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________________ जन्म-जाति-गर्वापहार - [कुछ अर्सा हुआ मुझे एक गुटका वैद्यश्री पं० कन्हैयालाल जी कानपुरसे देखनेको मिला था, जो २०० वर्षसे अपस्का लिखा हुआ है और जिसमें कुछ प्राकृत वैद्यक ग्रन्थों, निमित्त शास्त्रों. यंत्रों-मंत्रों तथा कितनी ही फुटकर बातोंके साथ अनेक-सुभाषित पद्योंका भी संग्रह है। उसकी कतिपय बातोंको मैंने उस समय नोट किया था, जिनमेंसे दो एकका परिचय पहले 'अनेकान्त' के पाठकोंको दिया जा चुका है। आज उसके पृष्ठ २२३ पर उदश्त दो सुभाषित पयोंने भावाबुवादके साथ पाठकोंके सामने रक्खा जाता है, जो कि जन्म-जाति-विषयक गर्वको दूर करनेमें सहायक हैं। -युगवीर ] कौरोयं कृमिजं सुवर्णमुपला [ ] दूर्वापि गोरोमतः पंचतामरसं शशांकमु (उ) दधेरिंदीवरं गोमयात् । काष्ठादग्निरहेः फणादपि मणि गोपित्तगो (तो) रोचना, प्राकाश्यं स्वगुणोदयेन गुणिनो गच्छंति किं जन्मना ॥१॥ जन्मस्थानं न खलु विमलं वर्णनीयो न वर्णो, दूरे शोमा वपुषि नियता पंकर्शकां करोति । नूनं तस्याः सकतासुरभिद्रव्यगापहारी । को जानीते परिमलगुणांकस्तु कस्तूरिकायाः। २॥ भावार्थ-उस रेशमको देखो जो कि कीड़ोंसे उत्पन्न होता है, उस सुवर्णको देखो जो कि पत्थरसे पैदा होता है, उस (मांगलिक गिनी जाने वाली हरी भरी) दूबको देखो. जो कि गौके रोमोंसे अपनी उत्पत्तिको लिये हुए है, उस लाल कमल को देखो जिसका जन्म कीचड़से है, उस चन्द्रमाको देखो जो समुद्रसे (मन्थन-द्वारा) उद्भूत हुआ कहा जाता है, उस इन्दीवर (नीलकमल) को देखो जिसकी उत्पत्ति गोमयसे बतलाई जाती है। उस अग्निको देखो जो कि काठसे उत्पन्न होती है, उस मणिको देखो जो कि सर्पके फणसे उद्भूत होती है, उस (चमकीले पीतवर्ण) गोरोचनको देखो जो कि गायके पित्तसे तयार होता अथवा बनता है, और फिर यह शिक्षा लो कि जो गुणी हैं-गुणोंसे युक्त हैं-ये अपने गुणोंके उदय-विकाशके द्वारा स्वयं प्रकाशको-प्रसिद्धि एवं लोकप्रियताको प्राप्त होते हैं, उनके जन्मस्थान या जातिसे क्या ?–चे उनके उस प्रकाश अथवा विकाशमें बाधक नहीं होते। और इसलिए हीन जन्मस्थान अथवा जातिकी बातको लेकर उनका तिरस्कार नहीं किया जा सकता ॥ १ ॥ इसी तरह उस कस्तूरीको देखो जिसका जन्मस्थान विमल नहीं किन्तु समल है-वह मुगकी नाभिमें उत्पन्न होती है, जिसका वर्ण भी वर्णनीय (प्रशंसाके योग्य ) नहीं-वह काली कलूटी कुरूप जाम पड़ती है। (इसीसे) शोभाकी बात तो उससे दूर वह शरीरमें स्थित अथवा लेपको प्राप्त हुई पंककी शंकाको उत्पन्न करती है ऐसा मालूम होने लगता है कि शरीरमें कुछ कीचड़ लगा है। इतने पर भी उसमें सकल सुगन्धित द्रव्योंके गर्वको हरने वाला जो परिमल (सातिशायि गन्ध ) गुण है उसके मूल्यको कौन अॉक सकता है ? क्या उसके जन्म जाति या वर्णके द्वारा उसे प्रॉका या जाना जा सकता है ? नहीं। ऐसी स्थितिमें जन्म-जाति कुल अथवा वर्ण जैसी बातको लेकर किसीका भी अपने लिये गर्व करना और दूसरे गुणीजनोंका तिरस्कार करना व्यर्थ ही नहीं किन्तु नासमझीका भी योतक है॥२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527324
Book TitleAnekant 1954 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages30
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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