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________________ ३१०] - अनेकान्त [ करण १० कविवर कहते हैं कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि जरा त्यों ही कुविसन रत पुरुष होय अवसि अविवेक। (बुढ़ापा) मृत्युकी लघु बहन है फिर भी यह जीव अपने हित अनहित सोचे नहीं हिये विसनकी टेक ॥ ७२ हितकी चिन्ता नहीं करता, यह इस आत्माकी बड़ी भूल है। सज्जन टरै न टेवसौं न दुख देय। यही भाव उनके निम्न दोहेमें निहित है चन्दन कटत कुठार मुख, अवसि सुवास करेय ।। १०६ "जरा मौतकी लघुवहन यामें संशयनाहिं । .. दुर्जन और सलेश्मा ये समान जगमांहि । तौ भी सुहित न चिन्तवै बड़ी भूल जगमाहिं ।। ६२ ज्यों ज्यों मधरो दीजिये त्यों त्यों कोप कराहिं ।। ११३ .. रचनाएँ जैसी करनी आचरै तैसो ही फल होय । कविकी इस समय तीन कृतियाँ उपलब्ध हैं, जिनशतक, इन्द्रायनकी बेलिके आम न लागै कोय ॥ १२० पदसंग्रह और पार्श्वपुराण । . . बढी परिग्रह पोट सिर, घटी न घटकी चाह । ये तीनों ही कृतियाँ अपने विषयकी सुन्दर रचनाएँ हैं। ज्यों ईधनके योगसौं अगिन करै अति दाह ।। १५० मह पढ़नेमें सरस मालूम होती हैं, और कविके भावुक . सारस सरवर तजगए, सूखो नीर निराट । . हृदयकी अभिव्यंजक हैं। उनमें पाशवपुराणकी रचना अत्यन्त __ फलविन विरख विलोककै पक्षी लागे वाट ॥ १६० सरल और संक्षिप्त होते हुए भी पाश्र्घनाथके जीवनकी परि कविवरने अपने पाश्चपुराणकी रचना संवत् १७५९ में चायक है। जीवन-परिचयके साथ उसमें अनेक सूक्रियाँ प्रागसमें अषाढ सुदि पंचमीके दिन पूर्ण की है। और जिनमौजूद हैं जो पाठकवे. हृदयको केवल स्पर्श ही नहीं करतीं। शतककी रचनाका उल्लेख पहले किया जा चुका है। पदप्रत्युत उनमें वस्तुस्थितिके दर्शन भी होते हैं। पाठकोंकी। का संग्रह कविने कब बनाया। इसका कोई उल्लेख अभी तक जानकारीके लिए कुछ सूकि पद्य नीचे दिये जाते हैं- . प्राप्त नहीं हा। मालूम होता है कविने उसकी रचना भिन्न उपजे एकहि गर्भसौं सज्चन दुजेन येह। भिन्न समयों में की है। इस पदसंग्रहमें कविकी अनेक भावलोह कवच रक्षा करे खांडो खंडे देह ॥ ५८ पूर्ण स्तुतियोंका भी संकलन किया गया है जो विविध समयों दर्जन दूषित संतको सरल सुभाव न जाय। में रची गई हैं। दर्पणकी छबि छारसौं अधिकहिं उज्जवल थाय ॥६८ पिता नीर परसै नहीं, दूर रहे रवियार । - संवत् सतरह शतकमैं, और नवासी लीय । ता अंबुजमें मूढ अलि उझि मरै अविचार ॥७१ सुदि अषाढतिथि पंचमी ग्रंथ समापत कीय ॥ 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से ११३ वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक मुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है। लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइल थोड़ी ही रह गई हैं। अतः मंगाने में शीघ्रता करें। फाइलों को लागत मून्यं पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा। मैनेजर-'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दिल्ली। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527324
Book TitleAnekant 1954 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages30
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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