Book Title: Anekant 1954 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 12
________________ ३१२] अनेकान्त [किरण १० उदाहरणार्थ कानोंका निचला भाग, विशाल कंधे और भाजानुबाहु । मूर्तिके कंधे सीधे हैं. उनसे दो विशालभुजाएं स्वाभाविक ढंगसे अवलम्बित हैं हाथ की उंगलियाँ सीधः हैं और अंगूठा ऊपरको उठा हुआ उंगलियोंसे अलग है । पेद पर निबलियां गलेकी धारियां, घुघरीले बालोंके गुच्छे आदि स्पष्ट हैं । कलात्मक दृष्टि से आडम्बर- हीन, सादी और सुडौल होनेपर भी भावग्यजनाकी दृष्टिसे अनुपम हैं। बाहुबली जैसा कि ऊपर निर्देश किया गया है ये तीनों मूर्तियाँ बाहुबलीकी हैं जो प्रथम तीर्थकर आदिजिन ऋषभनाथके पुत्र थे अनुति परम्पराके अनुसार उनकी दो पत्नियां थीं, सुमङ्गला और सुनन्दा । सुमङ्गलासे उत्पन्न जुड़वां का नाम था भरत और ब्राह्मी, एक लड़का और एक लड़की, सुमङ्गलासे ही अन्य १८ पुत्र उत्पन्न हुए सुनन्दासे दोसन्तान थीं, बाहुबली और सुन्दरी। जब भगवान ऋषभदेवने केवल-ज्ञान प्राप्तिके लिए गृह-त्याग किया तो उन्होंने अपना राज्य भरतादि सो पुत्रोंको बांट दिया। बाहवलीको तक्षशिलाका राज्य मिला । भरतने सम्पूर्ण पृथ्वीका विजय करके चक्रवर्तीका पद धारण तो किया परन्तु भरत चक्रवर्तिका चक्र प्रायुधशाला (शस्त्रा गार) में प्रवेश नहीं करता था।मन्त्रीसे कारण पूछने पर ज्ञात हा कि उनके भाई बाहबलीने अधीनता स्वीकार नहीं की, इस कारण यह चक्र शस्त्रागारमें प्रवेश नहीं करता । भरतने सन्देश भेजकर बाहुबलीसे अधीनता स्वीकार करनेको कहा. परन्तु बाहुबलीने यह स्वीकार नहीं किया भरतने बाहुबली पर चढ़ाई की, दोनों में भयङ्कर युद्ध हश्रा, अन्तभ विजय लक्ष्मी बाहुबलीको प्राप्त हुई। विजय प्राप्त कर लेने पर भी बाहुबलीको वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने भगवान् ऋषभदेवके पास जानेका विचार किया। चलते समय यह विचार प्राया कि मेरे १८ भाई पहले ही दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त कर चुके हैं वे वहां होंगे और उन्हें वन्दन करना पड़ेगा, इसलिए केवलज्ञान प्राप्त करके ही वहां जाना ठीक रहेगा। यह विचार कर वहीं तपस्यारत हो गए। वर्षभर मूतिकी भांति खड़े रहे ! वृक्षों में लिपटी लताएं उनके शरीर में लिपट गई । उन्होंने अपने वितानसे उनके सिरपर छत्र सा बना बना दिया। उनके पैरोंके बीच कुश उग आए जो देखने में बल्मीकसे प्रतीत होने लगे । एक वर्ष तक उग्र तप करने पर भी जब उन्हें केवल ज्ञान नहीं प्राप्त हुश्रा- क्योंकि उनके मनमें यह भाव विद्यमान था कि मुझे अपने से छोटे भाइयोंको वन्दन करना पड़ेगा-उन्हें प्रतिबोध कराने के हेतु उनकी बहिनें ब्राह्मी और सुन्दरी पायीं और बोली- भाई ! मोहके मदोन्मत्त हाथीसे नीचे उतरो । इसने ही तुम्हारी तपस्याको निरर्थक बना * यह उल्लेख श्वेताम्बर-मान्यताके अनुसार है। सम्पादक

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