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[किरण ७
समयसारके टीकाकार विद्वद्वर रूपचन्दजी
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संवतानुक्रम इतिवृत्त लेखनकी प्रणाली
(१) जिनकुशलसूरि प्राचार्यपद सम्वत् १३७७ से
सम्वत् १३८६ में स्वर्गवास । खरतर गच्छमें १३वीं शतीसे ऐतिहासिक वृतांत लिखा जाता रहा है । फलत: जिनदत्तसूरिजीके शिष्य मणिधारी
(२) महोपाध्याय विनयप्रभ (गौतमरासके रचयिता) जिन चन्द्रसूरिसे लगाकर जो मूर्ति व मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा, (३) विजय तिलक (सुप्रसिद्ध शत्रुजय स्तवनके दीक्षा आदि महत्वपूर्णकार्य दफ्तर वहीमें लिखे रचियता) जाने लगे। जिनके आधारसे युगप्रधान गुरु वावनीका
(४) क्षमाकीर्ति (५) उपाध्याय तपोरन (६) वचक प्रथम संकलन जिनपाल उपाध्यायने संवत् १३०५ के पास. भुवनपोम (७) साधु रङ्ग (6) वा. धर्मसुन्दर (6) बा. पास किया था। जिसके पश्चात् उनकी पूर्ति समय समय दान विनय (१०) वा. गुणवर्द्धन (११) श्रीसोम (१२) पर इस गच्छके अन्य विद्वान यतिगण करते रहे । संवत् शान्ति हर्ष (१३) जिनहर्ष । १३६३ तककी संवतातुक्रमसे लिखित घटनाओंके संग्रह वाली युगप्रधान गुर्वावलिकी प्रति बीकानेरके क्षमा
इनमें कई तो उच्च विद्वान ग्रंथकार हो गये हैं. कविवर कल्याणजीके ज्ञान भंडारमें हैं । हमें वह करीब १५ वर्ष
जिन-हर्ष तो बहुत बड़े लोक भाषाके कवि थे। इनकी रचनाएँ
लक्षाधिक श्लोक परिमाणकी प्राप्त हैं। मूलतः ये राजपूर्व प्राप्त हुई थी। यह अपने ढङ्गका एक अद्वितीय ऐतिहासिक ग्रन्थ है। इसके महत्वके सम्बन्ध में भारतीय विद्या
स्थानके थे । जसराज इनका मूल नाम था । सम्बत् १७०४ में हमने एक लेख भी प्रकाशित किया था। सिंधी जैन
से सम्वत् १७६३ तककी आपकी सैकड़ों रचनायें उपलब्ध ग्रन्थमालासे करीब १० वर्ष हुए यह छपी हुई पड़ी है।
हैं आपका प्राथमिक जीवन राजस्थानमें बीता तब तककी पर मुनि जिनविजयजीके प्रस्तावना आदिके लियेभी उसका
इनकी रचनाओंकी भाषा राजस्थानी ही है। पीछेसे ये गुज
रात व पाटणमें किसी कारणवश जाके जम गये। अतः प्रकाशन रुका हुआ है । इसके बादकी गुर्वावती जैसलमेर के बड़े ज्ञान भंडारमें होनेका उल्लेख मिला था। पर अब
उत्तरकालीन रचनाओंकी भाषामें गुजरातीकी प्रधानता है।
' आपके सम्बन्धमें 'राजस्थान क्षितिज' नामक मासिक पत्रमें वह प्रति वहाँ नहीं है। परवर्ती कई दफ्तर-वहियें भी अब प्राप्त नहीं हैं । संवत् १७००से फिर यह सिलसिला
सुकवि जसराज और उनकी रचनायें' शीर्षक मेरा लेख मिलता है। जिससे विगत ३०० वष में खरतरगच्छकी
प्रकाशित हो चुका है। भट्टारक शाखामें जितने भी मुनि दीक्षित हुए उनका मूल
महोपाध्याय रूपचन्दजीने अपनी रचनाओंके अन्तमें नाम क्या था दीक्षा नाम क्या रक्खा गया, किसका शिष्य
स्वगुरु परम्पराका परिचय देते हुए अपने को क्षेमशाखाके बनाया गया । किस सम्वत् व मितीमें कहाँ पर किस
शान्तिहर्षके शिष्य वाचक सुखवर्धनके शिष्य वाणारस प्राचायके पास दीक्षा ली गई, इसकी सूची मिल
दयासिंहका शिष्य बतलाया है। आपकी लिखित अनेक जाती है।
प्रतियां यति बालचन्दजीके संग्रहमें देखनेको मिलीं । उनसे
आपके भारतम्यापी विहार एवं चतुर्मास करनेका पता रूपचंदजीकी दीक्षा
चलता है। - मैंने एक ऐसीही दफ्तर वहीसे दीक्षा सूचीकी नकल प्राप्त की है। उसके अनुसार रूपचन्दजी की दीक्षा सम्वत्
ग्रन्थ रचना१७५५ के वैशाख वदी २ को विल्हावास गांवमें आचार्य
आपकी उपलब्ध रचनाओं में प्रथम समुद्रबद्ध कवित्त १७जिनचन्द्रसरिजीके हाथसे हुई थी। ये दयासिंहजीके शिष्य
६७ में विल्हावासमें रचित प्राप्त है। और अन्तिम रचना थे। और इनकी दीक्षाका नाम रामविजय रखा गया।
संवत् १८२६ की है । इससे ५६ वर्ष तक आप साहित्य
सेवा करते रहे; जिससे आपकी रचनाओंसे आपकी विद्वत्तागुरु परम्परा
का भलिभांति पता चल जाता है। संस्कृत एवं राजस्थानी में भापकी रचना एवं अन्य साधनोंके अनुसार इनकी गद्य एवं पद्य दोनों प्रकारकी रचनायें प्राप्त हैं। आप सुवि गुरु परम्पराकी नामावली इस प्रकार विदित हुई है। होनेके साथ २ सफल टीकाकार भी थे। संस्कतभाषाके
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