापक ) देहली, ५ श्रीमती जयवन्तीदेवी, ६ और बाबू पन्नालालजी अग्रवाल, जो हमारे विशेष निमंत्रण पर उपस्थित हुए थे 1
१ - मंगलाचरणके बाद संस्थाके मंत्री बाबू जयभगवान जी एडवोकेट पानीपतने वीरसेवामन्दिरका विधान उपस्थित किया, और यह निश्चय हुआ कि विधानका अंग्रेजी अनुवाद कराकर बा० जयभगवानजी वकील पानीपतके पास भेजा जाय, तथा उनके देखनेके बाद ला० राजकृष्णजी उसकी रजिष्ट्री करानेका कार्य सम्पन्न करें ।
२—यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि दरिया गंज नं० २१ देहली में जो प्लाट वीरसेवामन्दिरके लिये खरीदा हुआ है उस पर बिल्डिंग बनानेका कार्य जल्दीसे जल्दी शुरू किया जाय ।
३ - अनेकांतका एक संपादक मंडल होगा, जिसमें निम्न ५ महानुभाव होंगे। श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, बा० छोटेलालजी, बा० जयभगवानजी वकील, पं० धर्मदेवजी जैतली, और पं० परमानन्द शास्त्री ।
४ –—–—यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि सोसाइटीके रजिष्टर्ड होने पर मुख्तार साहब अपने शयर्स, जो देहली क्लॉथ मिल्स और बिहार सुगर मिल के हैं उन्हें वीरसेवामन्दिरके अध्यक्ष के नाम ट्रान्सफर कर देवें । ५ - यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि वीर सेवामन्दिर सरसावाकी बिल्डिंगके दक्षिणकी ओर जो जमीन मकान बनानेके लिये पड़ी हुई है, जिसमें दो दुकानें बनानेके लिये जिसका प्रस्ताव पहले से पास हो चुका है उसके लिये दो हजार रुपया लगाकर बना लिया जाय ।
६ - यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि पत्र व्यवहार और हिसाब किताब में मिति और तारीख श्रवश्य लिखी जानी चाहिये ।
७ – यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि हिसाब किताबके लिये एक क्लर्ककी नियुक्लिकी जाय ।
यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि अनेकान्तका नये वर्षका मूल्य ६) रुपया रक्खा जा ।.
" जय भगवान जैन मंत्री, वीरसेवामन्दिर
श्री जिज्ञासापर मेरा विचार
काकी गत किरण 8 में पंडित श्रीजुगल किशोरजी मुख्तारने 'श्री जिज्ञासा' नामकी एक शंका प्रकट की थी और उसका समाधान चाहा था, जिस पर मेरा विचार निम्न प्रकार है
'श्री' शब्द स्वयं लक्ष्मी, शोभा, विभूति, सम्पत्ति, वेष, रचना, विविध उपकरण, त्रिवर्गसम्पत्ति तथा आदर-सत्कार आदि अनेक अर्थोको लिये हुए है । श्री शब्दका प्रयोग प्राचीनकाल से चला आ रहा है। उसका प्रयोग कब, किसने और किसीके प्रति सबसे पहले किया यह अभी श्रज्ञात है ।
श्री शब्दका प्रयोग कभी शुरू हुआ हो, पर वह इस बातका द्योतक जरूर है कि वह एक प्रतिष्ठा और आदर सूचक शब्द है । अतः जिस महापुरुषके प्रति 'श्री' या 'श्रियों' का प्रयोग हुआ है वह उनकी प्रतिष्ठा अथवा महानताका द्योतन करता है । लौकिक व्यवहार में भी एक दूसरेके प्रति पत्रादि लिखने में 'श्री' शब्द लिखा जाता है । सम्भव है इसीकारण पूज्यपुरुषोंके प्रति संख्यावाची श्री शब्द रूढ हुआ हो । तुल्लकों १०५ श्री और मुनियोंको १०८ श्री
क्यों लगाई जाती हैं। इसका कोई पुरातन उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया और न इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख ही दृष्टिगोचर हुआ है ।
तीर्थंकर एकहजार आठ लक्षणोंसे युक्त होते हैं । संभव है इसी कारण उन्हें एक हजार आठ श्री लगाई जाती होंx । मुनियोंको १०८, चुल्लकों और आर्यिकाओंको १०५ श्री उनके पदानुसार लगानेका रिवाज चला हो। कुछ भी हो पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह पृथा पुरानी है । हां, एक श्री का प्रयोग तो हम प्राचीन शिलालेखों में श्राचार्यों, भट्टारकों, विद्वानों और राजाओं के प्रति प्रयुक्त हुआ देखते हैं ।
नारायना ( जयपुर ) के १८वीं शताब्दीके एक लेखमें श्राचार्य पूर्णचन्द्रके साथ १००८ श्री का उल्लेख है । परन्तु इससे पुराना संख्यावाचक 'श्री' का उल्लेख अभी तक नहीं मिला है I — तुल्लक सिद्धिसागर
* श्रीवेषरचनाशोभा भारतीसरलद्रुमे । लक्ष्म्यां त्रिवर्गसंपत्तौ वेषोपकरणे मतौ ॥ मेदिनीकोषः । X कितने ही श्वेताम्बर विद्वान् अपने गुरु श्राचार्योंको १००८ श्री का प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं । -सम्पादक
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________________ Regd. No.D.211 . k अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक 101) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता 1500 ) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता 101) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, *251) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी, 101) बा० काशीनाथजी, ... 251) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू, 101) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी 251) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , 101) बा० धनंजयकुमारजी 251) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन , 101) बा. जीतमलजी जैन 251) बा० दीनानाथजी सरावगी 101) बा०चिरंजीलालजी सरावगी 251) बा० रतनलालजी झांझरी 101) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची 251) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , 101) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली 251) सेठ गजराजजी गंगवाल 101) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली 251) सेठ सुआलालजी जैन 101) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता 251) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी 10.) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ 251) सेठ मांगीलालजी 101) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा 251) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन , 101) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली 251) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया 101) बा० फूलचन्द रतनलाल जी जैन, कलकत्ता 251) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर 101) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता 251) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली 101) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता 251) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली 101) बा० बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना 1251) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी. देहली 101) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर 251) ला०त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर 101) बा० महावीरप्रसादजी. एडवोकेट, हिसार 251) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद 101) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि०हिसार 251) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली 101) कुवर यशवन्तसिहजी, हांसी जि. हिसार 251) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची 181) सेठ जोखीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता 251) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर 101) श्रीमती ज्ञानवतीदेवी जैन, धर्मपत्नी सहायक ____ 'वैद्यरत्न' आनन्ददास जैन, धर्मपुरा, देहली 101) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली 101) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर भ१०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनीटेडली 10.) वंद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपर 101) बा० लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन 5 101) रतनलालजी जैन कालका वाले देहली *101) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' 101) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी , सरसावा, जि. सहारनपुर 3.11122 on प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री 1, दरियागंज देहली / मुद्रक-रूप-वाणी प्रिटिंग हाऊस 23. दरियागंज, देहली marettreyee