________________
३२६ ]
कहते हैं कि उस समय यज्ञकी इस नृशंस पशु हत्या विरुद्ध जिस-जिस मतने विरोधका बीड़ा उठाया था उनमें जैनधर्म सबसे आगे था 'मुनयो यातवसनाः' कहकर ऋग्वेद जिन नग्न मुनियों का उल्लेख है, विद्वानोंका कथन है कि वे जैन दिगम्बर सन्यासी ही हैं।
बुद्धदेवको लक्ष्य करके जयदेवने कहा है
" निन्दसि यज्ञाविधेरहह श्रुतिज्ञातं
अनेकान्त
[ किरण १०
पद्धतिमें वैष्णव और शाक्रमतोंके समान भकिकी विचित्र तरनोंकी सम्भावना बहुत ही कम रह जाती है।
बहुत लोग यह भूल कर रहे थे कि बौद्धमत और जैनमतमें भिन्नता नहीं है पर दोनों धर्मो में कुछ अंशों में समानता होने पर भी असमानताकी कमी नहीं है। समानतामें पहली बात तो यह है कि दोनोंमें अहिंसाधर्मकी अत्यन्त प्रधानता है। दूसरे जिन, सुगत, तू सर्वज्ञ तथागत बुद्ध आदि नाम बौद्ध और जैन दोनों ही अपने अपने उपास्य देवोंके लिये प्रयुक करते हैं। तीसरे दोनों ही धर्मवाले बुद्धदेव या तीर्थकरों की एक ही प्रकारकी पाषाण प्रतिमाएँ बनवाकर चैत्यों या स्तूपोंमें स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। स्तूपों और मूर्तियों में इतनी अधिक सरता है कि कभी कभी किसी मूर्ति और स्तूपका यह निर्णय करना कि यह जैनमूर्ति है या वौद्ध, विशेषज्ञोंके लिये कठिन हो जाता है। इन सब बाहरी समानताओं के अतिरिक्त दोनों धर्मोकी विशेष मान्यताथोंमें भी कहीं कहीं सरशता दिखती है, परन्तु उन सब विषयोंमें वैदिकधर्मके साथ जैन और बौद्ध दोनोंका ही प्रायः एक सत्य है। इस प्रकार बहुत सी समानताएँ होने पर भी दोनोंमें बहुत कुछ विरोध है। पहला विरोध तो यह है कि बौद्ध राणिरुपाड़ी हैं पर जैन क्षणिकवादको एकांतरूपमें स्वीकार नहीं करता। जैनधर्म कहता है कि कर्म फलरूपसे प्रवर्तमान जन्मांतरवादके साथ वणिकवादका कोई सामंजस्य नहीं हो सकता। शणिकवाद माननेसे कर्मफल मानना असम्भव है। जैनधर्ममें अहिंसा नीतिको जितनी सूक्ष्मतासे लिया है उतनी बौद्धोंमें नहीं है। अन्य द्वारा मारे हुए । जीवका मांस खानेको बीद्धधर्म मना नहीं करता, उसमें स्वयं हत्याकरना ही मना है। बौद्धदर्शनके पंचस्कयोंके समान कोई मनोवैज्ञानिक तभी जैनदर्शनमें माना नहीं गया। तत्त्वभी
सत्य हृदय दिशति पशुचातम् ?"
।
किन्तु यह अहिंसावाच जैनधर्ममें इस प्रकार अंग-अंगीभावसे मिश्रित है कि जैनधर्मकी सत्ता बौद्धधर्मके बहुत पहलेसे सिद्ध होनेके कारण पशुचानात्मक यज्ञ विधिके विरुद्ध पहले पहले खड़े होनेका श्रेष बुद्धदेवकी अपेक्षा जैनधर्मको ही अधिक है। वेदविधिकी निंदा करनेके कारण हमारे शास्त्रों में चार्वाक, जैन और बौद्ध पापड 'या अनास्तिक' मतके नामसे विख्यात हैं । इन तीनों सम्प्रदायोंकी झूठी निंदा करके जिन शास्त्रकारोंने अपनी साम्प्रदायिक संकीर्णताका परिचय दिया है, उनके इतिहासकी पर्यालोचना करनेसे मालूम होगा कि जो ग्रन्थ जितना ही प्राचीन है, उसमें बौद्धों की अपेक्षा जैनोंको उतनी ही अधिक गाली गलौज की है। अहिंसावादी जैनोंके शांत निरीह शिर पर किसी किसी शास्त्रकारने तो श्लोक पर श्लोक ग्रन्धित करके गालियोंकी मूसलाधार वर्षा की है । उदाहरणके तौर पर विष्णुपुराणको ले लीजिये अभीतककी खोजोंके अनुसार विष्णुपुराण सारे पुराणोंसे प्राचीनतम न होने पर भी अत्यन्त प्राचीन है। इसके तृतीय भागके सतरहवें और अठारवें अध्याय केवल जैनों की निंदासे पूर्ण है । 'नग्नदर्शनसे आढकार्य भ्रष्ट हो जाता है और नग्नके साथ संभाषण करनेसे उस दिनका पुण्य नष्ट हो जाता है। शतधनुनामक राजाने एक नग्न पापडले संभाषण किया था, इस कारण वह कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, गीध और मोरकी योनियोंमें जन्म धारण करके अंतमें अश्वमेधयज्ञके जलसे स्नान करने पर मुक्रिलाभ कर सका।' जैनोंक प्रति वैदिकोंके प्रबल चिपकी निम्नलिखित श्लोकोंसे अभि व्यक्ति होती है
।
'न पठेत् यावनी भाषां प्रार्थः कण्ठगतैरपि । हस्तिना पीड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमंदिरम् ॥
यद्यपि जैन लोग अनंत मुक्तात्माओं (सिद्धों) की उपासना करते हैं तो भी वास्तवमें वे व्यक्तित्वरहित पारमात्म्य स्वरूपकी ही पूजा करते हैं। व्यतित्व रहित होनेके कारण ही जैनपूजा
Jain Education International
बौद्ध दर्शनमें जीवपर्याय अपेक्षाकृत सीमित है, जैनदर्शनके समान उदार और व्यापक नहीं है। वैदिकधमों तथा जैनधर्ममें मुक्तिके मार्ग में जिस प्रकार उत्तरोत्तर सीढियोंकी बात है, वैसी बौद्धधर्ममें नहीं है । जैनगोत्र वर्णके रूपमें जातिविचार मानते हैं, पर बौद्ध नहीं मानते ।
•
'जैन और बौद्धोंको एक समझनेका कारण जैनमतका भलीभांति मनन न करनेके सिवाय और कुछ नहीं है । प्राचीन भारतीय शास्त्रोंमें कहीं भी दोनोंको एक समकनेकी भूल नहीं की गई है। वेदांतसूत्र में जये जुदे स्थानों पर जुदे जुदे हेतुचादसे बौद्ध और जैनमतका खण्डन किया है।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org