Book Title: Anekant 1953 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 8
________________ २२० ] सकता है परन्तु इस लेख में इस प्रश्न पर विचार करनेका प्रयत्न किया गया है कि जैन धर्मके चिर सम्पर्कसे हिन्दू समाज पर क्या प्रभाव पड़ा है। अनेकान्त दृष्टि से जैनी लोग बड़े विद्वान और ग्रंथोंक रचयिता थे । वे साहित्य और कलाके प्रेमी थे । जैनियों की तामिलसेवा तामिल देश वासियोंके लिये श्रमूल्य है । तामिल. भाषा में संस्कृत के शब्दोंका उपयोग पहले पहल सबसे अधिक जैनियोंने ही किया । उन्होंने संस्कृत शब्दोंको तामिल भाषा में उच्चारणकी सुगमताकी यथेष्ट रूपमें बदल डाला । कन्नड साहित्यकी उन्नति में जैनियोंका उत्तम योग है। वास्तवमें वे ही इसके जन्मदाता थें । 'बारहवीं शती के मध्य तक उसमें जैनियों होकी संपत्ति थी और उसके अनंतर बहुत समय तक जैनियों ही की प्रधानता रही। सर्व प्राचीन और बहुतसे प्रसिद्ध कन्नड ग्रन्थ जैनियोंहीं के रचे हैं। ( लुइस राइस) श्रीमाम् पादरी एफ-किटेल कहते हैं कि जैनियोंने केवल धामिक भांवनसे नहीं किन्तु साहित्य-प्र मके विचार से भी कचड भाषाकों बहुत सेवा की है और उक्त भाषा में अनेक संस्कृत शब्दका अनुवाद किया है। 'अहिंसा के उच्च आदर्शका वैदिक संस्कारों पर प्रभाव पड़ा है जैने उपदेशों के कारण ब्राह्मणोंने जीव-बलि-प्रदानकी विस्कुल बन्द कर दिया और यज्ञोंमें जीवित पशुओंके स्थान में धटिंकी बनी मूर्तियाँ काम में लायी जानें लगीं । दक्षिण भारतमें मूर्तिपूजा और देवमन्दिर निर्माणकी प्रचुरताका भी कारण जैन धर्मका प्रभाव है। शैवं मंदिरोंमें महात्मा की पूजा का विधानं जैनियों ही का अनुकरण हैं। द्राविड़ोंकी नैतिक एवं मानसिक उन्नतिका मुख्य कारणं पाठशालाओंका स्थापन था, जिनका उद्देश्य जैन विद्यालयोंके प्रचारकं मण्डलोंको रोकना था | उपसंहार मद्रास प्रान्त में जैन समाजकी वर्तमान दशा पर भी Jain Education International [ किरण ७ एक दो शब्द कहना उचित होगा । गत मनुष्य-गणनाके अनुसार सब मिलाकर २७००० जैनी इस प्रान्तमें थे, जिनमें से दक्षिण कनारा, उत्तर और दक्षिण कर्नाटकके जिलोंमें २३००० हैं । इनमें से अधिकतर इधर-उधर फैले हुए हैं और गरीब किसान और अशिक्षित हैं। उन्हें अपने पूर्वजोंके अनुपम इतिहासका तनिक भी बोध नहीं है। उनके उत्तर भारत वाले भाई जो भादिम जैनधर्मके अवशिष्ट चिन्ह हैं. उनसे अपेक्षा कृत श्रच्छा जीवन व्यतीत करते है उनमेंसे अधिकांश धनवान् व्यापारी और महाजन हैं। दक्षिण भारत में जैनियांकी विनष्ट प्रतिमाए, परित्यक्त गुफाएँ और भग्न मन्दिर इस बातके स्मारक हैं कि प्राचीन कालमें जैन समाजका वहां कितना विशाल विस्तार था और किस प्रकार ब्राह्मणोंकी स्पर्धाने उनको मृतप्राय दिया । जैन समाज विस्मृतिके अंचल में लुप्त हो गया, उसके सिद्धान्तों पर गहरी चोट लगी, परंतु दक्षिण में जैनधर्म और वैदिकधर्म मध्य जो करालं संग्राम और रक्तपात हुआ वह मथुरा में मीनाक्षी मंदिरके स्वर्ण कुमुद सरोवरके मण्डपको दीवारों पर अङ्कित हैं तथा चित्रोंके देखने से अभी स्मरण हो आता है । इन चित्रोंमें जैनियोंके विकराल शत्रु तिरुज्ञान संभागढ के द्वारा जैनियोंके प्रति अत्याचारों और रोमांचकारी यातनाओंका चित्रण है । इस रौद्र काण्डका यहीं अंत नहीं है । मयूरा मंदिरके बारह बार्षिक त्यौहारों में से पांचमें यह हृदय विदारक दृश्य प्रतिवर्ष दिखलाया जाता है। यह सोचकर शोक होता है कि एकांत और जनशून्य स्थानोंमें कतिपय जैन महात्माओं और जैनधर्मकी वेदियों पर बलिदान हुए महापुरुषोंकी मूर्तियों और जन श्रुतियोंके अतिरिक्त. दक्षिण भारत में अब जैनमतावलम्बियोंके उच्च उद्देश्यों, सर्वाङ्गब्यापी उत्साही और राजनैतिक प्रभावके प्रमाण स्वरूप कोई अन्य चिन्ह विद्यमान नहीं है । ( वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ से ) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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