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________________ किरण १० ] झुकती है, तू यह सब जानते हुए भी अनजान सा क्यों हो रहा है यह रहस्य कुछ मेरी समझ में नहीं श्राता कविवर भूधरदास और उनकी विचारधारा हे भूधर ! परपदार्थों पर तेरे इस रागका कारण अनन्तजन्मोंका संचित परमें श्रात्म कल्पनारूप तेरा मिथ्या अध्य वसाय ही है जिसकी वासनाका संस्कार तुझे उनकी श्रोर श्राकर्षित करता रहता है—बार बार झुकाता है। यही वासना रूप संस्कार तेरे दुःखोंका जनक है । अतः उसे दूर करनेका प्रयत्न करना ही तेरे हितका उपाय है; क्योंकि जब तक परमें तेरी उम्र मिथ्या वासनाका संस्कार दूर नहीं होगा तब तक पर पदार्थोंसे तेरा ममत्व घटना संभव नहीं है। यदि तुझे अपने हितकी चिन्ता है, तू सुखी होना चाहता है, और निजानन्दरसमें लीन होनेकी तेरी भावना है तो तू उस भ्रामक संस्कारको छोड़नेका शीघ्र ही प्रयत्न कर, जब तक तू ऐसा प्रयत्न नहीं करता तब तक तेरा वह मानसिक दुःख किसी तरह भी कम नहीं हो सकता, किन्तु वह तेरे नूतन दुःखका जनक होता रहेगा। इस तरह विचार करते हुए कविवरने अपनी भूल पर गहरा विचार किया और आत्म-हितमें बाधक कारणका पता लगा कर उसके छोड़ने अथवा उससे छूटने की ओर अपनी शक्ति और विवेककी ओर विशेष ध्यान दिया । कविवर सोचते हैं कि देखो, मेरी यह भूल अनादि कालसे मेरे दुःखों की जनक होती रही है, मैं बावला हुआ उन दुःखोंकी असह्य वेदनाको सहता रहा हूँ, परंतु कभी भी मैंने उनसे छूटनेका सही उपाय नहीं किया, और इस तरह मैंने अपनी जिन्दगीका बहुभाग यों ही गुजार दिया। विषयोंमें रत हुआ कष्ट परपराकी उस वेदनाको सहता हुआ भी किसी खास प्रतीतिका कोई अनुभव नहीं किया । दुखसे छूटनेके जो कुछ उपाय ब तक मेरे द्वारा किए गए हैं वे सब भ्रामक थे। मैं अपनी मिथ्याधारणवश अपने दुःखोंका कारण परको समझता रहा और उससे अपने राग-द्वेष रूप कल्पनाजानमें सदा उलकता रहा, यह मेरी कैसी नादानी ( अज्ञानता ) थी जिसकी ओर मेरा कभी ध्यान ही नहीं जाता था, अब भाग्योदयसे मेरे उस विवेककी जागृति हुई है जिसके द्वारा मैं अपनी उस अनादि भूलको सममनेका प्रयत्न कर पाया हूँ। अब मुझे यह विश्वास हो गया है कि मैं उन दुःखोंसे वास्तविक छुटकारा पा सकता हूँ । पर मुझे अपनी उस पूर्व अवस्थाका ख्याल बार बार क्यों श्राता है ? जिसका ध्यान आते ही मेरे रोंगटे हो जाते हैं। यह मेरी मानसिक निर्वखतः Jain Education International ३०६ अथवा आत्म कमजोरी है। इस कमजोरीको दूर कर मुझे श्रात्मबल बढ़ाना श्रावश्यक है। वास्तव में जिनभगवान और जिनचचन ही इस असार संसारसमुद्रसे पार करने में समर्थ हैं। अतः भव-भवमें मुझे उन्हींकी शरण मिले यही मेरी आन्तरिक कामना है जिन वचनोंने ही मेरी दृष्टिको निर्मल बनाया है और मेरे उस ग्रान्तर्विषेकको जागृत किया है जिससे मैं उस अनादि भूलकों समझ पाया हूँ । जिनवचनरूप ज्ञानःशलाकासे वह अज्ञान अन्धकार रूप कल्मष अंजन भुल गया है और मेरी दृष्टिमें निर्मलता आगई है। अब मुके सांसारिक झंझटें दुखद जान जान पड़ती है। और जगत के ये सारे खेल प्रसार और झूठे प्रतीत होते हैं। मेरा मन अब उनमें नहीं लगता, यह इन्द्रिय विषय कारे विषधरके समान भयंकर प्रतीत होते हैं। मेरी यह भावना निरन्तर जोर पकढ़ती जाती है कि तू अब घरसे उदास हो जंगलमें चला जा, और वहाँ मनकी उस पल गतिको रोकनेका प्रयत्न कर, अपनी परिणतिको स्वरूपगामिनी बना वह अनादिसे पर गामिनी हो रही है, उसे अपनी ज्ञान और विवेक ज्योतिके द्वारा निर्मल बनानेका सतत उद्योग कर, जिससे अविचत्र ध्यानकी सिद्धि हो, जो कर्म कलंकके जलानेमें असमर्थ है। क्योंकि श्रात्म-समाधिकी दृढ़ता यथाजात मुद्राके बिना नहीं हो सकती। और न विविध परीषहोंके सहनेकी वह क्षमता ही आ सकती है कविवरकी इस भावनाका यह रूप निम्न पथमें अंकित मिलता है। कब गहवाससौ उदास होय वन सेऊँ, बेॐ निजरूप गति रोकू मन-करीकी। हि हो अडोल एक आसन अचल अंग, सहिहाँ परीसा शीत घाम मेघ झरीकी । सारंग समाज कबध खुजे हे आनि, ध्यान -दल-जोर जीतू सेना मोह-रीकी । एकल विहारी जथाजात लिंगधारी कब, हो इच्छा चारी बलिहारी हौं वा घरी की। कविवरकी यह उदात्त भावना उनके समुन्नत जीवनका प्रतीक है। कविकी उपलब्ध रचनाएँ उनकी प्रथम साधक वस्था की है जिनका ध्यानसे समीक्षण करने पर उनमें कविकी अन्तर्भावना प्रच्छन्न रूपसे अंकित पाई जाती है। जो उनके मुमुक्षु जीवन बितानेकी ओर संकेत करती है । xइस असार संसारमैं और न सरन उपाय । जन्म-जन्म जी मैं, जिनवर धर्म सहाय ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527324
Book TitleAnekant 1954 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages30
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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