Book Title: Anekant 1954 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 21
________________ किरण १०] हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण [ ३२१ को क्षति पहुंचानेका कोई उपक्रम नहीं किया। मुक्ति-सुखके लिये चैत्यनिर्माण करना, दान देना और बीजापुरसे चलकर हम लोग रास्ते में एक बड़ी पूजनादिक क्रियाओंका उपदेश नहीं दिया ; क्योंकि ये नदीको पार कर १ बजेके करीब शोलापुर पहुंचे और सव क्रियाएँ प्राणियोंके मरण और पीड़नादिककी कारण जैन श्राविकाश्रममें टहरे। हैं; किन्तु आपके गुणोंमें अनुराग करने वाले श्रावप्रातःकालकी नैमित्तिक क्रियाओंसे फ़ारिख हो कर उनके निम्न पद्यसे स्पष्ट है : कोंने स्वयं ही उनका अनुष्ठान कर लिया है जैसा कि जिनमन्दिरमें दर्शन किये और श्रीमती सुमतिबाईने श्राविकाश्रममें एक सभाका आयोजन किया जिसमें "विमोक्षसुखचैत्यदानपरिपूजनाद्यात्मिकाः, क्रिया बहुविधासुभ्रन्मरणपीड़नादिहेतवः ।" मुख्तार साला० राजकृष्णजी बाबूलाल जमादार, मेरा, विद्युल्लता और सुमतिबाईजीके संक्षिप्त भाषण हुए। त्वया ज्वलितकेवलेन नहि देशितः किंतु ताश्राविकाश्रमका कार्य अच्छा चल रहा है । श्री सुमतिबाई स्त्वयि प्रसृतभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः ॥३७।। जी अपना अधिकांश समय संस्था-संचालनमें तथा कुछ ___ इस पद्यको सुनकर आचार्यश्रीने कहा कि आदिसमय ज्ञान-गोष्ठीमें भी बिताती हैं। सोलापुरमें कई पुराणमें जिनसेनाचार्योंने जिनपूजाका सम्मुल्लेख जैनसंस्थाएँ हैं । जैन समाजका पुरातन पत्र 'जैन बोधक' किया है । तब मुख्तार साहबने कहा कि भगवान आदि यहाँ से ही प्रकाशित होता है, श्रीकुन्थुसागर ग्रंथमालाके नाथने गृहस्थ अवस्थामें भले ही जिनपूजाका उपदेश प्रकाशन भी यहाँ से ही होते हैं और जीबराज ग्रन्थ- दिया हो; किन्तु केवलज्ञान प्राप्त करनेके बाद उपदेश मालाका आफिस और सेठ माणिकचन्द दि० जैन दिया हो, ऐसा कोई उल्लेख अभी तक किसी ग्रन्थमें परीक्षालय बम्बईका दफ्तर भी यहाँ ही है। सोलापर देखने में नहीं आया। इसके बाद आचार्यश्रीसे कुछ व्यापारका केन्द्रस्थल है। सोलापुरसे ता० १२ के समय एकान्तमें तत्त्व चर्चाके लिए समय प्रदान करनेकी 'दपहर बाद चल कर हम लोग वास आए। और वहां प्रार्थन की गई, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। सेठजीके एक क्वाटरमें ठहरे जो एक मिलके मालिक हैं अनन्तर आचार्यश्री चर्याके लिए चले गए। और हम और जिनके अनुरोधसे प्राचार्य शांतिसागरजी उन्हींके । लोग उनके आहारके बाद डेरे पर आये, तथा भोज नादिसे निवृत्त होकर और सामानको लारीमें व्यवस्थि बगीचेमें ठहरे हुए थे। हम लोगोंने रात्रिमें विश्राम कर । कर आचार्यश्रीके पास मुख्तार सा०, लाला राजप्रातःकाल आवश्यक क्रियाओंसे निमिट कर आचार्यश्रीके कृष्णजी और सेठ छदामीलालजी बाबूलाल जमादार दर्शन करने गये । प्रथम जिनदर्शन कर आचार्य और मैं गए। और करीब डेढ़ घण्टे तक विविध विषयों महाराजके दर्शन किये, जहाँ पं० तनसुखरायजी कालाने पर बड़ी शांतिसे चर्चा होती रही। पश्चात् हम लोग४ लाला राजकृष्णजी और मुख्तार साहब आदिका बजेके लगभग वासटाउनसे रवाना होकर सिद्ध क्षेत्र परिचय कुछ भ्रान्त एवं आक्षेपात्मकरूपमें उपस्थित कुंथलगिरी आये। कुंथलगिरिमें देखा तो धर्मशाला किया जिसका तत्काल परिहार किया गया और जनता ने तथा आचार्य महाराजने पंडितजीकी उस अनर्गल यात्रियोंसे परिपूर्ण थी। फिर भी जैसे तैसे थोड़ी नींद प्रवृत्तिको रोका । उसके बाद आचार्य महाराजका उप ले कर रात्रि व्यतीत की, रात्रिमें और भी यात्री आये । देश प्रारम्भ हुआ। आपने श्रावक व्रतोंका कथन करते और प्रातःकाल नैमित्तिक क्रियाओंसे निमिट कर हुए कहा कि जिन भगवानने श्रावकोंको जिन पूजादिका वन्दना की । निर्वाणकाण्डके अनुसार कुंथलगिरिसे उपदेश दिया । तब मुख्तार श्रीजगलकिशोरजीने कुलभूषण और देशभूषण मुनि मुक्ति गये थे जैसा कि आचार्यश्रीसे पूछा कि महाराज आचार्य पात्रकेशरीने. निवाणकाण्डकी निम्न गाथासे प्रकट है :जो अकलंकदेवसे पूर्ववर्ती हैं, उन्होंने अपने 'जिनेन्द्र- वंसस्थलवरणियरे पच्छिमभायम्मि कुंथुगिरीसिहरे स्तुति' नामके ग्रन्थमें यह स्पष्ट बतलाया है कि ज्वलित कृलदेसभूषणमुणी, णिव्वाणगया णमो तेसि ।। (देदीप्यमान) केवल ज्ञानके धारक जिनेन्द्रभगवानने यहाँ पर १०१२ मन्दिर हैं। पर वे प्रायः सब ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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