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किरण १०]
रखा है। यह सुनकर बाहुवलीको ज्योति-मार्ग मिल गया और उन्हें केवल ज्ञान हो गया ।
श्री बाहुबलीकी आश्चर्यमयी प्रतिमा
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यह प्रतिमा इन्हीं बाहुबलीकी की है उत्तरभारत में यह इसी नाम से विख्यात है । परंतु दक्षिण में यह गोम्मटेश्वर नामसे प्रसिद्ध है। प्राचीन ग्रंथोंमें गोम्मटेश्वर नामका प्रयोग नहीं मिलता। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यह नाम चाचार्य नेमिचन्द्र विद्वान्तवर्ती द्वारा दिया हुआ · मूर्तिके निर्माता चामुण्डरायका एक अन्य नाम गोम्मटराय था, कन्नड़ी में गोम्मटका अर्थ होता है 'कामदेव'; यह नाम ही वस्तुतः कन्नड़ भाषा का है। गोम्मटराय (चामुण्डराय ) के पूज्य होने के कारण बाहुबली गोम्मटेश्वर कहलाए होंगे। दक्षिणी भाषाका शब्द होनेके कारण इसका यहाँ चलन हो
गया ।
चामुण्डराय
"चाराय गंगवं राजा राचमखके मन्त्री और सेनापति थे। इससे पूर्व चामुण्डराव गंगवंशीय मारसिंह द्वितीय और उनके उतराधिकारी पांचालदेवके भी मन्त्री रह चुके थे। पांचालदेवके बाद ही राम गही पर बैठे राचमहल गद्दी थे । मारसिंह द्वितीयका शासनकाल चेर, चोल, पाण्ड्यवंशों पर विजय प्राप्तिके लिए प्रसिद्ध है मारसिंह आचार्य अजितसेनके शिष्य थे और अपने युगके बड़े भारी पोदा ये और अनेक जैनमन्दिरोंका निर्माण कराया था। राचमस्व भी मारसिंहकी भांति जैनधर्म पर श्रद्धा रखते थे ।
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चामुण्डराय तीन तीन नृपतियोंके समय श्रमात्य रहे । इन्हीं के शौर्य के कारण ही मारसिंह द्वितीय वज्जल, गोनूर और उगी क्षेत्रों में विजय प्राप्त कर सके राम के लिए भी उन्होंने अनेक युद्ध जीते। गोविन्दराज, वेंकोंडु राज आदि अनेक राजाओंको परास्त किया। अपनी योग्यता के कारण इन्हें अनेक विरुद प्राप्त हुए। श्रवणबेलगोल के शिक्षाले चामुण्डरायकी बहुत प्रशंसा है इन लेखों में अधिकांश युद्धों विजय प्राप्त करनेका ही उक्जेल है। परन्तु जीवनके उत्तरकालमें चामुण्डराय धामिक कृत्योंमें प्रवृत्त रहे । वृद्धावस्थामें इन्होंने अपना जीवन गुरु अजितसेनकी सेवामें व्यतीत किया ।
चामुण्डराय द्वारा निमित इस प्रतिमाके सम्बन्धमें अनेक प्रकारकी किंवदन्तियों प्रचलित है बादुपक्षि* यह सब कथन श्वेताम्बर- मान्यता के अनुसार है ।
- सम्पादक
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स्वतः निर्मित थी ।
प्रतिमा निर्माण काल
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चरित्र नामक संस्कृत काव्य के अनुसार राचमश्की राजसभामें चामुण्डरायने एक पथिक-व्यापारीसे यह सुना कि उत्तर में पौदनपुरी स्थानपर भरत द्वारा स्थापित बाहुबलीकी एक प्रतिमा है। उसने अपनी माता समेत उस प्रतिमाके दर्शनका विचार किया परन्तु पोदनपुरी जाना अत्यन्त दुष्कर समझ कर एक सुवर्णवाणसे पहाड़ीको वेदकर रावण द्वारा स्थापित बाहुबलीकी प्रतिमाका पुनरुद्वार किया । देवचन्द्र द्वारा रचित कनाडी भाषाकी एक नवीन पुस्तक में भी थोड़े अन्तरसे यही कथा आयी है इसके अनुसार इस प्रतिमाके सम्बन्धमें चामुण्डरावकी माताने पद्मपुराणका पाठ सुनते समय यह सुना कि पोदनपुरी मे बाहुबलीकी प्रतिमा है। इस कथायें भी यह प्रतीत होता है कि चामुण्डरावने यह प्रतिमा नहीं बनवाई अपितु इस शिल्पियोंने इस प्रतिमाके सब अंगोंको ठीक ढंगले सुडौल पहाड़ पर एक प्रतिमा पहलेसे विद्यमान थी, चामुण्डरायने बनवाकर सविधि स्थापना और प्रतिष्ठा कराई । श्रवणबेळगोळमें भी कुछ इसी प्रकारकी छोक-कथाएं प्रचक्षित है और उनसे ऊपरकी किंवदन्तियोंके अनुसार प्रतीत होता है कि इस स्थान पर एक प्रतिमा थी जो पृथ्वीसे
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जिस शिलालेख में चायडरावने अपना वर्णन किया है उसमें केवल अपनी विजयोंका उल्लेख किया है किसी धार्मिक कृत्यका नहीं । यदि मारसिंह द्वितीय के समय उसने प्रतिमाका निर्माण कराया होता तो शिक्षा अवश्य इसका निर्देश रहता। मारसिंह द्वितीयकी मृत्यु १७५ ई० में हुई । चामुण्डरायने अपने ग्रन्थ चामुण्डरायपुराण में भी इस प्रतिमाके सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं किया। इस पुस्तकका रचनाकाल १०८ ई है। राजम द्वितीयने २८४ द्वितीयने १८४ ई० तक राज्य किया । इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रतिमाका निर्माण १७८ और १८४ ई० के बीच हुआ होगा।
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बाहुबल-चरितमें आये एक श्लोकके अनुसार चामु डरावने बेलगुज नगर में कुम्भलग्न में रविवार चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन विभय नाम कविक पद्ाताय संवत्सरके प्रशस्त मृगशिरा नक्षत्र में गोमटेश्वर की स्थापना की। इस श्लोक में निर्दिष्ट समय पर अबतक ज्योतिषके
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