Book Title: Anekant 1953 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेका सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' oaROOXXOCHOCHOOMSOCIAON OoOOLOORAC:OXXOCAXOCXXOCMOcco CONOCRACOWBOOKSOONSOOOOONIOR श्री १०८ प्राचार्य श्री नमिसागरजी का दीक्षा महोत्सव ता. २० दिसम्बर रविवारके दिन डा० कालीदासजी नाग एम० ए० डी० लिट् मेम्बर कौंसिल आफ स्टेट की अध्यक्षतामें सानन्द संम्पन्न हुआ। SCHOCHOOOOOZOORMOCRAS maintaininalibrate Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची साधु-स्तुति ( कविता ) - बनारसीदास सामिल प्रदेशों में जैन धर्मावलम्वी श्री प्रो० एम० एस० रामस्वामी आयंगर, एम० ए० २१६ संशोधन हिन्दी जैन साहित्य में तत्वज्ञान - [ कुमारी किरणबाला जैन समयसार के टीकाकार विद्ववर रूपचन्द ती [ अगरचन्दजी नाहटा पृष्ठ २१५ २२३ २२७ ता २० दिसम्बर शनिवार के दिन वीरसेवा मन्दिर के तत्वावधान में श्राचार्य श्री १०८ नमिसागरजीका दीक्षा समारोह कलकत्ता विश्वविद्यालय के इतिहासज्ञ श्री डा० कालीदास जी नाग एम. ए. डी. लिट् मेम्बर कौन्सि ल आफ स्टेट की अध्यक्षता में अहिंसा मंदिर नं० १ दरियागंज देहली में सम्पन्न हुआ । देहलीकी स्थानीय जनता के अतिक्ति हांसी, मेरठ, मवाना, रोहतक, पानीपत, आदि स्थानोंसे भी बहुत बड़ी संख्या में साधर्मीजन पधारे थे । श्री मोहन लाल जी कठोतिया पं० जुगल किशोरजी मुख्तार, पं० दरबारीलाल जी न्या० सुकमालचन्द जी मेरठ, पं० शीलचन्द जी मवाना श्रादिने स्वयं उपस्थित होकर अपनी श्रद्धांजलियाँ अपित कीं । ला० राजकृष्णजी ने महाराज श्री के जीवनका व अध्यक्ष डा. कालीदासपरिचय कराया । पं० धर्मदेवजी जैतलीका नागका अहिंसा और जन संस्कृतिका प्रसार[ अनन्त प्रसाद जैन कान्त वर्ष १२ किरण २ के पृष्ठ ४७ में प्रकाशित ४२५) रुपये के दो नये पुरस्कार नामक विज्ञप्तिको १५ वीं पंक्ति में 'और' के भागे – ' दूसरा लेख ६० पृष्ठों या दो हजार पंक्तियोंसे कमका नहीं होना चाहिये', ये वाक्य छपने से छूट गया था, जिसका अभी हाल में पता चला है । श्रतः विद्वान लेखक उक्त वाक्य छूटा हुआ। समझ कर हमारी तीर्थ यात्रा के संस्मरण [ परमानन्द जैन शास्त्री दीक्षा समारोह साहित्य परिचय और समालोचन [ परमानन्द जैन शास्त्री पुरस्करणीय लेखोंकी समय वृद्धि २३६ २३१. भाषण अत्यन्त प्रभावक हुआ और उन्होंने बौद्धधर्म और वैदिकर्मके साथ जैनधर्मकी तुलना करते हुए उसकी महत्ता पर प्रकाश डाला। अध्यक्ष महोदयने भी अपने भाषण में जैनधर्मकी हिंसाको विश्व शान्तिका उपाय बतलाते हुए विश्वका प्रिय धर्म बतलाया । डाक्टर साहबने जनताका ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि इसी प्रसिद्ध स्थान पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधीने स्वतंत्रता दिलाई। और मैं आशा करता हूँ कि जैनधर के सिद्धांत व आचार्य श्री का उपदेश श्रात्म-स्वतंत्रताका प्रतीक होगा । श्राचार्य महाराजने भी अपने भाषण में जैन संस्कृति रक्षा और जैनइतिहासकी आवश्यकता पर प्रकाश डाला । और उन्होंने कहा कि सच्चा दीक्षा समारोह साहित्योद्धार से ही सार्थक हो सकता है । For Personal & Private Use Only २३८ जय कुमार जैन उसकी पूर्ति करते हुए तदनुकूल अपने निबन्धको लिखने की कृपा करें । इन निबन्धों को भेजने की अन्तिम अवधि ३१ दिसम्बर तक रक्खी गई थी। किन्तु अब उसमें दो महीने की वृद्धि करदी गई है। अतः फरवरी सन् १९५४ के अन्त तक निबन्ध श्रा जाना चाहिये । प्रक. 'अनेकान्त' Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम वस्तुतत्त्व-सद्योत / / विश्वतत्वप्रकाशक / वाषिक मूल्य ५) एक किरण का मूल्य ॥) JA नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ -दिसम्बर वर्ष १२ किरण ७ । १९५३ सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली मार्गशिर वीरनि० संवत् २४८०, वि० संवत् २०१० * श्री साधु-स्तुति * ज्ञानको उजागर सहज-सुख सागर, सुगुन-रत्नाकर विराग-रस भरयो है। सरनकी रीति हरै मरनको भै न करे, करनसों पीठि दे चरन अनुसरयो है। धरमको मंडन भरमको विहंडन है, परम नरम ह्वे के करमसौं लरयो है। ऐसो मुनिराज भुविलोकमें विराजमान, निरखि बनारसी नमसकार करयो है ॥ -बनारसीदास For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल - प्रदेशों में जैनधर्मावलम्बी (श्री प्रो० एम० एस० रामस्वामी आयंगर, एम० ए० ) श्रीमत्परमगम्भीर | स्याद्वादामोघलाव्च्छनम् । जीयात् - त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ भारतीय सभ्यता अनेक प्रकारके तन्तुओं से मिलकर बनी है। वैदिकोंकी गम्भीर और निर्भीक बुद्धि, जैनकी सर्वं ब्यापी मनुष्यता, बुद्धका ज्ञानप्रकाश, अरबके पैगम्बर ( मुहम्मद साहब) का विकट धार्मिक जोश और संगठन - शक्तिका हविडोंकी व्यापारिक प्रतिभा और समयानुसार परिवर्तन शीलता, इनका सबका भारतीय जीवन पर अनुप्रेम प्रभाव पड़ा है और आजतक भी भारतियोंके विचारों, कार्यों और कांच पर उनका अदृश्य प्रभाव मौजूद है । नये नये राष्ट्रोंका उत्थान और पतन होता है, राजे महाराजे विजय प्राप्त करते हैं और पददलित होते हैं; राजनैतिक और सामाजिक आन्दोलनों तथा संस्थाओं की उन्नतिके दिन भाते हैं और बीत जाते हैं । धार्मिक साम्प्रदायों और विधानोंकी कुछ कालतक अनुयायियों के हृदयों में विस्फूर्ति रहती है । परन्तु इस सतत परिवर्तनको क्रिमा भन्र्गत कतिपय चिरस्थायी लक्षण विद्यमान है, जो हमारे और हमारी सन्तानोंकी सर्वदाके लिए पैतृक सम्पत्ति है । प्रस्तुत लेख में एक ऐसी जातिके इतिहासको एकत्र करने का प्रयत्न किया जायेगा, जो अपने समय में उच्चपद पर विराजमान थी, और इस बात पर भी विचार किया जायेगा कि उससे जातिने महती दक्षिण भारतीय सभ्यताकी उन्नति में कितना भाग लिया है । जैन धर्म की दक्षिण यात्रा यह ठीक ठीक निश्चय नहीं किया जासकता कि तामिल प्रदेशोंमें कब जैनधर्मका प्रचार, प्राम्भ हुआ । सुदूर में दक्षिण भारतमें जैन धर्मका इतिहास लिखने के लिये यथेष्ट सामग्रीका अभाव है | परंतु दिगम्बरोंके दक्षिण जानेसे इस इतिहासका प्रारम्भ होता है । ध्रुवणा बेलगोला के शिलांलेश अब प्रमाणकोटी में परिणित हो चुके हैं और १३वीं शती में देवचन्द्र विरचित 'राजावलिये' में वर्गीि जैन इतिहास को अब इतिहासज्ञ विद्वान असत्य नहीं ठहराते । उपयुक दोनों सूत्रोंसे यह ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध भद्रबाहू ( श्रुत केवर्ली) ने यह देखकर कि उज्जैन में बारहुवर्षका एकभयं को दुर्भिक्ष होने वाला है, अपने १२००० शिष्योंके साथ दक्षिणकी ओर प्रयाण किया । मार्ग में श्रुतकेवलीको ऐसा जान पड़ा कि उनका अन्तसमय निकट है और इसलिए उन्होंने कटवपु नामक देशके पहाड़ पर विश्राम करनेकी आज्ञा दी । यह देश जन, धन, सुवर्ण, धन्न, गाय, भैंस, बकरी, आदिले सम्पन्न था। तब उन्होंने विशाख मुनिको उपदेश देकर अपने शिष्योंको उसे सौंप दिया और उन्हें चोल और पाण्ड्यदेशों में उसके आधीन भेजा 'राजावालकथे' में लिखा है कि विशाखमुनि तामिल प्रदेशों में गये, वहाँ पर जैच वैद्यालयोंमें उपासना की और वहांके निवासी जैनियोंको उपदेश दिया । इसका तात्पर्य यह है कि भद्रबा हुक्रे मरण (अर्थात् २६७ ई० पू० ) के पूर्व भी जैनी सुदूर दक्षिण में विद्यमान थे । यद्यपि इस बातका उल्लेख 'राजावलये' के अतिरिक्त और कहीं नहीं मिलता और न कोई अन्य प्रमाण हो इसके निर्णय करने के लिये उपलब्ध होता हैं, परन्तु जब हम इस बातपर विचार करते हैं कि प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय में विशेषतः उनके जन्म काल में प्रचारका भाव बहुत प्रबल होता है, तो शायद यह अनुमान अनु चित न होगा कि जैनधर्मके पूर्वतर प्रचारक पार्श्वनाथके संघ दक्षिणकी और अवश्य गये होंगे। इसके अतिरिक्त जैनियोंके हृदयों में ऐसे बुकांत वास करनेका भाव सर्वदा चला आया है। जहाँ वे संसारके मंझटों से दूर प्रकृतिकी गोदमें परमानन्दकी प्राप्ति कर सकें । अतएव ऐसे स्थानों की खोज में जैनीलोग अवश्य दक्षिणकी ओर निकल गये होंगे। माठ प्रांत में जो अभी जैनमन्दिरों, गुफाओं और हस्तियों के भग्नावशेष और घुस पाये जाते हैं वहीं उनके स्थान रहे होंगे । यह कहाजाता है कि किसी देशका साहित्य उसके निवासियोंके जीवन और व्यवहारोंका चित्र है। इसी सिद्धान्तके अनुसार तामिल साहित्य की ग्रन्थावली से हमें इस बात का पता लगता है कि जैनियोंने दक्षिण भारतकी सामाजिक एवं धार्मिक संस्थानोंपर कितना प्रभाव डाला है। For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [किरण ७ तामिल प्रदेशों में जैनधर्मावलम्बी [२१७ कुरल है, जिसका रचना-काल ईसाकी प्रथम शती निश्चय साहित्य प्रमाण हो चुका है । 'कुरल' के रचयिताके धार्मिक विचारों पर समस्त तामिल साहित्यको हम तीन युगोंमें विभक्त एक प्रसिद्ध सिद्धान्तका जन्म हुआ है। कतिपय विद्वानोंका कर सकते है। . मत है कि रचयिता जैन धर्मावलम्बी था । ग्रन्थकाने (6) सैध कॉल । . ग्रंथारम्भमें किसीभी वैदिक देवकी वंदना नहीं की है बल्कि शैवनयनार और वैष्णव अलवार काल । उसमें 'कमलगामी' और अष्ट गुण युक्त' प्रादि शब्दोंका (३) अर्वाचीन काल । प्रयोग किया है । इन दोनों उल्लेखोंसे यह पता लगता है इन तीन युगोंमें रचित ग्रंथोंसे तामिल-देशमैं जैनियों के ग्रन्थ कर्ता जैन धर्मका अनुयायी था । जैनियोंके मतसे उक्त जीवन और कार्यका अच्छा पता लगता है। . ग्रन्थ 'एल चरियार' नामक एक जैनाचार्यको रचना है। संघ-काल और तामिल काव्य 'नीलकेशी' को जैनी भाष्यकार समयतामिल लेखकोंके अनुसार तीन संघ हुये हैं। दिवाकर मनि' 'करर्स को अपनी पूज्य ग्रन्थ कहता है। प्रथम संघ, मध्यमसंघ, और अन्तिम संघ । वर्तमान ऐति- यदि यह सिद्धान्त ठीक है तो इसकी यही परिणाम मिकहासिक अनुसन्धानसे यह ज्ञात हो गया है किन किन सम- लता है कि यदि पहेले नही ती कमसे कम ईसा पहली योंके अन्तर्गत ये तीनों संघ हुए । अन्तिम संघके ४६ शतीमें बनी लोग सदर दक्षिणमें पहुंचे थे और वहाँको कवियोंमेंसे 'बल्लिकरार' में संघोंका वर्णन किया है। उसके देश माषामें उन्होंने अपने धर्मको प्रचार प्रारम्भ कर दिया अनुसार प्रसिद्ध वैयाकरण बोलकपिपर प्रथम और द्वितीय लकपिपर प्रथम और द्वितीय था। इस प्रकार ईसाकै अंनन्तरं प्रेथम दी शर्तिया तामि संघोंका सदस्य था । अान्तरिक और भाषा सम्बन्धी प्रदेश में एक नये मैतको प्रचार श्री. जो बाधाहरीसें प्रमाणोंके आधार पर अनुमान किया जाता है कि उक आधार पर अनुमान किया जाता कि उक रहित और नैतिक सिद्धान्त निकै कारण विडियोक मायण वैद्याकरण ईसासे ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान होगा। लिये मनो मंग्यकारी श्री। आगे चलकर इस धर्मने विद्वानोंने द्वितीय संघका काल ईसाकी दूसरी शती निश्चय दक्षिण भारत पर बहुत प्रभाव डाला | देशी भाषाओंकी किया है। अन्तिम संघके समयको भाजकल इतिहासज्ञ उन्नति करते हुए जैनियोंने दाक्षिणात्योम श्रीय विचारों लोग श्वीं, ठी शतीमें निश्चय करते हैं। इस प्रकार सब और प्रार्य-विद्याका पूर्व प्रचार किया, जिसका परिणाम मतभेदोंपर ध्यान रखते हुए ईसाकी श्वीं शतीके पूर्वसे यह हुआ कि द्राविडी साहित्यने उत्तर भारतसे प्राप्त नवीन लेकर ईसाके अनन्तर रवीं शती तकके कालको हम संघ- पाकीजाने मे भारत काल कह सकते हैं। अथ हमें इस बात पर विचार करना साहित्यिक इतिहास" ("A literaty History of है कि इस कालके रचित कौन ग्रन्थ जैनियोंके जीवन और India" ) नामक पुस्तकमें लिखा है कि 'यह जैनियों ही कार्यों पर प्रकाश डालते हैं। । के प्रयत्नोंका फल था कि दक्षिसमें नये श्रादर्शों नए साहिसबसे प्रथम 'बोलकपियर' संघ-कालका आदि लेखक स्य और नए भावोंका संचार हुआ। उस समयके ड्राविडोंऔर वैयाकरण है। यदि उसके समयमें जैनीलोग कुछ भी की उपासनाके विधानों पर विचार करनेसे यह अच्छी तरहप्रसिद्ध होते तो वह अवष्य उनका उल्लेख करता, परन्तु से समझ में आ जायगा कि जैनधर्मने उस देश में जब कैसे कथाम जैनियोंका कोई वर्णन नहीं है। शायद उस जमाई। द्वाविडोंने अनोखी सभ्यताकी उत्पत्तिकी थी। समय तक जैनी उस देशमें स्थाई रूपसे न बसे होंगे स्वर्गीय श्री कनक सवाई पिल्लेके अनुसार, उमके धर्ममें अथवा उनका पूरा ज्ञान उसे न होगा। उसी कालमें रचे रच बलिदान, भविष्यवाणी और अनन्दोत्पादक नृत्य प्रधान गये 'पथु पाह' और 'पहुथोगाई' नामक काव्योमें भी कार्य थे । जब ब्राह्मणोंके प्रथमदलने दक्षिणमें प्रवेश किया उनका वर्णन नहीं है, यद्यपि उपयुक ग्रन्थोंमें ग्रामीण और मदुरा या अभ्य नगरों में वास किया तो उन्होंने इन जीवनका वर्णन है। प्राचारोंका विरोध किया और अपनी वर्णव्यवस्था और संस्कारोंका उनमें प्रचार करना चाहा, परन्तु वहांके निवीदूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ महास्मा विरुवल्लुवर' रचित सियोंने इसका घोर विरोध किया। उस समय वर्शन्यव For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८1 अनेकान्त [किरण. स्था पूर्णरूपसे परिपुष्ट और संगठित नहीं हो पाई थी। निम्नलिखित विवरण तामिल देश स्थित जे नियोंका परन्तु जैनियोंकी उपासना, आदिके विधान ब्राह्मणोंकी मिलता है। अपेक्षा सीदे साधे ढंगके थे और उनके कतिपय सिद्धान्त (१) थोलपियरके समय में जो ईसके ३५० वर्ष पूर्व सर्वोच्च और सर्वोत्कृष्ट थे । इस लिये द्राविडोंने उन्हें पसंद विद्यमान था, कदाचित् जैनी सुदूर दक्षिण देशोंमें न पहुँच किया और उनको अपने मध्यमें स्थान दिया यहाँ तक कि पाये हो। अपने धार्मिक जीवन में उन्हें अत्यन्त आदर और विश्वास- (२) जैनियोंने सुदूर दक्षिणमें ईसाके अनन्तर प्रथम का स्थान प्रदान किया। शतीमें प्रवेश किया हो। (३) ईसाकी दूसरी और तीसरी शतियोंमें, जिसे कुरलोत्तरकाल तामिल-साहित्यका सर्वोत्तमकाल कहते हैं, जोनियोंने भी . कुरळके अनन्तर युगमें प्रधानतः जैनियोंकी संरचतामें अनुपम उन्नति की थी। तामिल-साहित्य अपने विकासको चरमसीमा तक पहुंचा। . ४) ईसाकी पांचवीं और छटी शतियोंमें जैन धर्म तामिल साहित्यकी उन्नतिका समय वह सर्वश्रेष्ठ काल इतना उन्नत और प्रभावयुक्त हो चुका था कि वह पायथा । वह जैनियोंकी भी विद्या तथा प्रतिभाका समय था, राज्यका राजधर्म हो गया था। यद्यपि राजनैतिक-सामर्थ्यका समय अभी नहीं आया था। शैव-नयनार और वैष्णव-अलवार कालइसी समय (द्वितीय शती) चिर-स्मरणीय शिलप्पदिकारम्' नामक काम्यकी रचना हई । इसका कर्त्ता चेर राजा इस कालमें वैदिकधर्मकी विशिष्ट उन्नति होनेके कारण सेंगुत्तवनका भाई 'इलंगोबदिगाल' था । इस ग्रन्थमें बौद्ध और जैनधर्मों का पासन डगमगा गया था। सम्भव जैन सिद्धान्तों, उपदेशों और जैनसमाजके विद्यालयों है कि जैनधर्मके सिद्धान्तोंका द्राविडी विचारों के साथ और प्राचारों भादिका विस्तृत वर्णन है। इससे यह निःस- मिश्रण होनेसे एक ऐसा विचित्र दुरंगा मत बन गया हो न्देह सिद्ध है कि उस समय तक अनेक दाविडोंने जैन- जिसपर चतुर ब्राह्मण अ जिसपर चतुर ब्राह्मण आचार्योंने अपनी बाण-वर्षा की होगी। धर्मको स्वीकार कर लिया था। कट्टर अजैन राजाओंके आदेशानुसार, सम्भव है राजकर्मईसाकी तीसरी और चौथी शतियों में तामिलदेशमें जैन चारियोंने धार्मिक अत्याचार भी किये हो। , धर्मकी दशा जाननेके लिये हमारे पास काफी सामग्री नहीं किसी मतका प्रचार और उसकी उन्नति विशेषतः है। परन्तु इस बातके यथेष्ट प्रमाण प्रस्तुत हैं कि श्वीं शासकोंकी सहायता पर निर्भर है। जब उनकी सहायता शतीके प्रारम्भमें जैनियोंने अपने धर्मप्रचारके लिये बड़ाही द्वार बन्द हो जाता है तो अनेक पुरुष 'उस मतसे अपना उत्साहपूर्ण कार्य किया। सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। पल्लव और पाण्ड्य-सम्राज्योंमें जैन.. 'दिगम्बर दर्शन' (दर्शन सार) नामक एक जैन ग्रंथमें धर्मकी भी ठीक यही दशा हुई थी। इस विषयका एक उपयोगी प्रमाण मिलता है। उक्त ग्रन्थ इस काल (श्वीं शतीके उपरान्त के जैनियोंका वृत्तांत में लिखा है कि सम्बत् १२६ विक्रमी (४७० ईसवीं) में सेक्किक्लार नामक लेखकके प्रन्थ 'पेरिय पुराणम्' में पूज्यपादके एक शिष्य वज्रनन्दी द्वारा दक्षिण मथुरामें एक मिलता है । उक्त पुस्तकमें शैवनयनार और अन्दारनम्धीके दविव-संघकी रचना हुई और यह भी लिखा है कि उक्त- जीवनका वर्णन है, जिन्होंने शैव गान और स्तोत्रोंकी संघ दिगम्बर जैनियोंका था जो दक्षिणमें अपना धर्मप्रचार रचना की है। करने पाये थे। तिज्ञान-संभाण्डकी जीवनी पढ़ते हुए एक उपयोगी । यह निश्चय है कि पाण्ड्य राजाभोंने उन्हें सब प्रकार ऐतिहासिक बात ज्ञात होती है कि उसने जैनधर्मावलम्बी से अपनाया। लगभग इसी समय प्रसिद्ध 'नलदियार' कुन्-पाण्डको शैवमतानुयायी किया। यह बात ध्यान देने नामक अन्धकी रचना हुई और ठीक इसी समबमें ब्राह्मणों याग्य है। क्योंकि इस घटनाके प्रनन्तर पाण्ड्य नृपति और जैनियोंमें प्रतिस्पर्धाकी मात्रा उत्पन्न हुई। जैनधर्मके अनुयायी नहीं रहे। इसके अतिरिक्त जैनीइस प्रकार इस संघकालमें रचित ग्रन्थोंके आधार पर लोगोंके प्रति ऐसी निष्ठुरता और निर्दयताका व्यवहार For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण हिन्दी जैन-साहित्य में तत्वज्ञान ( २१६ किया गया, जैसा कि दक्षिण भारतके इतिहासमें और कभी की शरण ली, जिन्होंने उनका रक्षय तथा पालन किया नहीं हुअा। सभापडके घृणाजनक भजनोंसे, जिनके प्रत्येक यद्यपि अब जैनियोंका राजनैतिक प्रभाव नहीं रहा, और दशवें पद्यमें जैनधर्मकी भर्सना थी, यह स्पष्ट हो जाता उन्हें सब भोरसे पल्लव पाल्य और चोल राज्यवाले तंग है कि वमनस्यकी मात्रा कितनी बढ़ी हुई थी। करते थे, तथापि विद्यामें उनकी प्रभुता न्यून नहीं हुई। अतएव कुन-पापड्यका समय ऐतिहासिक दृष्टिसे 'चिन्तामणि' नामक प्रसिद्ध महाकाव्यकी रचना तिरुवध्यान रखने योग्य है, क्योंकि उसी समयसे दक्षिण भारतमें कतेबर द्वारा नवीं शतीमें हुई थी। प्रसिद, तामिल-वैयाजैनधर्मकी अवनति प्रारम्भ होती है। मि० टेलरके अनु- करण पविर्नान्दजैनने अपने 'नम्नूल' की रचना १२२५ सार कुन-पाएव्यका समय १३२० ईसवीके लगभग है, ई० में की। इन अन्योंके अध्ययनसे पता लगता है कि परन्तु डा० काल्डवेल १२६२ ईसवी बताते हैं। परन्तु जैनी लोग विशेषतः मेलापुर, निदुम्बई (1) थिपंगुदी शिलालेखोंसे इस प्रश्नका निरय हो गया है। स्वर्गीय (तिरुवलुरके निकट एक ग्राम) और टिण्डीवनम्में निवाश्री वेंकटयाने यह अनुसन्धान किया था कि सन् ६२५ ई. स करते थे में पल्लवराज नरसिंह वर्मा प्रथमने 'वातापी' का विनाश अन्तिम प्राचार्य श्री माधवाचार्यके जीवनकालमें किया इसके अाधार प तिरुज्ञान संभाण्डका समय ७ वी मुसलमानोंने दक्षिण पर विजय प्राप्त को, जिसका परिणाम शतीके मध्यमें निश्चित किया जा सकता है। क्योंकि यह हुआ कि दक्षिणमें साहित्यिक, मानसिक और धार्मिक संभाण्ड एक दूसरे जैनाचार्य तिरुनत्रकरसारं' अथवा लोक उन्नतिको बड़ा धक्का पहुँचा और मूतिविध्यंसकोंके प्रत्याप्रसिद्ध अय्यारका समकालीन था परन्तु संभाण्ड 'अय्यर' चारोंमें अन्य मतालम्बियोंके साथ जैनियोंको भी कष्ट मिला। उस समय जैनियोंकी दशाका वर्णन करते हुये से कुछ छोटा था । और अय्यरने नरसिंहवर्माके पुत्रको श्रीयुत वार्थ सा. लिखते हैं कि 'मुसलमान साम्राज्य तक जैनीसे शैव बनाया था। स्वयं अय्यर पहले जैनधर्मकी . जोनमतका कुछ कुछ प्रचार रहा । किन्तु मुसलिम साम्राज्य: शरण में आया था और उसने अपने जीवनका पूर्वभाग का प्रभाव यह पड़ा कि हिन्दू धर्मका प्रचार रुक गया, प्रसिद्ध जैनविद्याके तिरुप्पदिरिप्पुलियारके विहारोंमें व्य और यद्यपि उसके कारण समस्त राष्ट्रको धार्मिक, राजतीत किया था इस प्रकार प्रसिद्ध ब्राह्मण प्राचार्य संभाण्ड नैतिक और सामाजिक अवस्था अस्तव्यस्त हो गयी। और अय्यारके प्रयत्नोंसे, जिन्होंने कुछ समय पश्चात् - तथापि साधारण अल्प संस्थानों, समाजों और मतोंकी अपने स्वामी तिलकथिको प्रसन्न करनेके हेतु शैवमतकी रक्षा हुई। दीक्षा ले ली थी, पाण्ड्य और पल्लव राज्योंमें जैनधर्मकी जियभारतमें जैनधर्मकी उन्नति और अवनतिके . उन्नतिको बड़ा धक्का पहुँचा ! इस धार्मिक संग्राममें शैवों इस साधारण वर्णनका यह उद्देश सुदूर दक्षिण भारतमें को वैष्णव अलवारोंसे विशेषकर 'तिकमलिप्पिरन'-और प्रसिद्ध जैनधर्मके इतिहासका वर्णन नहीं है। ऐसे इति'तिरूमंगई' अलवारसे बहुत सहायता मिली जिनके हास लिखनेके लिए यथेष्ट सामग्रीका अभाव है । उत्तरकी भजनों और गीतोंमें जैनमत पर घोर कटाक्ष हैं। इस भांति दक्षिण भारतके भी साहित्य में राजनैतिक इतिहासका प्रकार तामिल देशोंमें नम्मलवारके समय. (१०वीं शती बहुत कम उल्लेख है। ई०) जैनधर्मका आस्तित्व सङ्कटमय रहा। हमें जो कुछ ज्ञान उस समयके जैन इतिहासका है अवाचीन काल वह अधिकतर पुरातत्ववेत्ताओं और यात्रियांके लेखोंसे नम्मलवारके अनन्तर हिन्दू-धर्मके उन्नायक प्रसिद्ध प्राप्त हश्रा है, जो प्रायः यूरोपियन हैं। इसके अतिरिक्त प्राचार्योंका समय है। सबसे प्रथम शंकराचार्य हुए जिन- वैदिक ग्रन्थोंसे भी जैन इतिहासका कुछ पता लगता है. का उत्तरकी ओर ध्यान गया। इससे यह प्रगट है कि परन्तु वे जैनियोंका वर्णन सम्भवतः पक्षपातके साथ दक्षिण-भारतमें उनके समय तक जैनधर्मकी पूर्ण अवनति - हो चुकी थी। तथा जब उन्हें कष्ट मिला तो वे प्रसिद्ध इस लेखका यह उद्देश नहीं है कि जैन समाजके श्रा. जैनस्थानों श्रवणबेलगोल (मैसूर ) टिण्डिवनम्- चार विचारों और प्रथाओंका वर्णन किया जाय और न (दक्षिण-अरकाट) आदिमें जा बसे । कुछने गंग राजाओं- एक लेखमें जैन गृह-नि-गण-कला, आदिका ही वर्णन हो । For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] सकता है परन्तु इस लेख में इस प्रश्न पर विचार करनेका प्रयत्न किया गया है कि जैन धर्मके चिर सम्पर्कसे हिन्दू समाज पर क्या प्रभाव पड़ा है। अनेकान्त दृष्टि से जैनी लोग बड़े विद्वान और ग्रंथोंक रचयिता थे । वे साहित्य और कलाके प्रेमी थे । जैनियों की तामिलसेवा तामिल देश वासियोंके लिये श्रमूल्य है । तामिल. भाषा में संस्कृत के शब्दोंका उपयोग पहले पहल सबसे अधिक जैनियोंने ही किया । उन्होंने संस्कृत शब्दोंको तामिल भाषा में उच्चारणकी सुगमताकी यथेष्ट रूपमें बदल डाला । कन्नड साहित्यकी उन्नति में जैनियोंका उत्तम योग है। वास्तवमें वे ही इसके जन्मदाता थें । 'बारहवीं शती के मध्य तक उसमें जैनियों होकी संपत्ति थी और उसके अनंतर बहुत समय तक जैनियों ही की प्रधानता रही। सर्व प्राचीन और बहुतसे प्रसिद्ध कन्नड ग्रन्थ जैनियोंहीं के रचे हैं। ( लुइस राइस) श्रीमाम् पादरी एफ-किटेल कहते हैं कि जैनियोंने केवल धामिक भांवनसे नहीं किन्तु साहित्य-प्र मके विचार से भी कचड भाषाकों बहुत सेवा की है और उक्त भाषा में अनेक संस्कृत शब्दका अनुवाद किया है। 'अहिंसा के उच्च आदर्शका वैदिक संस्कारों पर प्रभाव पड़ा है जैने उपदेशों के कारण ब्राह्मणोंने जीव-बलि-प्रदानकी विस्कुल बन्द कर दिया और यज्ञोंमें जीवित पशुओंके स्थान में धटिंकी बनी मूर्तियाँ काम में लायी जानें लगीं । दक्षिण भारतमें मूर्तिपूजा और देवमन्दिर निर्माणकी प्रचुरताका भी कारण जैन धर्मका प्रभाव है। शैवं मंदिरोंमें महात्मा की पूजा का विधानं जैनियों ही का अनुकरण हैं। द्राविड़ोंकी नैतिक एवं मानसिक उन्नतिका मुख्य कारणं पाठशालाओंका स्थापन था, जिनका उद्देश्य जैन विद्यालयोंके प्रचारकं मण्डलोंको रोकना था | उपसंहार मद्रास प्रान्त में जैन समाजकी वर्तमान दशा पर भी [ किरण ७ एक दो शब्द कहना उचित होगा । गत मनुष्य-गणनाके अनुसार सब मिलाकर २७००० जैनी इस प्रान्तमें थे, जिनमें से दक्षिण कनारा, उत्तर और दक्षिण कर्नाटकके जिलोंमें २३००० हैं । इनमें से अधिकतर इधर-उधर फैले हुए हैं और गरीब किसान और अशिक्षित हैं। उन्हें अपने पूर्वजोंके अनुपम इतिहासका तनिक भी बोध नहीं है। उनके उत्तर भारत वाले भाई जो भादिम जैनधर्मके अवशिष्ट चिन्ह हैं. उनसे अपेक्षा कृत श्रच्छा जीवन व्यतीत करते है उनमेंसे अधिकांश धनवान् व्यापारी और महाजन हैं। दक्षिण भारत में जैनियांकी विनष्ट प्रतिमाए, परित्यक्त गुफाएँ और भग्न मन्दिर इस बातके स्मारक हैं कि प्राचीन कालमें जैन समाजका वहां कितना विशाल विस्तार था और किस प्रकार ब्राह्मणोंकी स्पर्धाने उनको मृतप्राय दिया । जैन समाज विस्मृतिके अंचल में लुप्त हो गया, उसके सिद्धान्तों पर गहरी चोट लगी, परंतु दक्षिण में जैनधर्म और वैदिकधर्म मध्य जो करालं संग्राम और रक्तपात हुआ वह मथुरा में मीनाक्षी मंदिरके स्वर्ण कुमुद सरोवरके मण्डपको दीवारों पर अङ्कित हैं तथा चित्रोंके देखने से अभी स्मरण हो आता है । इन चित्रोंमें जैनियोंके विकराल शत्रु तिरुज्ञान संभागढ के द्वारा जैनियोंके प्रति अत्याचारों और रोमांचकारी यातनाओंका चित्रण है । इस रौद्र काण्डका यहीं अंत नहीं है । मयूरा मंदिरके बारह बार्षिक त्यौहारों में से पांचमें यह हृदय विदारक दृश्य प्रतिवर्ष दिखलाया जाता है। यह सोचकर शोक होता है कि एकांत और जनशून्य स्थानोंमें कतिपय जैन महात्माओं और जैनधर्मकी वेदियों पर बलिदान हुए महापुरुषोंकी मूर्तियों और जन श्रुतियोंके अतिरिक्त. दक्षिण भारत में अब जैनमतावलम्बियोंके उच्च उद्देश्यों, सर्वाङ्गब्यापी उत्साही और राजनैतिक प्रभावके प्रमाण स्वरूप कोई अन्य चिन्ह विद्यमान नहीं है । ( वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ से ) For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की अनुपस्थिति में उनका " समयसार की' १२वीं गाथा श्रीकानजी स्वामी" नामक लेख गत किरण में प्रसादिकी असावधानीके कारण कुछ अशुद्ध छप गया है 'जिसका भारी खेद है' । श्रवः विराम चिन्हों, हाइकनों तथा विन्दु विसर्गादिकी ऐसी साधारण अशुद्धियोंको छोड़कर सिन्हें पाठक हमें अवगत कर सकते हैं । दूसरी कुछ अशुद्धिय का संशोधन नीचे दिया जाता है । पाठकजन अपनी-अपनी अनेकान्त' प्रतियों में उन्हें ठीक कर लेनेकी कृपा करें। साथ ही, पृष्ठ १८४ के अन्तमें 'शेष पृष्ठ २०३ पर और पृष्ठ १०३ के 'पृष्ठ १८४ से श्रागे' ऐसा ब्रकिटके भीतर बना प्रारम्भ में लेवें : पृष्ठ, पंक्ति अशुद्ध १७८, ३३ क्रभंग क्रमसे १७३ ३१ १८० २५. १८१ ३३ १८३ २८ १८३ ३६ १८३ ३७ का. २,१ २३ .. " " 51 १८४ " " .. " ,, २४, २५ " / 39 ४. २०६१ ६ १३ साथ रहा १६ समयका २८ परिशिष्ट में " " १८ जकि ,,, १६ ३३ अन्तः का. २२ ग्यायके असत्य असा कल्पना भी कल्पना थी ) १०१ १४१ १७० जिया वहिं जीविद जिसके सम्वन्ध भवनो है ४ ६ निश्चय शुद्ध 'क्रमभंग कमसे कम अनुवयगण पडिक्क विशेष १६३ जिणवरेहिं १६८ जीवद जिनके सम्बद्ध भगवचो रहा है साथ संयमका परिशिष्टों अन्त न्यायको जबकि निश्चयनय संशोधन अनुष्पवण पाढिक्क (विशेष) 39 " .. २१० 78 १६ ,,,,, २५ ,,,, ३६, ३७ अकल्पित एवं प्रतिष्ठित ( अकल्पित एवं प्रतिष्ठित ) क्रा० २,७ 99 39 66 ११०.०२.१ इसी पृष्ठ २११ " का० २, 99 ལྗིད 39 99 ष श्रीकानजी स्वामी मगन 'जिनशासन नामक' के छपने में भी कुछ अदियों हो गई है जिनमें से बिन्दु विसर्गादिकी वैसी साधारण अशुद्धियों को भी छोड़कर शेष अशुद्धियोंका संशोधनं नीचे दिया जाता है। उन अशुद्धियोंको भी पाठक अपनी अपनी प्रतियोंमें ठोक कर की कृपा करें : पंक्ति १२,२३ १४ : २० 99 धौग्य में रहते हैं २ 99 २१२ का०२, For Personal & Private Use Only बोधको अद्वितीय है अद्वितीय है - धौष्य ये रहते हैं, अलग अलग रूपमें ये द्रव्य (सत्- के कोई लक्ष्य नहीं होते और इसलिये दोनों मोष वाली मूलनय विरोधको शासन रूड़ अवस्थामें ३० (मोक्ष वाला शासनारूढ़ अवस्था जो पांच शुन जैनशासन जिनशासन जिनशासन हो जैनशासन हो जनधर्म है धर्म ! विज्ञानधर्म विज्ञानय विकारको विकारकी प्रधानता में प्रधानतामें वीतरागता करता निमित्त उसीने कराता निमित्त उसीने जैन शासनको देखा है और वही -प्रकाशक 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र हलेविड के RS श्रीपाश्वनाथजिन इस मन्दिरमें कसौटीके बहुमूल्य खम्भे लगे हुए हैं। यह मन्दिर बड़ा ही सुन्दर बना हुआ है। इसका विशेष परिचय हमारी तीर्थ यात्राके संस्मरण नामक लेखमें दिया जावेगा। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन-साहित्यमें तत्वज्ञान (लेखिका-कुमारी किरणबाला जैन) प्रत्येक प्राणीके शरीरके साथ प्रात्मा नामकी नित्य कर्म-परमाणुओंमेंसे प्रति समय कर्मवर्गणाओंकी निर्जरा वस्तुका सम्बन्ध है । परन्तु फिर भी प्रास्मा और शरीर होती रहती है अर्थात् पुराने कर्म अपना फल देकर मह दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। प्रारमा अनन्त गुणोंका पुंज है, जाते हैं और नवीन कर्म रागादि भावोंके कारण बन्धनप्रकाशमान है, तथा चैतन्य ज्योतिर्मय है, अविनाशी है रूप होते हैं। और अजर, अमर है। शरीर अचेतन एवं जड़ पदार्थ है। जैन दर्शन में जो कर्म सचम शरीरमें बंधते हैं उनके नाशवान है और वह पौद्गलिक कर्म-परमाणुओंसे मूल पाठ भेद बताये गये हैं-1. ज्ञानावरणीय, २. निर्मित हुआ है । गलना और पूर्ण होजाना इसका दर्शनावरणोय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, १. प्रायु, स्वभाव है। ६. नाम. ७. गोत्र और ८. अन्तराय । _ विश्वमें जो सुख-दुख, सम्पत्ति-विपत्ति आदि अव. ज्ञानावरणीय कर्म-ज्ञान प्रास्माका निजगुण है। स्थायें आती हैं उनका कारण कर्म है। शुभकर्मोंका फल प्रारमा और ज्ञानका अभेद सम्बन्ध है। ज्ञानावरणीयकर्म शुभ और अशुभकर्मोंका परिणाम अशुभ होता है। प्रास्माके ज्ञानगुणको मन्द करता है उसे आच्छादित या जीवात्मा जैसे-जैसे कर्म करता है उसका वैसा-वैसा ही फल विकृत बनाता है। इस कर्मके क्षयोपशमसे मानवमें ज्ञानका भुगतना पड़ता है । जीवात्माके साथ कर्म-पुद्गलोका क्रमिक विकास हीनाधिक रूपमें होता रहता है। जीवात्मासम्बन्ध अनादिकालसे है । जीव-प्रदेशांके साथ कर्म-प्रदेशो में ज्ञानशक्तिका जो तरतम रूप देखने में आता है वह सब का एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध होना बन्ध कहलाता है। उसके क्षयोपशमका ही फल है। इस कर्मके क्षयोपशममें यह कर्मबन्ध ही सुख-दुख रूप परम्पराका जनक है। ज्यों-ज्यों निर्मलता बढ़ती जाती है त्यों-त्यों ज्ञानका विकास बन्धन ही परतन्त्रता है। और परतन्त्र या पराधीन होना भी निर्मल रूप में होता रहता है और जब उस प्राबरण ही दुःख है। अाज विश्वमें हम जो कुछ भी परिवर्तन या कर्मका सर्वथा अभाव या क्षय हो जाता है तब आत्मा सुख दुखादि रूप अवस्थाको देखते हैं, या उन विविध पूर्ण ज्ञानी बन जाता है । और उस ज्ञानको अनन्तज्ञान अवस्थाओं में समुत्पन्न जीवोंकी उन दुःखपूर्ण अवस्थाओंका या केवलज्ञान कहा जाता है। इस कर्मसे मुक्त होने पर अवलोकन करते हैं। तब हमें यह स्पष्ट अनुभबमें आता आत्मा अनन्त ज्ञानसे युक्त होता है। है कि यह संसारके सभी प्राणी स्वकीयोपार्जित कर्मबन्धन- दर्शनावरणीयकर्म-दर्शन भी आत्माका गुण है। से ही परतन्त्र होकर दुखके पात्र बने हैं। दर्शनगुणका आच्छादन करनेवाला कर्म दर्शनावरणीय विश्वमें अनन्त कर्म-परमाणु भरे हुए है। जब कहलाता है। इस कर्मका उदय आत्मदर्शनमें रुकावट प्रास्माकी सकषाय मय मन-वचन-काय रूप योग प्रवृत्तियोंसे डालता है, अथवा दर्शन नहीं होने देता, जैसे ब्यौढ़ी पर मात्मप्रदेश सकम्प एवं चंचल होते हैं तब आत्मा अपनी बैठा हुआ दरवान राजाके दर्शन नहीं करने देता । इसी सराग परिणतिसे कर्मबन्ध करता है यह कर्मबन्ध नवीन कर्मके सर्वथा अभावसे प्रास्मा अनन्त दर्शनका पात्र नहीं हुमा किन्तु अनादिकालसे है। जिस तरह खानसे बनता है। निकले हुए सुवर्ण पाषाणमें सोना किसीने आजतक नहीं वेदनीयकर्म-जो सुख दुखकी सामग्री मिलाकर सुखरक्खा, किन्तु जबसे खानमें पाषाण है तभीसे उसमें सोना दुख रूप फलके भोगने में अथवा वेदन (अनुभव) में निमित्त भी विद्यमान है। इससे सुवर्ण पाषाणकी अनादिता स्वयं होता है । अनुकूल सामग्रीकी प्राप्तिसे सुख और प्रतिकूल सिद्ध है। इसी तरह प्रात्मा और कर्म जुदे-जुदे थे, बादमें सामग्रीकी प्राप्तिसे दुख होता है। किसीने प्रयत्न करके इन्हें मिलाया नहीं, किन्तु अनादिसे मोहनीयकर्म-यह कर्म श्रदा और चारित्र गुणकामतक बीवात्माकै साथ कर्मका सम्बन्ध बन रहा है। बम्धन युक्त है। यह जीवको मदिराके समान उन्मत्त करता अथवाश्रम Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] डालता है। राग, द्वेष क्रोध और मानादि विभाव उत्पन्न करता है । शान्त भाव व सच्चे विश्वाससे भ्रष्ट करता है । मोह आत्माका प्रबल शत्रु है परपदार्थोंमें ममताका होना । मोद है। इसका जीवन सहज नहीं है जो इसे जीत । लेता है वही संसारमें महान एवं पूज्य बनता है। । आयुकर्म कर्म जीवोंको शरीरके अन्दर रोक कर रखता है। जैसे अवधि समाप्त होने तक बन्दीको कारागृह में रखा जाता है और अवधि समाप्त होनेके पश्चात् उसे मुक्त कर दिया जाता है । नामकर्म - यह कर्म जीवोंके शरीरकी चित्रकारकी तरह अनेक तरहकी अच्छी बुरी रचना करता है और आत्मा अश्व गुणका बात करता है। 1 व गोत्रकर्म यह कर्म आत्माका माननीय व निन्दनीय कुल में जन्म कराता है, तथा उसके प्रभावसे हम जगत में ऊँच नीच कहे जाते हैं। वास्तव में हमारा अच्छा बुरा श्राचारण ही ऊँचता नीचताका कारण है। हम अपने भावोंसे जैसा आचरण करेंगे, उसीके परिपाक स्वरूप ऊँचा नीचा कुछ प्राप्त करते हैं। अन्तरायकर्म - चाहे हुए किसी भी कार्य में विघ्न उपस्थित हो जाता है, इस कर्मके उदयसे हमारे कामोंदान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य आदि कार्यो यांचा पहुँचाता है। इसके उदयसे जीवात्मा अपने अभि सचित कार्योंको समय पर करने में समर्थ नहीं होता है। इन कर्मोंके द्वारा श्रात्मा सदा परतन्त्र और बंधन से युक्त रहता है और इन कमोंके सर्वथा रूय हो जाने पर आत्मा भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है- परब्रह्म परमात्मा हो जाता है । और अनन्तकाल तक वह अपने मी सुखमें मन रहता है और वहांसे कभी भी फिर वापिस नहीं आता | कविवर द्यानतरायजीने श्रष्ट कर्मोंके स्वरूपका कथन करते हुए उनके रहस्यको आठ दृष्टान्तों द्वारा व्यक्त किया है देव परयो है पर रूको म ज्ञान होय जैसे दरबान भूप देखनो निवारे है। शहद लपेटी असि धारा सुख दुक्खकार, मदिरा क्यों जीवनको मोहनी विधारे है | काट दियो है पांच करे थिति को सुभाव; चित्रकार नाना भांति चीतके सम्हार है । अनेकान्त [ किरण ७ चक्री ऊँच नीच धरें, भूप दियो मने करें, पई आठ कर्म हरे सोई हमें तारे है । यह कर्मबन्ध चार भेदोंमें विभक्त है प्रकृतिवन्ध स्थितिबन्ध, प्रदेशबन्ध और अनुभागबन्ध। क्योंकि इन । चारों भेदोंका मूल कारण कषाय और योग है । प्रकृति और प्रदेश रूप भागोंका निर्माण योग प्रवृत्तिसे होता है और स्थिति तथा अनुभाग रूप अंशोंका निर्माण कपायसे होता है प्रबन्धक पुद्गलोंमें शानको धात करने अथवा टकने हर्शनको रोकने, सुख दुखका वेदन कराने, आत्मस्वभावको विपरीत एवं अज्ञानी बनाने आदिका जो स्वभाव बनता है वह सब प्रकृति से निष्पन्न होने के कारण प्रकृतिबन्ध कहलाता है। स्थितिबन्ध बनने वाले उस स्वाभाव में अमुक समय तक विनष्ट न होनेकी जो मर्यादा पुद्गल परमाणुओंमें उत्पन्न होती है उसे कालकी मर्यादा अथवा स्थितिबन्ध कहा जाता है । अनुभावबन्ध - जिस समय उन पुद्गल परमाणुश्रोंमें टक्क स्वभाव निर्माण होता है उसके साथ ही उनमें हीनाधिक रूपमें फल दान देने की विशेषताओंका भी बन्च होता है उनका होना ही अनुभागबन्ध कहलाता है । प्रदेशबंधकर्मरूप ग्रहण किये गये पुद्गल परमाणुओं में भिन्न भिन्न नाना स्वभाव रूप परिणत होने वाली उस कर्मर | शिका अपने अपने स्वभावानुसार अमुक अमुक परि माय में अथवा प्रदेश रूपमें बँट जाना प्रदेशबन्ध कहलाता है । For Personal & Private Use Only - 1 कर्मोंकी इन श्रठमूल प्रकृतियोंको दो भागों अथवा भेदों में बांटा जाता है- घालिया २ अपाविया । ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराव कमको घातिया कर्म कहते हैं, क्योंकि ये चारों ही कर्म धमाके निज स्वभावकों बिगाड़ते है-उसे प्रगट नहीं होने देते। वेदनीय, नाम, गोत्र, और आयु इन चार कर्मोंको अघातिया कर्म कहते हैं, क्योंकि ये जीवके निज स्वभावको घातियाकी तरह बिगाड़ते तो नहीं हैं किन्तु उनमें विकृति होनेके बाह्य साधनको मिलाने में निमित होते हैं । इन श्रष्टकर्मोंमें मोहनीय कर्म अत्यन्त प्रबल है और आत्माका शत्रु हैं । इसके द्वारा अन्य घातिया कर्मों में शक्तिका संचार होता है। इन्द्रियों विषयोंकी ओर विशेष रूपसे प्रवृत होती है। यह जीव इन विषयोंसे निरत रह कर भ्रमवश दुखको भी सुख मानता है। कविवर बनारसी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण हिन्दी जैन-साहित्य में तत्वज्ञान [२२५ दासजोने अपने नाटक समयसारमें ऐसे व्यक्तिकी अवस्था- कबहूँ फारै, कबहूँ जोदे, कबहूँ खोसे. कबहूँ नया पहिरावे का वर्णन करते हुए कहा है इत्यादि चरित्र करे । यह बाउला तिसकों अपने प्राधीन 'जैसे कोड कूकर छुधित सूके हाद चावे, मानै वाकी पराधीन क्रिया होइ तातै महा खेद खिन्न होय हानिकी कोर चहुँ ओर चुभै मुखमें। तैसें इस जीवकों कर्मोदयतें शरीर सम्बन्ध कराया। यह गल तालु रसना मसूढनिको मांस फाटै, जीव तिस शरीरको एक माने, सौ शरीर कर्मके आधीन, चाट निज रूधिर मगन स्वाद-सुखमें । कबहूँ कृश होय कबहूँ स्थूल होय, कबहूँ नष्ट होय, कबहूँ तेसैं मूढ़ विषयी पुरुष रति रीति ठाने, नवीन निपजै इत्यादि चरित्र हो । यह जीव तिसकों तामै चित्त साने हित मानै खेद दुःखमें । अपने प्राधीन जानै वाकी पराधीन क्रिया होय तात महा देखे परतच्छ बल-हानि मल-मूत खानि, खेद खिन्न होय है। गहे न गिलानि रहे राग रंग रुखमें ॥३०॥ इस मोहके फन्देमें फंसा हुआ अभागा जीव अपने पंडित दोपचन्दजी शाहने भी अपने 'अनुभवप्रकाश' । भविष्यका कुछ भी ध्यान न रख इन्द्रियोंके आदेशानुसार प्रर्वतन करता है:में ऐसे व्यक्तिके लिये इसीसे समता रखते हुए भाव प्रकट किये हैं: 'कायासे विचारि-प्रीति मायाहीमें हार जीत ___ "जैसे स्वान हाड़को चावै, अपने गाल, तालु मसूढेका लिये हठ, रीति जैसे हारिलकी लकरी । रक्त उतरें, ताकौं जानै भला स्वाद है। ऐसैं मूढ़ पाप चंगुलके जारि जैसे गोह गहि रहे भूमि, दुःखमें सुख कल्पै है । परफंदमें सुखकन्द सुखमाने । स्यों ही पाय गाड़े पै न छोड़े टेक पकरी ॥ अग्निकी माल शरीरमें लागै, तब कहै हमारी ज्योतिका मोहकी मरोरसों भरमको न ठौर पावै, प्रवेश होय है। जो कोई अग्नि झाल• बुझावे तासों धावै चहुँ ओर ज्यों बढ़ावै जाल मकरी। लरै । ऐसें परमैं दुःख संयोग, परका बुझावै. तासौं शत्रकी ऐसी दुरबुद्धि भूलि झूठके झरोखे झूलि, सी दृष्टि देखै । कोप करै। इस पर-जोगमें भोगु मानि फूली फिर ममता जंजीरनसों जकरी ॥३७॥" भूल्या, भावना स्वरसकी याद न करें। चौरासीमें परवस्तु विशेषतः बंधके पांच कारण हैं-1. मिथ्यात्व, कौ पापा माने, तातें चोर चिरकालका भया। जन्मादि २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय, तथा ५. योग। दुख-दण्ड पाये तोहू , चोरी परवस्तुकी न छूट है। देखो ! मिथ्यात्व-अपनो श्रास्माका और उससे सम्बन्धित देखो भूलि तिहुँ लोकका नाथ नीच परकै आधीन भया । अन्य पदार्थों का भी यथार्थ रूपसे श्रद्धान न करने, या अपनी भूलित अपनी निधि न पिछाने । भिखारी भया विपरीत श्रद्धान करनेको मिथ्यात्व कहते हैं। उसमें फंसे डाले है निधि चेतना है सो पाप है। दूरि नाहीं, देखना हुय प्राण हये प्राणीको वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती। दुर्लभ है। देखें सुलभ है, ॥४०, ४१॥ अविरति-दोष रूप प्रवृत्तिको अविरति कहते हैं। 'मोक्षमार्गप्रकाशमें पण्डित टोडरमल्लजीने मोहसे अथवाषद अथवा षट कायके जीवोंकी रक्षा न करनेका नाम अविरति है। अविरतिके १२ भेद हैं। . उत्पन्न दुःखका निम्नलिखित रूपसे वर्णन किया है प्रमाद अपनी अनवधानता या असावधानीको कहते 'बहुरि मोहका उदय है सो दुःख रूप ही है। कैसे हैं। उत्तमक्षमा, मार्दव, प्रार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, सो कहिये है: त्याग, आकिंचन, और ब्रह्मचर्यके पालन में चारित्र, गुप्तियां, ... 'प्रथम तो दर्शनमोहके उदयतें मिथ्यादर्शन हो है समितियां इत्यादि आध्यात्मिक प्रवृत्तियोंके समाचरण ताकरि जैसे याके श्रद्धान है तेसैं तो पदार्थ है नाहीं जैसे पदार्थ है से यह मान नाही, तात याके पाकुलता ही रहे। करने में जो वस्तुयें बाधायें उपस्थित करती हैं वे प्रमाद जैसे बाग्लाको काइने वस्त्र पहिराया, वह बाउला तिस कहलाती हैं। प्रमादके साढ़े सैंतीस हजार भेद हैं, पर मूल १५ भेद हैं, और चार कषाय, चार विकथा, पांच वस्त्रको अपना भंग जानि पापकू पर शरीरको एक इंद्रियां, निद्रा और स्नेहमाने। वह वस्त्र पहिरावने वाल्लेके आधीन है, सो वह कषाय-जोमात्मा को कषे अथवा दुख दे उसे अनुभव प्रकाश पृ. ४०.४१ ना• समयसार पृ००३।४ मोक्ष प्रकाशकपु०६९-७० E . For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६/ ] अनेकान्त [किरण . कषाय कहते हैं यह कषाय ही बन्ध परिणतिका मूल भिनवेश रहित जीवादि तस्वार्थका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शनका कारण है। लक्षण है । जीव. अजीव. पाश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, योग-योगके अनेक दार्शनिकोंने भिन्न-भिन्न अर्थ मोक्ष यह सात तस्वार्थ हैं इनका जो श्रद्धान 'ऐसे ही हैं स्वीकार किये हैं। जैन-दर्शन उनमेंसे एकसे भी सहमत अन्यथा नाहीं' ऐसा प्रतीत भाव पो तत्वार्थश्रद्धान है नहीं है। वह मानता है कि मन, वचन, कायके, निमित्तसे बहुरि विपरीताभिनवेशका निराकरणके अर्थि 'सम्यक होने वाली प्रात्म-प्रदेशोंकी चंचलताको योग कहते हैं। पद कया है। जाते सम्यक्' ऐसा शब्द प्रशंसा वाचक इस दृष्टिसे जैन दर्शनमें योग शब्द अपनी एक पृथक परि है। सो श्रद्धान विषय विपरीताभिनवेशका अभाव भये भाषा रखता है, योगके १५ भेद हैं-चार मनोयोग, चार ही प्रशंसा संभव है। ऐसा जानना .." वचनयोग और सात काययोग। सम्यग्ज्ञान-पदार्थके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान इन कर्मोके बन्धनसे सर्वथा मुक होना ही मोक्ष है। है अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जानना इन कर्मोंसे मुक्त होनेके तीन अमोघ उपाय हैं-1. सम्य सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ग्दर्शन, सम्मग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र । अचार्य श्री उमा सम्यग्दर्शनके पश्चात् जीवको सम्यग्ज्ञान- की उत्पत्ति स्वामीने इन कर्मोकी परतन्त्रतासे छूटनेका सरल उपाय होती है। अर्थात् जीवात्मा उपादेय है और और उससे बतलाते हुए लिखा है. कि-'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारि भिन्न समस्त पदार्थ हेय हैं । इस भेद विज्ञानकी भावना त्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी उत्पन्न हो जाने पर ही आत्माको जो सामान्य या विशेष एकताही मोक्षका मार्ग है। अथवा इन तीनोंकी एकताही ज्ञान होता है वह यथार्थ होता हे उसीको सम्यग्ज्ञान मोक्षमार्गकी नियामक है। इन तीनों से एकका अभाव हो कहते हैं। जाने पर मोक्षके मार्ग में बाधा पडती है। श्रीयोगीचन्द्रदेव सम्यग्चारित्र पापकी कारणभूत क्रियाओंसे विरक्त लिखते हैं होना सम्यग्चारित्र है । सम्यग्ज्ञानके साथ विवेक पूर्वक __ 'दसण भूमि वाहिरा जिय वयरुक्ख ण होति' अर्थात् विभाव परिणतिसे विरक्त होनेके लिए सम्यग्चारित्रकी सम्यग्दर्शन रूपी भूमिके बिना है जीव ! व्रत रूपी वृक्ष प्रावश्यकता होती है। इस ताह रत्नत्रयकी प्राप्ति ही नहीं होता।. सम्यग्दर्शन-तत्वोंके श्रद्धानको अथवा जीवादि मोक्षका मार्ग है-मोक्षको प्राप्तिका उपाय है उसीकी प्राप्तिपदार्थोके विश्वासको कहते हैं। प्रज्ञान अंधकारमें बीन का हमें निरन्तर उपाय करना चाहिए । सम्यग्दर्शन और रहने के कारण यह आत्मा पर पदार्थोंको उपादेय समझता सम्यग्ज्ञानके साथ जीवात्मा बन्धनसे मुक्त होनेके लिये है-उन्हें अपने मानता है। और उनसे अपना सम्बन्ध यथार्थप्रवृत्तियाँ करने में समर्थ और प्रयत्नशील होता है। जोड़ता है परन्तु विवेक उत्पन्न होने पर वह उनको हेय उसकी वही प्रवृत्तियाँ सम्यग्चारित्र कहलाती हैं। प्रात्माअर्थात् अपनेसे पृथक् समझने लगता है। इसी भेद-विज्ञान की निर्विकार, निलेप, अजर, अमर, चिदानन्दधन, कैवरूप प्रवृत्तिको सम्यग्दर्शन कहते हैं । समीचीनदृष्टि या ल्यमय, सर्वथानिर्दोष और पवित्र बनानेके लिए उपयुक्त सम्यग्दर्शन हो जानेके बाद जीवकी विचारधारामें खासा तीन तत्व रत्नके समान हैं । इसलिये जैनशासनमें ये परिवर्तन हो जाता है। उसकी संकुचित एकान्तिक दृष्टिका 'रत्नत्रय' के मामसे स्थान-स्थान पर निर्दिष्ट किये गये हैं। प्रभाव हो जाता है विचारोंमें सरलता समुदारताका दर्शन इसीका पल्लवित रूप यह है-तीन गुप्ति, पांच समिति, होने लगता है विपरीत अभिनिवेश अथवा झूठे अभि दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाइस परीषहोंका जय, पांच प्रायके न होनेसे उसकी दृष्टि सम्यक हो जाती है. वह चारित्र, छह बाह्य तप और छह प्राभ्यान्तर तप, धर्मध्यान सहिष्णु और दयाल होता है। उसकी प्रवृत्तिमें प्रशम. और शुक्लध्यान, इनसे बंधे हुए कर्म शनेः २ निजीर्ण होकर संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा रूप चार भावनाओंका जब प्रात्मासे सर्वथा सम्बन्ध छोड़ देते हैं उसी अवस्थाको समावेश रहतात टोडरमलजी अपने मोचमार्ग मोक्ष कहते हैं। मुक्त जीव फिर बंधनमें कभी नहीं पड़ता। प्रकाशक' नामक ग्रन्थमें सम्यग्दर्शनका लक्षण तथा उतके क्योंकि बन्धनके कारणोंका उसके सर्वथा क्षय हो गया है। भेद बताते हुये लिखते हैं-- अत: उसके कर्म बन्धनका कोई कारणही नहीं रहता। अब सम्यग्दर्शनका सांचा लषय कहिये है-विपरीता १ मोक्ष. प्रकाशक पृ० ४६१. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारके टीकाकार विद्वद्वर रूपचन्दजी (ले. श्री अगरचन्द नाहटा ) कविवर बनारसीदासजीके समयसार नाटकके भाषा समाजके रूपचन्द नामके दो कवि एवं विद्वान हो भी गये टीकाकार विद्वदवर रूपचन्दजःके सम्बन्धमे कई वर्षों से हैं। अतः नाम साम्यसे उन्हींकी ओर ध्यान जाना सहज नाम साम्यके कारण भ्रम चलता पा रहा है. इसका प्रधान था। मान्यवर नाथूरामजी प्रेमीने अर्धकथानकके पृष्ठ ७१ कारण यह है कि इस भाषाटीकाको संवत् १९३३ न में लिखा था कि समयसारकी यह रूपचन्दकी टोका अभी भीमसी माणिकने प्रकरण रस्नाकरके द्वितीय भागमें प्रका- तक हमने नहीं देखी । परन्तु हमारा अनुमान है कि शित किया। पर मूल रूप में नहीं, अतएव टीकाकारने बनारसीदासके साथी रूपचन्दकी होगी । गुरु रूपचन्दकी अन्त में अपनी गुरु परम्परा, टीकाका रचानाकाल व स्थान नहीं। पता नहीं, यहाँ स्मृतिदोषसे प्रेमीजीने यह लिख प्रादिका उल्लेख किया है, वह अप्रकाशित ही रहा। दिया है या कामताप्रसादजीका उल्लेख परवर्ती है। क्योंकि भीमसी माणिकके सामने तो जनता सुगमतासे समझ सके कामताप्रसादजीके हिन्दी जैन साहित्यके संक्षिप्त इतिहासऐसे ढंगस ग्रन्थोंको प्रकाशित किया जाय, यही एकमात्र पृष्ठ (१८० ) के उल्लेखानुसार प्रेमीजी इससे पूर्व अपने बच्य था । मूल ग्रन्थकी भाषाकी सुरक्षा एवं ग्रन्थकारके हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास पृष्ठ ६८-७१ में इस भावोंको उन्हींके शब्दोंमें प्रकट करनेकी ओर उनका ध्यान ग्रन्थके लिखनेके समय इस टीकाको देखी हुई बताते हैं। नहीं था। इसीलिए उन्होंने प्राचीन भाषा ग्रन्थों में विशेषतः कामताप्रसादजीने लिखा है कि रूपचन्द पांडे ( प्रस्तुत) गत भाषा टोकाओंमें मनमाना परिवर्तन करके विस्तृत रूपचन्दजीसे भिन्न हैं। इनकी रची हुई बनारसीदास कृत टीकाका सार (अपने समयकी प्रचलित सुगम भाषामें ) समयसार टीका प्रेमीजीने एक सज्जनके पास देखी थी। ही प्रकाशित किया । उदाहरणार्थ श्रीमद् प्रानन्दघनजी. वह बहुत सुन्दर व विशद टीका संवत् १७६८ में बनी को चौवीसी पर मस्तयोगी ज्ञानसारजीका बहुत ही सुन्दर हुई है। मताप्रसादजीके उल्लेखमें टीकाका रचनाकास एवं विस्तृत विवेचन है उसे भी आपने संक्षिप्त एवं संवत् १७६८ लिखा गया है पर वह सही नहीं है। टीका अपनी भाषामें परिवर्तन करके प्रकासित किया है। इससे के अन्तके प्रशस्ति पग्रमें 'सतरह से बीते परिवाणवां वर्ष ग्रन्थकी मौलिक विशेषतायें प्रकाशित न हो सकी। टीका- में ऐसा पाठ। अतः रचनाकाल संवत् १७६२ निश्चित कारकी परिचायक प्रशस्तियाँ भी उन्होंने देना आवश्यक हाता है। सम्भव है इस टीकाकी प्रतिलिपी करने वालेने नहीं समझा, केवल टीकाकारका नाम अवश्य दे दिया है। या उस पाठको पढ़ने वाखेने भ्रमसे बाणुवांके स्थानमें यही बात समयसार नाटककी रूपचन्दजी रचित भाषा ठाणवां लिख पढ़ लिया हो । मैंने इस टीकाकी प्रति करीब टीकाके लिये चरितार्थ है। २३ वर्ष पूर्व बीकानेरके जैन ज्ञानभंडारोंमें देखी थी। पर बनारसीदासजी मूलतः श्वेताम्बर खरतर गच्छीय उस पर विशेष प्रकाश डालनेका संयोग अभी तक नहीं श्रीमालवंशीव श्रावक थे। आगरेमें आने पर दिगम्बर मिसा । मुनि कांतिसागरजीने "विशाखभारतके' मार्च सम्प्रदायकी भार उनका झुकाव हो गया। माध्यात्म १६४७ के अंकमें 'कविवर बनारसीदास व उनके हस्तउनका प्रिय विषय बना । यावत् उसमें सराबोर हो गये। लिखित ग्रन्थोंकी प्रतियाँ' शीर्षक लेखमें इस टीकाकी एक कवित्व प्रतिभा उनमें नैसर्गिक थी। जिसका चमत्कार हम प्रति मुनिजीके पास थी उसका परिचय इस लेखमें दिया उनके नाटक समयसारमें भली भांति पा जाते हैं। मूलतः है। इससे पूर्व मैंने सन् १९४३ में जब प्रेमीजीने मुझे यह रचना प्राचार्य कुन्दकुन्दके प्राकृत ग्रन्थके अमृतचन्द्र अपने सम्पादित अर्धकथानककी प्रति भेजी, भाषा टीकाकार रूपचन्दजीके खरतर गच्छीय होने आदिकी सूचना दे दी प्रतिभाने उसे मौलिक कृतिकी तरह प्रसिद्ध कर दी। इस थी ऐसा स्मरण है। ग्रन्थ पर भाषा टीका करने वाले भी कोई दिगम्बर विद्वान अभी कुछ समय पूर्व प्रेमीजीका पत्र मिला कि अर्धजी होंगे ऐसा अनुमान करना स्वाभाविक ही था। दिगम्बर कथानकका नया संस्करण निकल रहा है अतः समयसारके For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ] टीकाकार रूपचन्दजीका विशेष परिचय कराना आवश्यक समझा गया। गत कार्तिक में राजस्थान विश्व विद्यापीठ उदयपुरके महाकवि सूर्यमल श्रासनके 'राजस्थानी जैन साहित्य' पर भाषण देनेके लिये उदयपुर जानेका प्रसंग मिला, तब चित्तौड़ भी जाना हुआ। और संयोगवश प्रस्तुत रूपचन्दजी के शिष्य परम्पराके यतिवर श्री बालचंद जीके हस्तलिखित ग्रन्थोंको देखनेका सुअवसर मिला । आपके संग्रह में रूपचन्दजी व उनके गुरु एवं शिष्यादिके हस्तलिखित व रचित अनेक ग्रन्थोंकी प्रतियाँ अवलोकन में श्राईं, इससे आपका विशेष परिचय प्रकाशित करने में और भी प्रेरणा मिली । प्रस्तुत लेख उसी प्रेरणाका परिणाम है । अनेकान्त महोपाध्याय रूपचन्दजी अपने समयके एक विशिष्टका विद्वान एवं सुकवि थे । आपकी रचनाओंका परिचय मुझे गत् २५ वर्षसे बीकानेरके जैन ज्ञानभंडारोंका अवलोकन करने पर मिल ही चुका था। पर आपके जन्म स्थान, वंश श्रादि जीवनी सम्बन्धी बातें जाननेके लिये कोई साधन प्राप्त नहीं था । १६ वीं सदीके प्रसिद्ध विद्वान, उपाध्याय क्षमाकल्याणजीने महोपाध्याय रूपचन्द्रजीका गुण वर्णनारमक - अष्टक बनाया । वह अवलोकनमें श्राया पर उसका कुछ इतिवृत्त नहीं मिला। गत वर्ष मेरे पुत्र धर्मचंदके विवाहके उपलक्ष्य में लश्कर जाना हुआ, तो वैवाहिक कार्यों में जितना समय निकल सका, वहांके श्वेताम्बर मन्दिरके प्रतिमा लेखों की नकल करने एवं हस्तलिखित भंडारके अवलोकन में लगाया। क्योंकि हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज मेरा प्रिय विषय बन गया है। जहाँ कहीं भी उनके होनेकी सूचना मिलती है उन्हें देख कर अज्ञात सामग्रीको प्रकाश में लानेकी प्रबल उत्कंठा हो उठती है इसीके फलस्वरूप जब भी मेरा कहीं जाना होता है सर्व प्रथम जैन मन्दिरोंके दर्शनके साथ वहांकी मूर्तियोंके लेख लेने एवं हस्तलिखित ज्ञानभंडारोंके अवलोकन इन दो कार्यों के लिये अपना समय निकाल ही लेता हूँ । अपने पुत्रके विवाहके उपलक्ष में जाने पर भी इन दोनों कामों के लिए लश्कर में कुछ समय निकाला गया। वहांके श्वेताम्बर जैन मन्दिरकी धातु मूर्तियोंके लेख लिये गये और उस मन्दिर में ही इस्तलिखित ग्रन्थोंका खरतर गच्छीय यतिजी का संग्रह था, उसे भी देख लिया गया ! [ किरण ७ रूपचंदका जन्म समय वंश व स्थान लश्कर मंदिरके इस संग्रह में महोपाध्याय रूपचन्दजी के अष्टकी एक पत्रकी प्रतियें प्राप्त । इस अष्टक रूपचन्दजी सम्बन्धित कुछ ज्ञातव्य ऐतिहासिक बातें विदित हो सकीं । तथा इसके पांचवें पद्यमें रूपचन्दजीके वंशका परिचय इस प्रकार दिया है 'वाग्देवता मनुजरूप धरामरौ च, श्रीश्रो सवंशवद चंचलगोत्र शुद्धाः । श्री पाठकोत्तमगुणैर्जयति प्रसिद्धाः सत्पल्लिकापुष्करे भरुमण्डले च ॥ श्रष्टादशेव शतके 'चतुरुत्तरे च, त्रिंशतमेव समये गुरुरूपचन्द्राः । श्रारधिनां धवलभावयुतां विधाय श्रयु सुखं नवति वर्षमितं च भुक्त्वा ॥ अर्थात् श्रापका वंश ओसवाल व गोत्र श्रांचलिया था । संवत् १८३४ में आराधना सहित आपका स्वर्गवास ६० वर्षकी उम्र में पालीमें हुआ । चित्तौड़ के यति बालचन्दजीके संग्रहके एक गुटके में इनका जन्म सं० १७३४ लिखा है और स्वर्गवास सं० १८३५ । यद्यपि ये दोनों उल्लेख रूपचन्दजीके शिष्य परंपराके ही है। पर हमें ष्टक वाला उल्लेख अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता | अष्टककी रचना शिवचन्दके शिष्य रामचन्द्र ने की थी । सम्वत् १६१० के मार्गशिर सुदी पूनमको यह अष्टक बनाया गया है। इसमें रूपचन्दजीके स्वर्गवास पर फालर के पासमें जिनकुशलसूरिजी के रूपके दक्षिण दिशा में रूपचन्दजीकी पादुकायें संवत् १८५७ में स्थापित करनेका उल्लेख है। चित्तौड़ के गुटकेके अनुसार रूपचन्दजीकी आयु १०१ वर्षकी हो जाती है और अष्टकमें स्पष्टरूपसे 8० वर्ष की आयु में स्वर्गवास होनेको लिखा है । मेरी राय में वही उल्लेख ठीक है इनके अनुसार रूपचन्दजीका जन्म संवत् १७४४ सिद्ध होता है। चित्तौड़ वाले गुटके में १७३४ स्मृति कोषसे लिखा गया प्रतीत होता है इनके गोत्रका नाम श्रांचलिया है । जिसकी बस्ती बीकानेर के देशनोक आदि कई गांवो में अब भी पाई जाती है । अतः रूपचन्दजीका जन्म स्थान बीकानेरके ही किसी ग्राम में होना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [किरण ७ समयसारके टीकाकार विद्वद्वर रूपचन्दजी [२२६ संवतानुक्रम इतिवृत्त लेखनकी प्रणाली (१) जिनकुशलसूरि प्राचार्यपद सम्वत् १३७७ से सम्वत् १३८६ में स्वर्गवास । खरतर गच्छमें १३वीं शतीसे ऐतिहासिक वृतांत लिखा जाता रहा है । फलत: जिनदत्तसूरिजीके शिष्य मणिधारी (२) महोपाध्याय विनयप्रभ (गौतमरासके रचयिता) जिन चन्द्रसूरिसे लगाकर जो मूर्ति व मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा, (३) विजय तिलक (सुप्रसिद्ध शत्रुजय स्तवनके दीक्षा आदि महत्वपूर्णकार्य दफ्तर वहीमें लिखे रचियता) जाने लगे। जिनके आधारसे युगप्रधान गुरु वावनीका (४) क्षमाकीर्ति (५) उपाध्याय तपोरन (६) वचक प्रथम संकलन जिनपाल उपाध्यायने संवत् १३०५ के पास. भुवनपोम (७) साधु रङ्ग (6) वा. धर्मसुन्दर (6) बा. पास किया था। जिसके पश्चात् उनकी पूर्ति समय समय दान विनय (१०) वा. गुणवर्द्धन (११) श्रीसोम (१२) पर इस गच्छके अन्य विद्वान यतिगण करते रहे । संवत् शान्ति हर्ष (१३) जिनहर्ष । १३६३ तककी संवतातुक्रमसे लिखित घटनाओंके संग्रह वाली युगप्रधान गुर्वावलिकी प्रति बीकानेरके क्षमा इनमें कई तो उच्च विद्वान ग्रंथकार हो गये हैं. कविवर कल्याणजीके ज्ञान भंडारमें हैं । हमें वह करीब १५ वर्ष जिन-हर्ष तो बहुत बड़े लोक भाषाके कवि थे। इनकी रचनाएँ लक्षाधिक श्लोक परिमाणकी प्राप्त हैं। मूलतः ये राजपूर्व प्राप्त हुई थी। यह अपने ढङ्गका एक अद्वितीय ऐतिहासिक ग्रन्थ है। इसके महत्वके सम्बन्ध में भारतीय विद्या स्थानके थे । जसराज इनका मूल नाम था । सम्बत् १७०४ में हमने एक लेख भी प्रकाशित किया था। सिंधी जैन से सम्वत् १७६३ तककी आपकी सैकड़ों रचनायें उपलब्ध ग्रन्थमालासे करीब १० वर्ष हुए यह छपी हुई पड़ी है। हैं आपका प्राथमिक जीवन राजस्थानमें बीता तब तककी पर मुनि जिनविजयजीके प्रस्तावना आदिके लियेभी उसका इनकी रचनाओंकी भाषा राजस्थानी ही है। पीछेसे ये गुज रात व पाटणमें किसी कारणवश जाके जम गये। अतः प्रकाशन रुका हुआ है । इसके बादकी गुर्वावती जैसलमेर के बड़े ज्ञान भंडारमें होनेका उल्लेख मिला था। पर अब उत्तरकालीन रचनाओंकी भाषामें गुजरातीकी प्रधानता है। ' आपके सम्बन्धमें 'राजस्थान क्षितिज' नामक मासिक पत्रमें वह प्रति वहाँ नहीं है। परवर्ती कई दफ्तर-वहियें भी अब प्राप्त नहीं हैं । संवत् १७००से फिर यह सिलसिला सुकवि जसराज और उनकी रचनायें' शीर्षक मेरा लेख मिलता है। जिससे विगत ३०० वष में खरतरगच्छकी प्रकाशित हो चुका है। भट्टारक शाखामें जितने भी मुनि दीक्षित हुए उनका मूल महोपाध्याय रूपचन्दजीने अपनी रचनाओंके अन्तमें नाम क्या था दीक्षा नाम क्या रक्खा गया, किसका शिष्य स्वगुरु परम्पराका परिचय देते हुए अपने को क्षेमशाखाके बनाया गया । किस सम्वत् व मितीमें कहाँ पर किस शान्तिहर्षके शिष्य वाचक सुखवर्धनके शिष्य वाणारस प्राचायके पास दीक्षा ली गई, इसकी सूची मिल दयासिंहका शिष्य बतलाया है। आपकी लिखित अनेक जाती है। प्रतियां यति बालचन्दजीके संग्रहमें देखनेको मिलीं । उनसे आपके भारतम्यापी विहार एवं चतुर्मास करनेका पता रूपचंदजीकी दीक्षा चलता है। - मैंने एक ऐसीही दफ्तर वहीसे दीक्षा सूचीकी नकल प्राप्त की है। उसके अनुसार रूपचन्दजी की दीक्षा सम्वत् ग्रन्थ रचना१७५५ के वैशाख वदी २ को विल्हावास गांवमें आचार्य आपकी उपलब्ध रचनाओं में प्रथम समुद्रबद्ध कवित्त १७जिनचन्द्रसरिजीके हाथसे हुई थी। ये दयासिंहजीके शिष्य ६७ में विल्हावासमें रचित प्राप्त है। और अन्तिम रचना थे। और इनकी दीक्षाका नाम रामविजय रखा गया। संवत् १८२६ की है । इससे ५६ वर्ष तक आप साहित्य सेवा करते रहे; जिससे आपकी रचनाओंसे आपकी विद्वत्तागुरु परम्परा का भलिभांति पता चल जाता है। संस्कृत एवं राजस्थानी में भापकी रचना एवं अन्य साधनोंके अनुसार इनकी गद्य एवं पद्य दोनों प्रकारकी रचनायें प्राप्त हैं। आप सुवि गुरु परम्पराकी नामावली इस प्रकार विदित हुई है। होनेके साथ २ सफल टीकाकार भी थे। संस्कतभाषाके For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०1 अनेकान्त [किरण . तो आप प्रकांड पण्डित थे। गौतमीयकाव्य एवं कई होता है। गौतमीय काध्यकी प्रशस्तिमें रूपचन्दजीने स्तोत्र श्रादि आपके काव्य प्रतिभाके परिचायक हैं। सिद्धा- अपनेको जोधपुरके महाराजा अभयसिहसे सम्मान प्राप्त न्त-चन्द्रिकावृत्ति आपके व्याकरण ज्ञान एवं गुणमाला करने वाला लिखा है। इन महाराजाका समय १७८१ प्रकरण आदि जैन सिद्धान्तोंके गंभीर ज्ञानको सूचना देते से १५०६ तक का है। प्रशस्तिका वह श्लोक इस हैं। हेमी नाममाला, अमरू शतक, भतृहरि. शतकत्रय, प्रकार है। बघुस्तवन भक्तामर, कल्याणमन्दिर, शतश्लोकी, सन्निपात- तच्छिशिष्योऽभयसिंह नाम नृपते. लब्धप्रतिष्ठा महा । कलिका मादि संकृत ग्रन्थोंकी भाषा टीका आपने राज गाम्भीरार्थ, अहत्शास्त्रतत्वरसिकोऽहम् रूपचन्द्रा हृदयान् स्थानी व हिन्दोभाषामें की। प्रथम वार भाषाटीका हिन्दी प्रख्यातापर नाम रामविजयो, गम्छेशदत्ताज्ञयाः । गय में लिखी गई है इससे प्राकृत संस्कृत हिन्दी व काव्ये कार्यमिमं कवित्व कलया श्रीगौतमीये शुभम् । राजस्थामी इस चारों भाषाओंके श्राप ज्ञाता व लेखक सिद्ध है। काव्य प्रतिभा-प्रस्तुत काव्य सौका है इसकी टीका आपकी विद्यमानतामें ही क्षमाकल्याणने बनानी प्रारम्भ की व्याकरण, कोश, काव्य, वैद्यक और जैन सिद्धान्तके थी और उसकी पूर्णाहुति आपके स्वर्गवास होनेके बाद विद्वान होनेके साथ साथ आपका ज्योतिष सम्बन्धि ज्ञान भी हुई । यह ग्रन्थ टीका सहित छप चुका है। इस ग्रन्थकी उल्लेखनीय हैं। मुहूर्त मणिमाला व विवाह पटल आपके प्रस्तावनामें पण्डित नारायणराम आचार्य काम्यतीर्थने इस ज्योतिषके ग्रन्थ हैं। आपके प्रशिष्य रामचन्द्र के रचयिता काव्यकी प्रशंसा करते हुए लिखा है। आपके स्तुति अष्टकमें आपको षट्शास्त्रवादजयिका, प्रकृतमिदं काव्यमनेनैवोद्देश्येन जैनसारस्वतभांडागारे अष्टावधान करने में कुशल, इच्छालिपिके आविष्कारक, रत्नमिव चमत्कुरुते । जैन संप्रदायं प्रतिप्रमेयानुन्मखी कतुम् सकल समस्त वाङ्मय पारंगत, जीवनपर्यन्त, शीलधारक अहिंसादयावतानुगामिनं श्रद्धानं दृढीकतु मेव च कवि सौम्यमूति प्रादि विशेषणोंसे युक्त बतलाया है। गगनचन्द्रेण श्रीमतापाठकेन रूपचंद्रण तदिदं काव्यउपाध्याय पद मुपानिबद्धम् । नामतस्तदिदं काम्यम् , किन्तु जैनसंप्रदाय श्रापकी विद्वत्ताके कारण ही प्राचार्य जिनलामसूरिने रहस्यबोधने प्रमाण ग्रंथा, वादग्रंथ महाकाव्यम् सिद्धान्तसंवत् १८१७ से पूर्व पापको उपाध्याय पदसे अलंकृत किया बोधने सम्यक् प्रभवति । था। खरतरगच्छकी परम्परा अनुसार जिस समयमें जो 'काव्य गगन रवैः श्री रूपचन्द्र कदै कवितानि गुम्फन उपाध्याय सबसे अधिक दीक्षा पर्यायमें वृद्ध होता है। उसे पाटव तथा विद्यते येन हि क्लिष्टोऽपि विषयो नीरसोपि च महोपाध्याय लिखा जाता है। आपने लंबी आयु पाई और वयों लोकानां हृदयावर्जनक्षमो भवति । ऋतु उपवनादि छोटी उम्रमें ही दीक्षा लेनेके कारण चारित्र पर्याय भी खूब वर्णने तु कवेर्मश्ररा रचनास्त्येव, परं सिद्धान्त तत्त्वबोधनेपाला । अतः आप अपने समयके महोपाध्याय पद पर प्रति- ऽपि सैव कवे शैली एकान्तभावेन प्रचंडनीतिमहदेव ष्ठित हुये। गोरवं कथयितुः। ॐ बिहार - राजस्थानी भाषाके काव्योंमें आपकी चित्रसेन यमावति - आपका विहार प्रधानतया बीकानेर, जोधपुर, जैसल- रास (रचना सम्बत् १८१४ बीकानेर) नेमिनाथरासो, मेर राज्यमें हुआ। बीकानेर जोधपुर, पाली, सोजत, गौडीछन्द, प्रोशवालरास, फलोदी स्तवन, आबूस्तवन, विवहावास, कालाकुम्ता बीदासर आदि स्थानों में आपके समुद्रबंध कवित्त आदि उल्लेखनीय हैं। जिन सुख सूरि रचे हुये ग्रन्थ उपलब्ध हैं। मजलश हिन्दीभाषामें तुकान्त गद्यकी विशिष्ट रचना जिन सुखसरि मजलस संवत् १७७२ में मापने बनवाई है। पापकी ज्ञात समस्त रचनाओंकी नामावली भागे दी है। प्रापको ज्ञात समस्त रचनामा जिसमें उन्शब्दोंकी प्रधानता है। 'भक्ति सूरिसिंह चले जायेगी। बन्द पाएकी पंजाबी भाषाकी रचना है। इन दोनों रच- * लेख में संस्कृत पद्य और गय बहुत भएद्ध रूपमें है नामोंसे भापका बिहार, पंजाब और सिंधमें होना भी सिद्ध उसे यहां उसी रूपमें दिया जा रहा है। -प्रकाशक For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण.] समयसारके टीकाकार विद्वद्वर रूपचन्दजी [२३१ - शिष्य परम्परा-. १२ व असोजबदि (स्वयं लिखित प्रति यति बालचन्द्रजीके संग्रहमें, समयसार मूलकी भी संवत् १७६३ में रूपचन्द्र महोपाध्याय रूपचन्द्रजीकी शिष्यपरंपरामें शिवचं जीकी लिखित प्रति उनके संग्रहमें हैं) (६) लगुस्तक्टदजी आदि अच्छे विद्वान होगये हैं। श्राज भी खरतरगच्छ ब्वा सम्बत् १७६८ (७) मुहू तमणिमाला (पत्र ६६ ग्रन्थ के भट्टारक बीकानेर गद्दीके श्रीपूज्य विजयेन्द्रसूरिजी १८६१) सम्बत् १८०१ मिगसरसुदी १ जोशी रामकिशनइनकी ही विद्वद शिष्य परंपराके प्रतीक हैं। चित्तौड़के के पुत्र बच्छराजके लिए रचित ।) (८) गौतमीय काव्य, पति बालचंदजी भी बड़े सजन व्यक्ति हैं। ग्वालियरमें सम्बत् १८०७ जोध पुर रामसिंह राज्ये रचित । (6) रामचन्द्रजीकी शिष्यं पपंपरा चल रही है। जिनका संग्रह भक्तामर टब्बा, सम्बत् १८११ (कालाऊनामें, शिष्य लश्करके श्वेताम्बर जैन मन्दिरमें रक्खा हुआ है। शिष्य पुण्यशील, विद्याशीलके आग्रहसे रचित (10) कल्याण. परंपराका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-रूपचन्दजीने मन्दिर टब्बा सम्बत् १८११ कालाऊनामें। अपने ग्रंथोंमेंसे कई ग्रन्थ स्वशिष्य पदमा और वस्ताके (१) 'दुरियर' वीरस्तोत्र बालापबोध, लेखन संवतू लिये बनाये ऐसा उल्लेख किया है। उनके दीक्षा नाम पुण्य १८.३ वीलाढा 'पत्र' (१२) चित्रसेन पदमावतीशील विद्याशील था। इनमेंसे पुण्यशील रचित ज्ञेय चतुविंशतिस्तवन मुनि विनयसागरजी ने प्रकाशित किये चौपाई सम्बत् १८१४ पौह सुदी १४ बीकानेर (१३ चतु विंशति जिन स्तुति पंचाशिका, संवत् १८१४ माघवदी हैं, जिनकी प्रस्तावमा मैंने लिखी है। ज्ञानानंद प्रकाशन नामक आपके ग्रन्थकी अपूर्ण प्रति चित्तौड़के यति बामचं बीकानेर (१४) गुणमाला प्रकरण, संवत् १८१७ जेसलदजीके संग्रह में अभी अवलोकनमें भाई जिसकी पूर्ण प्रति मेर । (११) साधुसमाचारी सम्वत् १८१६ (यह कल्पसूत्र बालावबोधके अन्तरगत ही संभव है। (१६) प्राबू तीर्थप्राप्त करना आवश्यक है। यात्रा स्तवन संवत् १८२१ प्राचार्य जिनलाभसरिके साथ . पुण्यशीलके शिष्य समयसुन्दर उनके शिष्य उपाध्याय - ___८५ मुनियों के साथ यात्रा (१७) हेमीनाममाला भाषाटीका शिवचंद्रभी बड़े अच्छे विद्वान हो गये हैं। जिनके रचित (६ कांड) सम्वत् १८२२ पौह सुदी ३ कालाउना प्रद्य म्नलीलाप्रकाशकी प्रति भी अपूर्ण व त्रुटित अवस्था (मुणोतसूरतरामके लिये) (१८) फलौदी पार्श्वस्तवन, में प्राप्त हुई है। इसकी भी पूरी प्रति प्राप्त होनी आवश्यक सम्बत् १८२३ मिगसर सुदी ८ (१६) अल्पावहुत्व स्तवन है। आपके रचित ऋषिमण्डलपूना प्रादि प्रकाशित हो सम्बत् १८२३ कालाऊनामें लिखित प्रति (२१) शत श्लोकी चुकी हैं शिवचंद्रजीके शिष्य रूपचंद्रजी अच्छे विद्वान थे, टब्बा १८३, मिगसरसुदी १० पानी । (२२) सन्निपात जिनके रचित कई ग्रंथ प्राप्त हैं। रामचंद्रजीके शिष्य कलिका टब्बा सम्वत् १८३१ माघसुदि १, पाली। उस्बराजके शिष्य नेमचंद्रजीथे। जिनके शिष्य यति श्याम (२३) सिद्धान्तचन्द्रिका सुबोधिकावृत्ति (पत्र १२४) साबजीका उपाश्रय जयपुरमें है। इनके ही शिष्य विजयेन्द्र सम्वत १८३४ से पूर्व (सम्वत् है पर स्पष्ट नहीं हो पाया। सरिजी वर्तमान बीकानेर शाखाके श्री पूज्य हैं। शिवचंद्र (२४) कल्पसूत्रवालाववोध (२५) वीर भायु ७२ वर्ष बीके दूसरे शिष्य ज्ञान विशालजीके शिष्य अमोलकचंद और चद आर स्पष्टीकरण, सम्वत् १८३४ से पूर्व (२१)नेमि नवरसा(२७) उनके शिष्य विनयचन्द्र हुए । जो सम्बत् १९४१ तक गौदी छंद (गाथा १३६) (२८) प्रोसवानरास गा० १५४ विद्वान थे चित्तौड़के यति बालचंद्रजी उन्हींके प्रशिष्य (२६) नयनिक्षेपस्तवन गा०३२(३०)सहस्रकूटस्तवन । होंगे। अब महोपाध्याय रूपचन्द्रजीकी रचनाओंकी सूची महोपाध्याय रूपचन्द्रजीको रचनात्राका सूचा १७(३१)विवाहपडल (३२) वीर पंचकल्याणक स्तवन आम्दानुक्रमसे नीचे दी जा रहीं हैं (३३) स्तवनावली (३४) वैराग्य समाय(३५)साध्वाचार (१) समुद्रबद्ध कवित्त सम्बत् १७६७ विल्हावास में षटत्रिंशिका (३६) पारस्तवन सटीक (३७ श्रतदेवी रचित (२) जिनसुखसूरि मजलस सम्बत् १७७२ (३) स्तोत्र (श्लोक १६) (३८) विज्ञप्ति द्वात्रिंशिका गा० ३३ शतकत्रय बालावबोध, संबत् १७८८ कार्तिक वदि १३ (३६) ऋषभदेव स्तोत्र (४०) कुशजसूरि अष्टक आदिमोजत् (७) अमरूतक बालावबोध, सम्बत् १७६१ असो- अभी जयपुरके यति श्यामलालजीका संग्रह देखना दिन सोजत (१ समयसार बालावबोध सम्बत् १.. और बाकी है। तथा चित्तौड़ वाले यति बाबचन्द्रजीके For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२1 अनेकान्त [किरण गुरु भाइयोंका भी संग्रह देखने में पाया तो सम्भव है कि टीकामें अपने नामके आगे 'जी' विशेषण कभी महोपाध्याय रूपचन्दजीके और भी ग्रंथ उपलब्ध हो नहीं लिखते और टीकाका स्पष्टीकरण भी कुछ भिन्न जाय। तरहसे करते। संक्षेपमें जितनी जानकारी प्राप्त हई है प्रकाशमें लाई। प्रस्तुत संस्करणमें मूल ग्रन्थके समाप्तिके बाद टीकाजा रही है। विस्तारसे फिर कभी अवकाश मिला तो उप के रचना कालका सूचक पद्य भी छपा है उस पद्यके 'सत्रहस्थित करूंगा। सौ बीते परि बानुजा' वर्ष में जिस पाठ पर ध्यान न देकर (अनुपूर्ति) अर्थ करने में रचनाकाल सम्वत् १७०. सत्रहसौसे और - दो महीने हुए अभी-अभी नाथूरामजी प्रेमीसे रूपचंद छंदमय पथ सुबोध ग्रन्थ लिखके पूर्ण किया लिख दिया गया जी रचित समयसार टीकाका नया संस्करण ब्र. नन्दलाल है। जब कि पद्यमें वार्तिक वात रूप शब्द पाते हैं जिसका दिगम्बर जैनग्रन्थमाला भिंडसे प्रकाशित होनेकी सूचना अर्थ 'भाषामें गद्य टीका' होता है। पारिवानुवा पाठका मिली। ता. ६ अगस्तको रोडयो प्रोग्रामके प्रसङ्गसे दिल्ली सन्धि विच्छेद परिवानु और 'श्रा' अलग छपनेसे उनके जाना हुना, तो दिल्ली हिन्दू कॉलेजके प्रो० दशरथ शर्माके शन्दोंकी ओर ध्यान नहीं गया प्रतीत होता है। टीकाकारके संग्रहीत पुस्तकोंमें इसकी प्रति देखने में आई इस संस्करण परिचायक प्रशस्ति पद्य भी लेखन पुस्तिकाके बाद छापने में भी वही भ्रम दुहराया गया है। इसके मुख पृष्ठ पर के कारण रचयितासे सम्बन्धित सारी बातें स्पष्ट होने परभी रूपचन्दजीको 'प्रांडे' लिखा है। प्रस्तावनामें पं० झम्मन- सम्पादकका उस ओर ध्यान नहीं गया उन दो सवैयोंमें बालजी तर्कतीर्थने इन्हें बनारसीदासजीके गुरु पंचमंगल- टीकाकारने अपनेको क्षेम शाखाके सुख वर्धनके शिष्य दयाके रचयिता बतलाया है। पर इस भाषा टीकाके शब्दों सिंहका शिष्य बतलाया है। खरतर गच्छके प्राचार्य जिन एवं अन्तकी प्रशस्ति पद्योंपर जराभी ध्यान देते तो इसके भक्ति सूरिके राज्यमें सोनगिरिपुरमें गंगाधर गोत्रीय नथरचयिता पांडे रूपचन्दजीसे भिन्न खरतरगच्छीय रूपचन्दजी मलके पुत्र फतेचन्द पृथ्वीराजमें से फतेचन्दके पुत्र जसरूप, हैं, यह स्पष्ट जान लेते । देखिये पृ.५६८,२८० में टीका जगन्नाथमेंसे जगनाथके समझानेके लिये वह सुगम विवकारने श्वेताम्बर होनेके कारण ही ये शब्द लिखे हैं 'साधुके रण बनाया गया लिखा है। २८ मूल गुण कहे सो दिगम्बर सम्प्रदाय हैं। . वास्तव में पांडे रूपचंदजीका स्वर्गवास तो अर्ध कथा२. अप्रमत्त गुणस्थानके कथनको 'ये कथन दिगम्बर नकके पद्यांक ६३५के अनुसार सम्बत् १६६२से १४के बीच सम्प्रदायको है' लिखा है। पृ०६१०.६.१ में जिस पद्य में हो गया, सिद्ध होता है । यह टीका उनके सौ वर्षके बनारसीदासजीने पण्डित रूपचन्दका उल्लेख कियाहै उसकी पश्चात् खरतरगच्छके यति महोपाध्याय रूपचन्दने बनाई टीका करते हुए रूपचन्द नामके मागे 'जी' विशेषण दिया है। भविष्यमें इस भ्रमको कोई न दुहराये इसीलिये मैंने है और केवल मूल गत उल्लेख को ही दुहरा दिया यह विशेष शोधपूर्ण लेख प्रकाशित करना आवश्यक है। यदि इसके रचयिता पांडे रूपचन्दजी होते तो समझा । " 'समयसारकी १५ वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी नामका सम्पादकीय लेख सम्पादकजीके बाहर रहने आदिके कारण, इस किरणमें नहीं जा रहा है । वह अगली किरणमें दिया जावेगा। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और जैन संस्कृतिका प्रसार तथा एक चेतावनी--- भाइयो और बहनो, खरबों रुपए खर्च कर रहे हैं। उन्हें क्या कमी थी पर युग अब बदल गया है और बड़ी तेजीसे संसार- नहीं । सद्भावना, सदिच्छा और व्यापक समर्थन ही जीने का सब कुछ बदल रहा है। लोगोंकी विचारधारामें बड़ा (Life and living) का तस्व, अमृत और कुंजी भारी परिवर्तन हो गया है और होता जारहा है। समय- है। इसीलिए वे प्रचारमें अपनी सारी शक्ति लगा कर की जरूरत और मांगके अनुकूल अपना रवैया और रीति- लगे हुए हैं। जैमियोंको भी अपने सिद्धान्तकी वैज्ञानिनीति बनाना और वैसा ही पाचरण एवं व्यवहार वर्तना कता, सत्यता, समीचीनता, व्यावहारिकता इत्यादिका ही बुद्धिमानी कही जा सकती है। देशों, जातियों, समाजों प्रचार व्यापक रूपमें करना होगा। यदि वे निकट भविष्य में और सम्प्रदायोंके पतन इसी कारण हुए कि वे समयकी स मयकी आने वाले समयमें, अपनी संस्कृतिकी, अपनी स्वयंकी समानतामें अपनेको नहीं ला सके। संक्षेप में जैनियोंकी और अपनी धार्मिक संस्थाओं, तीर्थों एवं पूज्य प्रतिमाओंवर्तमान हालत वैसी ही हो रही है। हमारे पूर्वज समयकी की सुरक्षा सच्चे दिलसे चाहते हैं और यह नहीं पसन्द करते हैं कि आगे चल कर उनकी निष्क्रियता और अन्यहैं परन्तु बौद्धोंका नाम भारतमें न रहा। अपने पूर्वजोंकी, मनस्कताके कारण-उन्हींके अपने दोषोंके कारण उनके इस दीर्घ दशिताको हम भूल रहे हैं। यह एक महा अपने नाम और निशान भी लोप हो जाय, बाकी न रह भयंकर बात है जिसका परिणाम हम अभी नहीं सोच, जांय । जैनियोंके सारे सार्वजनिक कालेज, स्कूल, धर्मार्थसमझ और जान रहे हैं। यदि यही हालत बनी रही; चिकित्सालय, धर्मशालाए, मन्दिर इत्यादि और अब तक हमारी निष्क्रियता नहीं छूटी एवं हम संसारकी समस्याओं की अपार दानशीलता एकदम व्यर्थ जायगी यदि भबसे और परिस्थितियोंसे अपनेको अलग, दूर और उदासीन भी समयकी मांगके अनुसार व्यापक प्रचारको हाथमें नहीं ही रखते रहे तो इससे आगे चल कर बड़ा भारी अनिष्ट लिया गया । चेतना जीवन है और निष्क्रियत्म विनाश या होगा। भले ही इस बात और चेतावनी (Warming) मृत्यु । जागरण और जागृति तो कुछ हमारेमें है पर की महत्ताको हम सममें या न सममें, जानें या न जाने, हमारी शक्तियाँ उचित दिशामें नहीं लगाई जा रही हैं। अथवा जान बूझ कर भी अनजाने बने रहें यह दूसरी बात यही खराबी है। है। अनजान बने रहनेसे तो फलमें कमी नहीं पा सकती। विश्वव्यापी प्रचारकी एक ऐसी संस्था बनाई जानी हम अपने पैरों अपने आप कुल्हादी मार रहे हैं। ये लक्षण चाहिए जिसमें श्वेताम्बर, दिगम्बरादि सभी बिना किसी अच्छे नहीं-हानिकारक है व्यक्तिके लिए भी और समाज मत भेदके सम्मिलित शक्ति लगा कर जोर शोरसे कार्य एवं देश और मानवताके लिए भी। प्रारम्भ करदें-तभी कुछ अच्छा फल निकल सकता है। यह प्रचारका युग है। देश और विश्वके जनमतको काफी देर हो चुकी है, यदि हम अब भी नहीं चेते तो अपने पक्षमें लाना और अपना प्रशंसक बनाना अपने उद्धार या रक्षाका उपाय बादमें होना सम्भव नहीं रह अस्तित्वकी सुरक्षा और विरोध या कटुतारहित उन्नतिके जायगा। खिए भावश्यक है । तथा संसारके धनी और शक्तिशाली विश्वकी जनतामें मानव-समानताकी भावना और देश भी, जिन्हें कोई कमी नहीं और जिन्हें बाहरी सहा- स्वाधिकार प्राप्तिकी चेष्टा दिन दिन बढ़ती जाती है। दबा यताकी अपेक्षा नहीं, संसारकी जनताका सौहार्द, प्रशंसा, हुआ वर्ग सचेत, सजग, सज्ञान हो गया है और अधिकासहानुभूति एवं सहयोग पानेके लिए अपनेको एवं अपनी धिक होता जा रहा है। सभी मानवोंका सुख दुख और नीतिको सर्व जनप्रिय बनानेके लिए ही प्रचारमें भरखों जीवनकी पावश्यकताएँ समान है एवं पृथ्वी और प्रकृति For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] अनेकान्त [किरण पर हर मानवका, मानव रूप में जन्म लेनेके कारण रहने कुछ हो सकता है और भविष्य उज्ज्वत एवं प्राशापूर्व और उन्नति करनेका समान हक है, ऐसी भावना दिन दिन बनाया जा सकता है। प्रबल होती जा रही है। जैनदर्शन, धर्म और सिद्धान्त श्री कामताप्रसादजी समाजके प्राचीन इतिहासक भी यही शिक्षा देते हैं और जैनियोंका सारा धार्मिक एवं और एक सच्चे लग्नशील कार्यकर्ता हैं। उन्होंने विश्वसामाजिक निर्माण और व्यवस्थाएं इसी आदर्शको लेकर जैन मिशन' नामकी संस्था स्थापित और चालू करके संस्थापित हुई है। केवल जैनधर्म ही ऐसा धर्म है जो एक बड़ी कमीको पूर्तिको है। इस संस्थाने थोदे ही समय'मनुष्यकी पूर्णता' को ही सर्वोच्च ध्येय या श्रादर्श मानता में थोड़े रुपये में ही बड़ा भारी काम किया है । पर समाज और प्रतिपादित करता है। बाको दूसरे लोग 'देवस्व' को की उदासीनताके कारण इसे जितनी आर्थिक मदद मिलनी ही प्रादर्श मानते हैं जो संसारकी सबसे बड़ी ग़लती चाहिए थी उसका शतांश भी नहीं मिल सका। यह रही है। तीर्थंकरको मानवकी पूर्णताका सर्वोच्च एवं संस्था दिगम्बर, श्वेताम्बरके भेद भावोंसे तथा दूसरे सर्वोगपूर्ण उत्तम प्रादर्श माना गया है। इसी प्रादर्शके मगहोंसे मुक्त हैं। इसके कार्यको आगे बढ़ाना हम सभी व्यापक विस्तार, प्रचार और प्रप्तरणसे हो मानव-मात्रका नियोंका कर्तव्य तो है ही-हमें अपनी रक्षा और अपने सध्या कल्याण हो सकता है। अहिंसा और सत्य तो तीर्थों, संस्थाओं और संस्कृतिकी रक्षाके लिए इस वर्तमान इसीकी दो शाखाएं हैं, जिनका भी शुद्ध विकास जैन प्रचार युगमें तो अत्यन्त जरूरी और 'अनिवार्य सिद्धान्तोंमें ही परस्पर विरोधी रूपसे पूर्णताको प्राप्त हो गया है। होता है । मानव-कल्याणकी कामनासे भी और स्वकल्याण . संसारमें युद्धकी विभीषिकाको समाप्त करना, हिंमा, की भ्रमरहित भावमासे भी हमारा यह पहला कर्तव्य है खूनखराबीको दूर करना और सर्वत्र सुख शान्ति स्थापित कि हम इन सच्चे विश्व-कल्याणकारी सिद्धान्तोंका विश्व- करना हमारा ध्येय और कर्तव्य है-इसलिए भी हमें व्यापक प्रचार अपनी पूरी शक्ति लगा कर करें । अन्यथा इस कल्याणकारी संस्थाकी हर प्रकारसे तन मन धनसे हभ मिट जायेंगे और हमारी सारी दूसरी सुकृतियाँ मिट्टी- पूर्ण शक्ति एवं खुले दिलसे सहायता करना और कार्यको में मिल जायेंगी, बेकार हो जायेंगी-किसी काममें नहीं आगे बढ़ाना हमारा अपना पहला काम है और जरूरी श्रावेंगी। सावधान । उठो, जागो और काममें लग है। आशा है कि हमारे जैन भाई इस समयानुकूल चेताजाओ। अब अधिक देर करना अथवा अनिश्चितताकी वनी ( Timely warning ) और इस प्रथम प्राव दीर्घसूत्रीदशा विनाशकारक होगी। अब तक जो ग़लती श्यकताकी भोर गम्भीर ध्यान देंगे। या ढिलाई इस काममें हो गई सो हो गई। अबसे भी - अनन्तप्रसाद जैन संयोजकयदि सच्ची नगनसे काममें लग जाय तो अभी भी बहुत विश्व जैन मिशन पटना विवाह और दान डा. श्रीचन्दजी जैन संगल सरसावा निवासी हाल एटाके सुपुत्र चि. महेशचन्द बी. ए. का विवाह-संस्कार इटावा निवासी साह टेकचन्द फतहचन्द जी जैन सुपुत्री चि. राधा रानीके साथ गत ता. ७ दिसम्बरका जैन विवाह विधिसे सानन्द सम्पन्न हुआ। इस विवाहकी खुशीमें डा० साहबने ३६१) रु. दानमें निकाले, जिनमेंसे ११.) रु. इटावाके जैन मन्दिरोंको (अलावा छत्र- चवरादि सामानको) दिये गये, शेष २११) ह. निम्न जैन संस्थाओं तथा मन्त्रों को भेंट किये गये: २०१) वीरसेवामन्दिर सरसावा-दिल्ली, जिसमें ५०) रु० 'अनेकान्त' की सहायतार्थ शामिल है। १५)सरी संस्थाएँ-श्री महावीरजी अतिशयक्षेत्र, स्याहाद महाविद्यालय काशी, ऋषभब्रह्मचर्याश्रम मथुरा. उ० प्रा० दि० गुरुकुल हस्तिनागपुर, बाहुबलि ब्रह्मचर्याश्रम बाहुबली (कोल्हापुर), जैन कन्या पाठशाला सरसावा समन्तभद्र विद्यालय जैम अनाश्रम देहली, प्रत्येक को ५) रुपये। ११) अनेकान्त भिर दूसरे पत्र-जैन मित्र, जैन सन्देश, अहिंसावाणी, प्रत्येक को १) रुपये। वीरसेवामन्दिरको जो २०१) रुपयाकी सहायता प्राप्त हुई है उसके लिये डाक्टर साहब धन्यवाद के पात्र हैं। For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी तीर्थ यात्रा संस्मरण (गत किरण छः से भागे ] कोल्ह पुर दक्षिण महाराष्ट्रका एक शक्तिशाली नगर कई शिलालेख पाये जाते हैं, जो जैनियोंके गत गौरवके रहा है इस नगरका दूसरा नाम शुल्लकपुर शिलालेखोंमें परिचायक हैं। उनसे उनकी धार्मिक भावनाका भी संकेत बल्लिखित मिलता है। कोल्हापुरका प्रतीत गौरव कितना मिलता है। ये शिलालेख, मूर्ति लेख मन्दिर और प्रशसमृद्ध एवं शक्ति सम्पन्न रहा है इसकी कल्पना भी आज स्तियाँ श्रादि सब पुरातन सामग्री जैनियोंके अतीत गौरवकी एक पहेली बना हुआ है। कोल्हापुर एक अच्छी रियासत स्मृति स्वरूप हैं। पर यह बड़े खेदके साथ लिखना पड़ता थी जो अब बम्बई प्रान्तमें शामिल कर दी गई है। यह है कि कोल्हापुर राज्यके कितने ही मन्दिरों और धार्मिक नगर 'पंचगंगा नदीके किनारे पर बसा हया है। और स्थानों पर वैष्णव-सम्प्रदायका कब्जा है अनेक आज भी समृद-सा लगता है । परन्तु कोल्हापुर स्टेटके मन्दिरोंमें शिवकी पिण्डी रख दी गई है। ऐसा उपद्रव कब मूर्ति और मन्दिरोंके वे पुरातन खण्डहरात तण साम्प्रदा- हुश्रा इसका कोई इतिवृत्त मुझे अभीतक ज्ञात नहीं हो यिक उथल-पुथल रूप परिवर्तन हृदयमें एक टीस उत्पन्न सका । कोल्हापुरसे ५ मील अलटाके पास पूर्वकी ओर एक किये विना नहीं रहते, जो समय-समय पर विद्यार्थियों द्वारा प्राचीन जैन कालिज ( Jain College) था जिस पर उत्पातादिके विरोध स्वरूप किए गए हैं। कोल्हापुर स्टेटमें ब्राह्मणोंने अधिकार कर लिया है। कितने ही कलापूर्ण दिगम्बरीय मन्दिर शिव या विष्णु इसी तरह अंबाबाईका मन्दिर, नवग्रह मन्दिर और मंदिर बना दिये गए हैं। और कितने ही मन्दिर और शेषशायी मन्दिर में तीनों ही मन्दिर प्रायः किसो समय मूर्तियाँ नष्ट-भ्रष्ट करदी गई हैं। कोल्हापुर कितना प्राचीन जैनियोंकी पूजाको वस्तु बने हुए थे। इनमेंसे अंबाबाईका स्थान है इसका कोई प्रमाणिक उल्लेख अथवा इतिवृत्त मन्दिर पद्मावती देवीके लिए बनवाया गया था । कोल्हामेरे अवलोकन में नहीं पाया । परन्तु सन् १८८० में पुरके उपलब्ध मन्दिरोंमें यह मन्दिर सबसे बड़ा और एक प्राचीन बड़े स्तूपके अन्दर एक पिटारा प्राप्त हुआ था, महत्वपूर्ण है। यह मंदिर पुराने शहरके मध्यमें है । और जिसमें ईस्वीपूर्व तृतीय शताब्दीके मौर्यसम्राट अशोकके कृष्णपाषाणका दो खनका बना हुमा है। यहांके निवासी समयके अक्षर ज्ञात होते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैनीलोग इस मन्दिरको अपना मन्दिर बतलाते हैं। इतना कोल्हापुर एक प्राचीन स्थल है। ही नहीं, किन्तु मन्दिरकी भीतों और गुंबजों पर बहुतसी इस राज्यको सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कोल्हा नग्न मूर्तियां और लेख अब भी अंकित हैं. जिनसे स्पष्ट पुर राज्यमें इत्तीस हजार जैन खेतिहर (कृषक) हैं. जो प्रमाणित होता है कि यह मन्दिर जैन संघका है। उक्त अपनी स्त्रियोंके साथ खेखीका कार्य करते हैं। ये खेतिहर मंदिरोंके पाषाण स्थानीय नहीं हैं किन्तु वे दूसरे स्थानोंसे अपने धर्मके सर उपासक और नियमोंके संपालक है, बाकर लगाये गये हैं। उनमें कलात्मक खुदाईका काम तथा पदेहीमानदार है। वह अपने मगढोंको अदालतों- किया हुधा है, जो दर्शकको अपनी भोर अकृष्ट किए विना में बहुत ही कम ले जाते है। इतना ही नहीं किन्तु अप- नहीं रहता। राध बनजाने पर भी वे अपना निपटारा पाप ही कर लेते कोल्हापुरके पास-पास बहुतसी सण्डित जैनमूर्तियाँ हैं। वे प्रकृतितः भद्र भोर साहसी एवं परिश्रमी हैं, उन्हें उपलब्ध होती हैं। मुसलमान बादशाहोंने १३वीं वीं अपने धर्मसे विशेष प्रेम है। कोल्हापुर राज्यके पास-पास शताब्दीमें अनेक जैनमन्दिर तोरे और मूर्तियोंको खंडित स्थानों में जैनियोंने अनेक मन्दिर बनवाए है जिनमेंसे किया। जिससे उनका यश सदाके लिए कलंकित हो गया। कितने ही मन्दिर पाज भी मौजूद हैं। यहाँ पर शक संवत् जब म लोग ब्राह्मपुरी पर्वत पर अंबाबाईका मंदिर का १०५८ (विक्रम सम्बत् ११३) से लेकर शक सम्बत् 11- रहे थे। उसी समय राजा जयसिंहने अपना एकविसी, ५८ (विक्रम सम्बत् १२९३) तकके उत्कीर्ण किये हुए बनवाया था। कहा जाता है कि यह सभाको For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] अनेकान्त [किरण ७ --- पश्चिम मील दूर बीडनामक स्थानपर किया कोल्हापुरसे उत्तरमें दस मील दूर वर्ती एक नगर है करता था । जिसका नाम वदगांव है। यहां एक जैन मन्दिर है। जिसे ईसाकी १२वीं शताब्दीमें कोल्हापुरमें कलचूरियोंके पादप्पा भग सेठीने सन् १६६६ में चालीस हजार रुपया साथ जिन्होंने कल्याणके चालुक्योंको पराजित कर दक्षिण खर्च करके बनवाया था। देशपर अधिकार करलिया था। चालुक्यराजामौके साथ इसी तरह कोल्हापुर स्टेटमें और भी अनेक ग्रामों में शिलाहार राजाओंका एक युद्ध हुआ था। उस समय सन्- प्राचीन जैन मन्दिरोंके बनाये जानेके समुल्लेख प्राप्त हो १७६ (विक्रम सं० १३१४) से १२०६ (वि० सं० १३. सकते हैं। कोल्हापुर और उसके मास-पासमें कितनेही १४ में शिलाहारराजा भोज द्वितीयने कोल्हापुरको अपनी शिलालेख और मूर्तिलेख है जिनका फिर कभी परिचय राजधानी बनाया था। और वहमनी राजाओंके वहाँ पाने कराया जावेगा। तक कोल्हापुर में उन्हींका राज्य रहा। इस नगरमें चार शिखर बंद मंदिर हैं और तीन चैत्या. इस प्रदेशपर अनेक राजवंशोंने-अश्वभृत्य, कदम्ब, लय है । दिगम्बर जैनियोंकी गृह संख्या दिगम्बर जैन राष्ट्रकूट, चालुक्य, और शिलाहार राजाओंने-राज्य किया डायरेक्टरीके अनुसार २०१ और जन संख्या १०४६ है। है। चालुक्यराजाओंसे कोल्हापुर राज्य शिलाहार राजाओं वर्तमानमें उक संख्यामें कुछ हीनाधिकता या परिवर्तन ने छीन लिया था। १३वीं शताब्दीमें शिलाहार नरेशोंका होना सम्भव है । शहरमें यात्रियोंके ठहरनेके लिये दो धर्मबत्न अधिक बढ़ गया था, इसीसे उन्होंने अपने राज्यका शालाएं हैं जो जैन मन्दिरोंके पास ही है । एक दिगम्बर यथेष्ट विस्तार भी किया । ये सब राजा जैनधर्मके उपासक नैन बोडिंग हाउस भी है, उसमें भी यात्रियोंको ठहरनेकी थे। इन राजाओंमें सिंह, भोज, बल्लाल, गंडरादित्य, सुविधा हो जाती है। विजयादित्य और द्वितीय भोज नामके राजा बड़े पराक्रमी जैन समाजके सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् डाक्टर और वीर हुए हैं जिन्होंने अनेक मंदिर बनवाए और ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् ठक्त जैन बोर्डिङ्ग उनकी पूजादिके लिए गांव और जमीनोंका दान भी हाउस में ही रहते हैं। आप स्थानीय राजाराम कालिजमें दिया है ! प्राकृत और अर्धमागधीके अध्यापक हैं । बड़े ही कोल्हापुरके 'आजरिका' नामक स्थानके महामण्ले- मिलनसार और सहृदय विद्वान हैं, जैन साहित्य और श्वर गण्डरादित्यदेवद्वारा निर्मापित त्रिभुनतिलक नामक इतिहासके मर्मज्ञ, सुयोग्य विचारक, लेखक तथा अनेक चैत्यालयमें शक सं० ११२७ (वि. स. १२६२) में ग्रन्थोंके सम्पादक है। आप अध्यापन कार्यके साथ-साथ मूलसंघके विद्वान मेषचन्द्र विद्यदेवके द्वारा दीक्षित सोम साहित्य सेवामें अपने जीवनको लगा रहे हैं । श्रीमुख्तार देव मुनिने शब्दार्शवचन्द्रिका नामक वृत्ति रची थी, जो साहब और मैंने आपके यहां ही भोजन किया था । आप प्रकाशित हो चुकी है। उस समय अन्य कार्य में अत्यन्त व्यस्त थे, फिरभी आपने शिलाहार राजा विजयादित्यके समयका एक शिला चर्चाके लिये समय निकाला यह प्रसन्नता की बात है। लेख वमनी ग्राममें शक सम्वत् १०७३ वि० सं० १२०८ मापसे ऐतिहासिक चर्चा करके बड़ी प्रसन्नता हुई। समाजका प्राप्त हुआ है, जो एपिग्राफिका इंडिकाके तृतीयभागमें को आपसे बड़ी प्राशा है। आप चिरायु हों यही हमारी मद्रित हना है, यह लेख ४४ लाइनका पुरानी कनदी मंगल कामना है। संस्कृत मिश्रित भाषामें उत्कीर्ण किया हुआ है, जिसमें कोल्हापुरमें भट्टारकीय एक मठ भी है, और भट्टारकबतलाया गया है कि राजाविजयादित्यने चोडहोर-काम- नी भी रहते हैं। उनके शास्त्रभंडारमें अनेक ग्रन्थ हैं। गावुन्द नामक ग्रामके पार्श्वनाथके दिगम्बर जैन मन्दिरकी अभी उनकी सूची नहीं बनी है। केशववर्णीकी मोम्मटअष्टद्रग्यसे पूजा व मरम्मतके लिये नावुक गेगोल्ला जिलेके सारको कर्नाटकटीका इसी शास्त्रभंडारमें सुरक्षित है, मूदलूर ग्राममें एक खेत और एक मकान श्रीकुन्दकुन्दाम्बवी और भी कई ग्रन्थों की प्राचीन प्रतियां अन्वेषण करने पर श्रीकुलचन्दमुनिके शिष्य श्रीमाधनन्दिसिद्धांत देवके शिष्य इस मंडार में मिलेंगी । यहाँका यह मठ प्राचीन समयसे श्रीबाईनन्दि सिद्धान्तदेवके. चरम भोकर दान दिया। प्रसिद्ध है। यहां पर पं. माशापरजीके शिष्य वादीन्द्र For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण [२३७ विशालकीर्तिभी.रहे हैं। कोल्हापुरसे चलकर हम लोग अतः खारा पानीका ही उपयोग करना पड़ा। और भोज स्तवनिधि पहुँचे। नादिसे निवृत्त हो कर ३ बजेके करीब हमलोग चन्नराय स्तवनिधि दक्षिण प्रांतका एक सुप्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र पहनके लिए चल दिये । और ॥ बजेके करीब चन्नराय है। यहां चार मन्दिर व एक मानस्तम्भ है। मन्दिरके पट्टन पहुँच गए। और चंचराय पट्टनसे ८॥ बजे चलकर , पीछेके अहातेकी दीवाल गिर गई है जिसके बनाये जानेकी बजेके करीब श्रवणबेल्गोन (श्वेतसरोवर) पहुँच गए, रास्तेभावश्यकता है। यहां लोग अन्य तीर्थक्षेत्रों की भांति मान- मेंचलते समय श्रवणवेल्गोल जैसे २ समीप आता जाता मनौती करनेके लिये आते हैं। उस समय एक बरात आई था। उस लोकप्रसिद्धमूर्तिका दूरसे ही भव्य दर्शन होता हुई थी, मन्दिरोंमें कोई खास प्राचीन मूर्तियां ज्ञात नहीं जाता था। और गोम्मटेश्वर की जयके नारोंसे प्रकाश गूंज हुई। यह क्षेत्र कब और कैसे प्रसिद्धि में पाया । इसका कोई उठता था रास्तेका दृश्य बड़ाही सुहावना प्रतीत होता इतिवृत्त ज्ञात नहीं हुमा । हम लोग सानंद यात्रा कर था। और मूर्तिके दूरसे ही दर्शन कर हृदय गद्गद् हो बेलगांव और धारवाड होते हुए हुबली पहुँचे । और रहा था। सभीके भावोंमें निर्मलता, भावुकता और मूर्तिके हबलीसे हरिहर होते हुए हमलोग दावणगिरि पहुँचे । सेठ समीपमें जाकर दर्शन कर अपने मानवजीवनको सफल जीकी नूतन धर्मशालामें ठहरे । धर्मशालामें सफाई और बनानेकी भावना अंतरमें स्फूर्ति पैदा कर रही थी, कि पानीकी अच्छी व्यवस्था है। नैमित्तिक क्रियाओंसे इतनेमें श्रबण बेलगोल भा गया । और मोटर अपने निवृत्त होकर मंदिरजीमें दर्शन करने गये। यह मंदिर अभी निश्चित स्थान पर रुकगई। और सभी सवारियाँ गम्मट बनकर तय्यार हुआ है। दर्शन-पूजनादि देवकी जयध्वनिके साथ मोटरसे नीचे उतरीं । और यही करके भोजनादि किया और रातको यहां ही पाराम किया, निश्चय हुआ कि पहले ठहरनेकी व्यवस्था करने बादमें सब और सबेरे चारबजे यहांसे चलकर एक बजेके करीब पार- कार्योंसे निश्चिंत होकर यात्रा करें । अतः प्रयत्न करने पर सीकेरी पहुँचे, वहाँ स्नानादिसे निवृत्त हो मन्दिरजीमें दर्शन गाँव में ही एक मुसलमानका बड़ा मकान सौ रुपयेके किये । पार्श्वनाथकी मूर्ति बड़ी ही मनोज्ञ है। एक शिला- किराये में मिल गया और हमलोगोंने " बजे तक लेख भी कनाड़ी भाषामें उत्कीर्ण किया हुआ है। यहां सामानश्रादिकी व्यवस्थासे निश्चित होकर स्थानीय समय अधिक हो जानेसे मीठे पानीके नल बंद हो चुके थे, मन्दिरोंके दर्शनकर पाराम किया । क्रमशः परमानन्द जैन विवाह और दान .. श्रीलाला राजकृष्णजी जैनके लघु भ्राता लाला हरिश्चन्द्रजी जैनके सुपुत्र बाबू सुरेशचन्द्रका विवाह मथुरा निवासी रमणलाल मोतीलालजी सोरावाओंकी सुपुत्री सौ. सुशीला कुगारीके साथ जैन विधिसे सानन्द सम्पन्न हुआ। वर पक्षकी पोरसे १०००) का दान निकाला गया, जिसकी सूची निम्न प्रकार है:१०.) वीर सेवा मन्दिर, जैन सन्देश, ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम, मथुरा, अग्रवाल कालेज मथुरा अग्रवाल कालेज मथुरा, ___ अग्रवाल कन्या पाठशाला मथुरा प्रत्येक को एक सौ एक। २१) वाली संस्थाएं स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस, उदासीनाश्रम ईसरी, अम्बाला कन्या पाठशाला, समन्द्रभद्र विद्यालय २५) जैन महिलाश्रम, देहली । अग्रवाल धर्मार्थ औषधालय, मथुरा, गौशाला मथुरा प्रत्येक को २५) २१) मन्दिरान मथुरा, जयसिहपुरा, वृन्दावन चौरासी, घिया मंडी, और घाटी। जैन अनाथाश्रम देहली। . . प्राचार्य नमि सागर औषधालय देहली हर एक को इक्कीस। ' ११) वाली संस्थाएं और पद जैन बाला विश्राम भारा, मुमुच महिलाश्रम महावीर जी, जैनमित्र सूरत । ७) परिन्दोंका हस्पताल, मालमन्दिर, देहली। १) अनेकान्त, जैन महिलादर्श, अहिंसा, वीर, जैन गजट देहली, प्रत्येक को पांच । :) मनियाडर फीस । वीरसेवान्दिरको जो १.१) रुपया विडिग फंडमें और अनेकान्त को १) रुपया जो सहायतार्थ प्रदान किये हैं। उसके लिये दातार महोदय धन्यवादके पात्र हैं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य परिचय और समालोचन तीर्थकर व मान-लेखक श्री रामचन्द्रजी सम- है। अबकी बार समुद्र त बाक्योंके नीचे उस ग्रन्थका नाम पुरिया बी. कॉमरी. एल. । प्रकाशक, हम्मीरमस पूनम मय उद्देशादिके दे दिया गया है। प्रस्तावना डाक्टर भयचन्द गमपुरिया, सुजामगढ़ (बीकानेर) | पृष्ठ संख्या वाम दासजीने लिखी है। पाई-सफाई अच्छी है। ४७० । मूल्य सजिल्द प्रतिका २) रुपया। कुण्डलपुर लेखक'नीरज' जैन । प्रकाशक पं. मोहनबाल के जन शास्त्री, पुरानी चरहाई जबलपुर (मध्यप्रदेश) इस पुस्तकमें तीर्थंकर बद्ध मानका श्वेताम्बरी मान्यतान- पृष्ठ संख्या २८ मूल्य पांच पाना। सार परिचय दिया गया है। इस पुस्खकके दो भाग अथवा ' प्रस्तुत पुस्तकमें 'नीरज' जीने १२ लखित पचों में खण्ड हैं। जिनमेंसे प्रथममें महावीरका जीवन परिचय है कुण्डलपुर क्षेत्रका परिचय देते हुए वहां की भगवान् और दूसरे में उत्तराध्ययनादि सूत्र-ग्रंथोंपरसे उपयोगी महावीर की उस सातिशय मूतिका परिचय दिया है। विषयोंका संकलन सानुवाद दिया गया है और उन्हें शिक्षा- कविता सुन्दर एवं सरल है। और पढ़ने में स्फूर्ति दायक पद, निग्रन्थपद, दर्शनपद और कान्तिपदरूप चारविभागों- है। कविता के निम्न पचीको देखिये जिनमें कविने में यथाक्रमविभाजित करके रक्खा है। इन दोनों में जो मूर्ति भंजक औरंगजेब की मनोभावमा का, जो टाकीलेकर सामग्री दी गई है वह उपयोगी है। मूर्तिके भंग करने का प्रयत्न करने वाला था___ परन्तु यह खास तौरसे नोट करने लायक है कि तीर्थकर वदमानका जीवन परिचय अपनी साम्प्रदायिक सबसे आगे औरंगजेब, करमें टाँकी लेकर आया। मान्यतानुसार ही दिया गया है । उसमें कोई नवीनता पर जाने क्योंकर अक्स्मात उसका तन औ' मन पर्राया मालूम नहीं होती । यदि प्रस्तुत ग्रन्थमें भगवान महावोरके जीवनको असाम्प्रदायिक रूपसे रक्खा जाता वह वीतराग छवि निनिर्मेष, अब भी घेसी मुस्काती थी तो यह अधिक सम्भव था कि उससे पुस्तक उपयोगी ही थी अटल शाँति पर लगती थी-उसको उपदेश सुनाती थो नही होती, किंतु असाम्प्रदापी जनोंके लिए भी पठनीव और संग्रहणीय भी हो जाती। पुस्तकको प्रस्तावना सुन पड़ा शाहके कानोंमें, मिट्टीके पुतले सोच जरा, बाबू यशपालजीने लिखी है। यह अहङ्कार,धनधान्य सभी-कुछ,रह जावेगा यहीं धरा फिर भी श्रीचन्द्रजी रामपुरियाने उक्त पुस्तकको माल और उपयोगी बनानेका भरसक प्रयत्न किया है। 'जीवनकी धारामें अब भी, त परिवर्तन ला सकता है इसके लिए बे वधाईके पात्र हैं। पुस्तककी छपाई और अब भी अक्सर है भरे मूढ़,तू'मानव'कहला सकता है गेटअप, सुन्दर है। २महावीर वाणी-सम्पादक, पं वेचरदासजी दोशी, अहमदाबाद । प्रकाशक, भारत कैन महामण्डल वर्धा। सुनकर कुछ चौंका बादशाह, मस्तक भन्ना या सारा पृष्ठ संख्या सब मिला कर २७०, साइज छोटा, मूल्य सवा अब तकके कृत्यों पर उसके, मनने उसको ही धिकारा दो रुपया। उक्त ग्रन्थका विषय उसके नामसे स्पष्ट है प्रस्तुत यह भ्रम था अथवा सपना थाया मेरीहो मतिभलीथी पुस्तक श्वेताम्बरीय सागम ग्रन्थोंपरसे उपयोगी विषयों- प्रतिमा कुछ बोली नहीं, किन्तु यह सदा-गैर मामूलीथा: का चयनकर उन्हें मानुवाद दिया गया है। और पीछेसे पुस्तक प्रकाशकसे मंगाकर पढ़ना चाहिये। उनका प्रथम परिशिष्टमें संस्कृत अनुवाद भी दे दिया गया -परमानन्द शास्त्री २८ For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] "विशालकीर्तिभी रहे हैं। कोल्हापुरसे चलकर हम लोग स्वनिधि पहुँचे । स्वनिधि दक्षिण प्रांतका एक सुप्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र है । यहां चार मन्दिर व एक मानस्तम्भ है । मन्दिर के पीछे अहाते की दीवाल गिर गई है जिसके बनाये जानेकी आवश्यकता है। यहां लोग अन्य तीर्थक्षेत्रों की भांति मानमनौती करनेके लिये आते हैं। उस समय एक बरात आई हुई थी, मन्दिरों में कोई खास प्राचीन मूर्तियां ज्ञात नहीं हुई। यह क्षेत्र कब और कैसे प्रसिद्धि में आया । इसका कोई इतिवृत्त ज्ञात नहीं हुआ । हम लोग सानंद यात्रा कर बेलगांव और धारवाड होते हुए हुबली पहुँचे । और हुबलीसे हरिहर होते हुए हमलोग द्रावणगिरि पहुँचे । सेठ जीकी नूतन धर्मशाला में उहरे । धर्मशाला में सफाई और पानीकी अच्छी व्यवस्था है । नैमित्तिक क्रियाओं से निवृत्त होकर मंदिरजी में दर्शन करने गये। यह मंदिर अभी कुछ वर्ष हुए बनकर तय्यार हुआ है । दर्शन-पूजनादि करके भोजनादि किया और रातको यहां ही आराम किया, और सबेरे चारबजे यहांसे चलकर एक बजेके करीब आरसीकेरी पहुँचे, वहाँ स्नानादिसे निवृत्त हो मन्दिरजी में दर्शन किये । पार्श्वनाथकी मूर्ति बड़ी ही मनोश है। एक शिला लेख भी कनाड़ी भाषामें उत्कीर्ण किया हुआ है। यहां समय अधिक हो जानेसे मीठे पानीके नल बंद हो चुके थे, हमारी तीर्थयात्रा के संस्मरण [ २३७ श्रतः खारा पानीका ही उपयोग करना पड़ा। और भोज नादिसे निवृत्त हो कर ३ बजेके करीब हमलोग चन्नराय के लिए चलदिये । और ७॥ बजेके करीब चराय पट्टन पहुँच गए। और चंनराय पट्टनसे ८॥ बजे चलकर बजेके करीब श्रवणबेलगोल (श्वेतसरोवर) पहुँच गए, रास्तेचलते समय श्रवणबेलगोल जैसे २ समीप श्राता जाता था। उस लोकप्रसिद्धमूर्तिका दूरसे ही भव्य दर्शन होता जाता था । और गोम्मटेश्वर की जय के नारोंसे प्रकाश गूंज उठता था रास्तेका दृश्य बड़ाही सुहावना प्रतीत होता था । और मूर्तिके दूर से ही दर्शन कर हृदय गद्गद् हो रहा था। सभी के भावोंमें निर्मलता, भावुकता और मूर्तिके । समीपमें जाकर दर्शन कर अपने मानवजीवनको सफल बनानेकी भावना अंतर में स्फूर्ति पैदा कर रही थी, कि इतनेमें श्रवण बेलगोल श्रा गया । और मोटर निश्चित स्थान पर रुकगई । और सभी सवारियाँ गम्मटदेवकी जयध्वनिके साथ मोटरसे नीचे उतरीं । और यही निश्चय हुआ कि पहले ठहरनेकी व्यवस्था करलें बादमें सब कार्योंसे निश्चिंत होकर यात्रा करें। अतः प्रयत्न करने पर गाँव में ही एक मुसलमानका बड़ा मकान सौ रुपये के किराये में मिल गया और हमलोगोंने ११ बजे तक सामानचादिकी व्यवस्थासे निश्चित होकर स्थानीय मन्दिरोंके दर्शनकर श्राराम किया । क्रमशः परमानन्द जैन विवाह और दान श्रीलाला राजकृष्णजी जैनके लघु भ्राता लाला हरिश्चन्द्रजी जैनके सुपुत्र बाबू सुरेशचन्द्रका विवाह मथुरा निवासी रमणलाल मोतीलालजी सोरावाओं की सुपुत्री सौ० सुशीला कुमारीके साथ जैन बिधिसे सानन्द सम्पन्न हुआ । वर पक्षकी ओरसे १००० ) का दान निकाला गया, जिसकी सूची निम्न प्रकार है : १०१) वीर सेवा मन्दिर, जैन सन्देश, ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम, मथुरा, अग्रवाल कालेज मथुरा अग्रवाल कालेज मथुरा, अग्रवाल कन्या पाठशाला मथुरा प्रत्येक को एक सौ एक । ५१) वाली संस्थाएं स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस, उदासीनाश्रम ईसरी, अम्बाला कन्या पाठशाला, समन्द्रभद्र विद्यालय २५) जैन महिलाश्रम, देहली। अग्रवाल धर्मार्थं श्रौषधालय, मथुरा, गौशाला मथुरा प्रत्येक को २५ ) २१) मन्दिरान मथुरा, जयसिंहपुरा, वृन्दावन चौरासी, घिया मंडी, और घाटी । जैन अनाथाश्रम देहली | आचार्य नमि सागर औषधालय देहली हर एक को इक्कीस । जैन मित्र ११) वाली संस्थाएं और पद जैन बाला विश्राम श्रारा, मुमुतु महिलाश्रम महावीर जी, ७) परिन्दोंका हस्पताल, बालमन्दिर, देहली । ५) अनेकान्त, जैन महिलादर्श, अहिंसा, वीर, जैन गजट देहली, प्रत्येक को पांच । ४) मनियाडर फीस । बीरसेवार्मान्दरको जो १०१ ) रुपया विल्डिंग फंडमें और अनेकान्त को ५) रुपया जो सहायतार्थं प्रदान किये हैं । उसके लिये दातार महोदय धन्यवादके पात्र हैं । For Personal & Private Use Only सूरत । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. D. & अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक 101) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता 1500) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता 101) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, 251) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी, 101) बा० काशीनाथजी, # 251) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू, 101) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी 251) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , 101) बा० धनंजयकुमारजी 251) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन ,, 101) बा० जीतमल जो जैन 251) बा० दीनानाथजी सरावगी 101) बा० चिरंजीलालजी सरावगी 251) बा० रतनलालजी झांझरी 101) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राचा 251) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , 101) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली 251) सेठ गजराजजी गंगवाल 101) ला० रतनलालजा मादीपुरिया, देहली 251) सेठ सुआलालजी जैन 101) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकर / 251) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी 101) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ 251) सेठ मांगीलालजी 101) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा 251) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन 101) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली 251) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया 101) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता 251) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर 101) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता 251) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली 101) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता 251) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली 101) बा० बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना 251) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली 101) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर 251) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर 101) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार 251) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद 101) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार 251) ला० रघुवीर सिंह जी, जैनावाच कम्पनी, देहली 101) कुँवर यशवन्तसिहजी, हांसी जिः हिसार 251) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजा जन, राचा 181) सेठ जोखीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता 5251) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर 101) श्रीमती ज्ञानवतीदेवी जैन, धर्मपत्नी सहायक 'वैद्यरत्न' आनन्ददास जैन, धर्मपुरा, देहली 101) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर 101) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली 101) ला० प सादीलाल भगवानदासजी पाटनी, दहली 101) बा० लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन 101) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' 101) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी , सरसावा, जि० सहारनपुर ५१२२माशयर. 3 प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री 1, दरियागंज देहली / मुद्रक-रूप-वाणी प्रिटिंग हाऊस 23, दरियागंज, देहली