Book Title: Anekant 1953 12 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 5
________________ [किरण ७ तामिल प्रदेशों में जैनधर्मावलम्बी [२१७ कुरल है, जिसका रचना-काल ईसाकी प्रथम शती निश्चय साहित्य प्रमाण हो चुका है । 'कुरल' के रचयिताके धार्मिक विचारों पर समस्त तामिल साहित्यको हम तीन युगोंमें विभक्त एक प्रसिद्ध सिद्धान्तका जन्म हुआ है। कतिपय विद्वानोंका कर सकते है। . मत है कि रचयिता जैन धर्मावलम्बी था । ग्रन्थकाने (6) सैध कॉल । . ग्रंथारम्भमें किसीभी वैदिक देवकी वंदना नहीं की है बल्कि शैवनयनार और वैष्णव अलवार काल । उसमें 'कमलगामी' और अष्ट गुण युक्त' प्रादि शब्दोंका (३) अर्वाचीन काल । प्रयोग किया है । इन दोनों उल्लेखोंसे यह पता लगता है इन तीन युगोंमें रचित ग्रंथोंसे तामिल-देशमैं जैनियों के ग्रन्थ कर्ता जैन धर्मका अनुयायी था । जैनियोंके मतसे उक्त जीवन और कार्यका अच्छा पता लगता है। . ग्रन्थ 'एल चरियार' नामक एक जैनाचार्यको रचना है। संघ-काल और तामिल काव्य 'नीलकेशी' को जैनी भाष्यकार समयतामिल लेखकोंके अनुसार तीन संघ हुये हैं। दिवाकर मनि' 'करर्स को अपनी पूज्य ग्रन्थ कहता है। प्रथम संघ, मध्यमसंघ, और अन्तिम संघ । वर्तमान ऐति- यदि यह सिद्धान्त ठीक है तो इसकी यही परिणाम मिकहासिक अनुसन्धानसे यह ज्ञात हो गया है किन किन सम- लता है कि यदि पहेले नही ती कमसे कम ईसा पहली योंके अन्तर्गत ये तीनों संघ हुए । अन्तिम संघके ४६ शतीमें बनी लोग सदर दक्षिणमें पहुंचे थे और वहाँको कवियोंमेंसे 'बल्लिकरार' में संघोंका वर्णन किया है। उसके देश माषामें उन्होंने अपने धर्मको प्रचार प्रारम्भ कर दिया अनुसार प्रसिद्ध वैयाकरण बोलकपिपर प्रथम और द्वितीय लकपिपर प्रथम और द्वितीय था। इस प्रकार ईसाकै अंनन्तरं प्रेथम दी शर्तिया तामि संघोंका सदस्य था । अान्तरिक और भाषा सम्बन्धी प्रदेश में एक नये मैतको प्रचार श्री. जो बाधाहरीसें प्रमाणोंके आधार पर अनुमान किया जाता है कि उक आधार पर अनुमान किया जाता कि उक रहित और नैतिक सिद्धान्त निकै कारण विडियोक मायण वैद्याकरण ईसासे ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान होगा। लिये मनो मंग्यकारी श्री। आगे चलकर इस धर्मने विद्वानोंने द्वितीय संघका काल ईसाकी दूसरी शती निश्चय दक्षिण भारत पर बहुत प्रभाव डाला | देशी भाषाओंकी किया है। अन्तिम संघके समयको भाजकल इतिहासज्ञ उन्नति करते हुए जैनियोंने दाक्षिणात्योम श्रीय विचारों लोग श्वीं, ठी शतीमें निश्चय करते हैं। इस प्रकार सब और प्रार्य-विद्याका पूर्व प्रचार किया, जिसका परिणाम मतभेदोंपर ध्यान रखते हुए ईसाकी श्वीं शतीके पूर्वसे यह हुआ कि द्राविडी साहित्यने उत्तर भारतसे प्राप्त नवीन लेकर ईसाके अनन्तर रवीं शती तकके कालको हम संघ- पाकीजाने मे भारत काल कह सकते हैं। अथ हमें इस बात पर विचार करना साहित्यिक इतिहास" ("A literaty History of है कि इस कालके रचित कौन ग्रन्थ जैनियोंके जीवन और India" ) नामक पुस्तकमें लिखा है कि 'यह जैनियों ही कार्यों पर प्रकाश डालते हैं। । के प्रयत्नोंका फल था कि दक्षिसमें नये श्रादर्शों नए साहिसबसे प्रथम 'बोलकपियर' संघ-कालका आदि लेखक स्य और नए भावोंका संचार हुआ। उस समयके ड्राविडोंऔर वैयाकरण है। यदि उसके समयमें जैनीलोग कुछ भी की उपासनाके विधानों पर विचार करनेसे यह अच्छी तरहप्रसिद्ध होते तो वह अवष्य उनका उल्लेख करता, परन्तु से समझ में आ जायगा कि जैनधर्मने उस देश में जब कैसे कथाम जैनियोंका कोई वर्णन नहीं है। शायद उस जमाई। द्वाविडोंने अनोखी सभ्यताकी उत्पत्तिकी थी। समय तक जैनी उस देशमें स्थाई रूपसे न बसे होंगे स्वर्गीय श्री कनक सवाई पिल्लेके अनुसार, उमके धर्ममें अथवा उनका पूरा ज्ञान उसे न होगा। उसी कालमें रचे रच बलिदान, भविष्यवाणी और अनन्दोत्पादक नृत्य प्रधान गये 'पथु पाह' और 'पहुथोगाई' नामक काव्योमें भी कार्य थे । जब ब्राह्मणोंके प्रथमदलने दक्षिणमें प्रवेश किया उनका वर्णन नहीं है, यद्यपि उपयुक ग्रन्थोंमें ग्रामीण और मदुरा या अभ्य नगरों में वास किया तो उन्होंने इन जीवनका वर्णन है। प्राचारोंका विरोध किया और अपनी वर्णव्यवस्था और संस्कारोंका उनमें प्रचार करना चाहा, परन्तु वहांके निवीदूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ महास्मा विरुवल्लुवर' रचित सियोंने इसका घोर विरोध किया। उस समय वर्शन्यव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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