________________
३१४
हिसाब से जो कार्य हुआ है उसके अनुसार ३७८ और और ६८४ के वीच ३ अप्रैल १८० ई० को मृगशिरा नक्षत्र था और पूर्व दिवससे (चैत्रकी बीसवीं तिथि) शुक्ल पक्षकी पंचमी लग गई थी और रविवारको कुम्भलग्न भी था। परन्तु कल्कि संवत् ६०० ई० सन्का १०७२ होता है और इस सन् में चैत्रशुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि चैत्रके तेईसवें दिन शुक्रवार पड़ता है जो उपर्युक्त श्लोकमें
अनेकान्त
Jain Education International
[ किरण १०
निर्दिष्ट समयके प्रतिकूल है । परन्तु यह मान लिया गया है कि कल्कि संवत् ६०० का अभिप्राय छुटी शताब्दि है, संस्कृतका इसके अनुरूप पद है 'कल्क्यब्दे ष्टशताख्ये' । विभवको वां वर्ष मान लेनेसे २०८ कलमब्द बनता है। जो कि ईस्वी सन् का १८० बन जाता है । इस गणना ऊपरकी संगति बैठ जाती है और प्रतिमाका स्थापनाकाल २ अप्रैल १८० ई० निश्चित होता है। (हिन्दुस्थान से )
'गरीबी क्यों' इस प्रश्नका सीधा-सा और बंधाबंधाया उत्तर दिया जाता है 'पू'जीवादी शोषणके कारण गरीबी है।' इस उत्तर में सच्चाई है और काफी सचाई है, फिर भी कितने लोग इस सचाईका मर्म समझते हैं मैं नहीं कह सकता । पूंजीवादसे गरीबी क्यों आती है इसकी छानबीन भी शायद ही कोई करता हो। महर्षि मार्क्सने मुनाफा या अतिरिक्त मूल्यका जो विश्लेषण किया है वही रटरटाया उत्तर बहुत से लोग दुहरा देते हैं। पर यह सिर्फ दिशा-निर्देश है उससे गरीबी के सब या पर्याप्त कारणों पर प्रकाश नहीं पड़ता, सिर्फ गरीबीके विषवृक्षके बीजका पता लगता है । पर वह बीज अंकुरित कैसा होता है फूलता फलता कैसे है इसका पता बहुतों को नहीं है।
साधारणतः शोषकोंमें मिलमालिकों, बैकरों तथा बड़ेकारखानेदारोंको गिना जाता है, और यह ठीक भी है। छोटे-छोटे कारखाने जिनमें दस-दस पाँच-पाँच आदमी काम करते हैं, उनमें मालिक तो उतना ही कमा पाता है जितना कि उस कारखाने में एक मैनेजर रख दिया जाय और उसे वेतन दिया जाय । पूंजीवादी प्रथा न होने पर भी उन छोटे-छोटे कारखानों में मजदूरोंको ग्रामदानीका उतना ही हिस्सा मिलेगा जितना आज मिलता है। इसलिये उनका शोषकों में गिनना ठीक नहीं । बाकी किसान, मजदूर, दुकानदार, अध्यापक, लेखक, कलाकार आदि भी शोषकोंमें नहीं गिने जाते और है भी यह ठीक । बल्कि इनमेंसे अधिकाँश शोषित ही होते हैं। सच पूछा जाय तो इस प्रकार देशकी जनता में शोषकोंका अनुपात हजारमें एकके हिसाब से पढ़ता है। ऐसी हालत में यह कहना कठिन है
गरीबी क्यों ?
(गरीब दस कारणों की खोज और व्याख्या)
कि एक आदमीका शोषण इतना अधिक हो जाता है कि वह ६६९ श्रादमियोंको गरीब करदे । .
अभी मैं एक बड़ी भारी कपड़ेकी मिल में गया । पता लगा कि यहाँ साधारणसे साधारण मजदूरको कम-से-कम ७५) माह मिलता है। और किसी किसीको ३००) माह से भी अधिक मिलता है। तब मैंने सोचा कि इन मजदूरोंकी टोटल श्रमदनी प्रति व्यक्ति १०० ) माहवार समझना चाहिये ।
मान लीजिये कि मजदूर तो १००) माह पाता है और मालिक पच्चीस हजार रुपया माह लेकर घोर शोषण और अन्याय करता है । अगर मालिक यह पच्चीस हजार रुपमा न ले और यह रुपया मजदूरोंमें बंट जाय तो पाँच हजार मजदूरों में पच्चीस हजार रुपवा बंटनेसे हरएक मजदूरको सौ के बदले एक सौ पाँच रुपया माहवार मिलने लगे । निःसन्देह इससे मजदूरकी ग्रामदानीमें तो अन्तर पड़ेगा। पर क्या यह अन्तर इतना बड़ा है कि १००) में मजदूरको गरीब कह दिया जाय और १०५ में अमीर कह दिया जाय ? क्या देशकी अमोरीकी आदर्शमें और श्राजकी गरीबी में सिर्फ पाँच फीसदीका ही फर्क है।
यदि देश के अमीरोंकी सब सम्पत्ति गरीबोंमें बांट दी जाय तब भी क्या गरीबोंकी सम्पत्ति ५ फीसदी से अधिक बढ़ सकती है ? अगर हम पैतीस करोड़ रुपया हर साल अमीरोंसे छोनकर पैंतीस करोड़ गरीबोंमें बांट दे तो सबको एक-एक रुपया मिल जायगा । इस प्रकार सालमें एक-एक रुपएकी आमदनीसे क्या गरीबी अमीरोमें बदल जाएगी । पैंतीस करोड़ की बात जाने दें पर वह रुपया सिर्फ साढ़े
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org