Book Title: Anekant 1954 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 29
________________ वीर सेवा - मन्दिर ट्रस्टकी मीटिंग श्राज ता० २१-२-५४ रविवारको रात्रिके ॥ बजेके बाद निम्न महानुभावोंकी उपस्थिति में वीरसेवामन्दिर ट्रस्टकी मीटिंगका कार्यप्रारम्भ हुआ । १ बाबू छोटेलालजी कलकत्ता (अध्यक्ष) २ पं० जुगलकिशोरजी (अधिष्ठाता ) ३ बाबू जयभगवानजी एडवोकेट (मन्त्री) पानीपत, ४ ला० राजकृष्णजी ( ० व्यवस्थापक ) देहली, ५ श्रीमती जयवन्तीदेवी, ६ और बाबू पन्नालालजी अग्रवाल, जो हमारे विशेष निमंत्रण पर उपस्थित हुए थे 1 १ - मंगलाचरणके बाद संस्थाके मंत्री बाबू जयभगवान जी एडवोकेट पानीपतने वीरसेवामन्दिरका विधान उपस्थित किया, और यह निश्चय हुआ कि विधानका अंग्रेजी अनुवाद कराकर बा० जयभगवानजी वकील पानीपतके पास भेजा जाय, तथा उनके देखनेके बाद ला० राजकृष्णजी उसकी रजिष्ट्री करानेका कार्य सम्पन्न करें । २—यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि दरिया गंज नं० २१ देहली में जो प्लाट वीरसेवामन्दिरके लिये खरीदा हुआ है उस पर बिल्डिंग बनानेका कार्य जल्दीसे जल्दी शुरू किया जाय । ३ - अनेकांतका एक संपादक मंडल होगा, जिसमें निम्न ५ महानुभाव होंगे। श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, बा० छोटेलालजी, बा० जयभगवानजी वकील, पं० धर्मदेवजी जैतली, और पं० परमानन्द शास्त्री । ४ –—–—यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि सोसाइटीके रजिष्टर्ड होने पर मुख्तार साहब अपने शयर्स, जो देहली क्लॉथ मिल्स और बिहार सुगर मिल के हैं उन्हें वीरसेवामन्दिरके अध्यक्ष के नाम ट्रान्सफर कर देवें । ५ - यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि वीर सेवामन्दिर सरसावाकी बिल्डिंगके दक्षिणकी ओर जो जमीन मकान बनानेके लिये पड़ी हुई है, जिसमें दो दुकानें बनानेके लिये जिसका प्रस्ताव पहले से पास हो चुका है उसके लिये दो हजार रुपया लगाकर बना लिया जाय । ६ - यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि पत्र व्यवहार और हिसाब किताब में मिति और तारीख श्रवश्य लिखी जानी चाहिये । ७ – यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि हिसाब किताबके लिये एक क्लर्ककी नियुक्लिकी जाय । यह मीटिंग प्रस्ताव करती है कि अनेकान्तका नये वर्षका मूल्य ६) रुपया रक्खा जा ।. " जय भगवान जैन मंत्री, वीरसेवामन्दिर Jain Education International श्री जिज्ञासापर मेरा विचार काकी गत किरण 8 में पंडित श्रीजुगल किशोरजी मुख्तारने 'श्री जिज्ञासा' नामकी एक शंका प्रकट की थी और उसका समाधान चाहा था, जिस पर मेरा विचार निम्न प्रकार है 'श्री' शब्द स्वयं लक्ष्मी, शोभा, विभूति, सम्पत्ति, वेष, रचना, विविध उपकरण, त्रिवर्गसम्पत्ति तथा आदर-सत्कार आदि अनेक अर्थोको लिये हुए है । श्री शब्दका प्रयोग प्राचीनकाल से चला आ रहा है। उसका प्रयोग कब, किसने और किसीके प्रति सबसे पहले किया यह अभी श्रज्ञात है । श्री शब्दका प्रयोग कभी शुरू हुआ हो, पर वह इस बातका द्योतक जरूर है कि वह एक प्रतिष्ठा और आदर सूचक शब्द है । अतः जिस महापुरुषके प्रति 'श्री' या 'श्रियों' का प्रयोग हुआ है वह उनकी प्रतिष्ठा अथवा महानताका द्योतन करता है । लौकिक व्यवहार में भी एक दूसरेके प्रति पत्रादि लिखने में 'श्री' शब्द लिखा जाता है । सम्भव है इसीकारण पूज्यपुरुषोंके प्रति संख्यावाची श्री शब्द रूढ हुआ हो । तुल्लकों १०५ श्री और मुनियोंको १०८ श्री क्यों लगाई जाती हैं। इसका कोई पुरातन उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया और न इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख ही दृष्टिगोचर हुआ है । तीर्थंकर एकहजार आठ लक्षणोंसे युक्त होते हैं । संभव है इसी कारण उन्हें एक हजार आठ श्री लगाई जाती होंx । मुनियोंको १०८, चुल्लकों और आर्यिकाओंको १०५ श्री उनके पदानुसार लगानेका रिवाज चला हो। कुछ भी हो पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह पृथा पुरानी है । हां, एक श्री का प्रयोग तो हम प्राचीन शिलालेखों में श्राचार्यों, भट्टारकों, विद्वानों और राजाओं के प्रति प्रयुक्त हुआ देखते हैं । नारायना ( जयपुर ) के १८वीं शताब्दीके एक लेखमें श्राचार्य पूर्णचन्द्रके साथ १००८ श्री का उल्लेख है । परन्तु इससे पुराना संख्यावाचक 'श्री' का उल्लेख अभी तक नहीं मिला है I — तुल्लक सिद्धिसागर * श्रीवेषरचनाशोभा भारतीसरलद्रुमे । लक्ष्म्यां त्रिवर्गसंपत्तौ वेषोपकरणे मतौ ॥ मेदिनीकोषः । X कितने ही श्वेताम्बर विद्वान् अपने गुरु श्राचार्योंको १००८ श्री का प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं । -सम्पादक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.

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