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________________ तामिल - प्रदेशों में जैनधर्मावलम्बी (श्री प्रो० एम० एस० रामस्वामी आयंगर, एम० ए० ) श्रीमत्परमगम्भीर | स्याद्वादामोघलाव्च्छनम् । जीयात् - त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ भारतीय सभ्यता अनेक प्रकारके तन्तुओं से मिलकर बनी है। वैदिकोंकी गम्भीर और निर्भीक बुद्धि, जैनकी सर्वं ब्यापी मनुष्यता, बुद्धका ज्ञानप्रकाश, अरबके पैगम्बर ( मुहम्मद साहब) का विकट धार्मिक जोश और संगठन - शक्तिका हविडोंकी व्यापारिक प्रतिभा और समयानुसार परिवर्तन शीलता, इनका सबका भारतीय जीवन पर अनुप्रेम प्रभाव पड़ा है और आजतक भी भारतियोंके विचारों, कार्यों और कांच पर उनका अदृश्य प्रभाव मौजूद है । नये नये राष्ट्रोंका उत्थान और पतन होता है, राजे महाराजे विजय प्राप्त करते हैं और पददलित होते हैं; राजनैतिक और सामाजिक आन्दोलनों तथा संस्थाओं की उन्नतिके दिन भाते हैं और बीत जाते हैं । धार्मिक साम्प्रदायों और विधानोंकी कुछ कालतक अनुयायियों के हृदयों में विस्फूर्ति रहती है । परन्तु इस सतत परिवर्तनको क्रिमा भन्र्गत कतिपय चिरस्थायी लक्षण विद्यमान है, जो हमारे और हमारी सन्तानोंकी सर्वदाके लिए पैतृक सम्पत्ति है । प्रस्तुत लेख में एक ऐसी जातिके इतिहासको एकत्र करने का प्रयत्न किया जायेगा, जो अपने समय में उच्चपद पर विराजमान थी, और इस बात पर भी विचार किया जायेगा कि उससे जातिने महती दक्षिण भारतीय सभ्यताकी उन्नति में कितना भाग लिया है । जैन धर्म की दक्षिण यात्रा यह ठीक ठीक निश्चय नहीं किया जासकता कि तामिल प्रदेशोंमें कब जैनधर्मका प्रचार, प्राम्भ हुआ । सुदूर में दक्षिण भारतमें जैन धर्मका इतिहास लिखने के लिये यथेष्ट सामग्रीका अभाव है | परंतु दिगम्बरोंके दक्षिण जानेसे इस इतिहासका प्रारम्भ होता है । ध्रुवणा बेलगोला के शिलांलेश अब प्रमाणकोटी में परिणित हो चुके हैं और १३वीं शती में देवचन्द्र विरचित 'राजावलिये' में वर्गीि जैन इतिहास को अब इतिहासज्ञ विद्वान असत्य नहीं ठहराते । उपयुक दोनों सूत्रोंसे यह ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध भद्रबाहू ( श्रुत Jain Education International केवर्ली) ने यह देखकर कि उज्जैन में बारहुवर्षका एकभयं को दुर्भिक्ष होने वाला है, अपने १२००० शिष्योंके साथ दक्षिणकी ओर प्रयाण किया । मार्ग में श्रुतकेवलीको ऐसा जान पड़ा कि उनका अन्तसमय निकट है और इसलिए उन्होंने कटवपु नामक देशके पहाड़ पर विश्राम करनेकी आज्ञा दी । यह देश जन, धन, सुवर्ण, धन्न, गाय, भैंस, बकरी, आदिले सम्पन्न था। तब उन्होंने विशाख मुनिको उपदेश देकर अपने शिष्योंको उसे सौंप दिया और उन्हें चोल और पाण्ड्यदेशों में उसके आधीन भेजा 'राजावालकथे' में लिखा है कि विशाखमुनि तामिल प्रदेशों में गये, वहाँ पर जैच वैद्यालयोंमें उपासना की और वहांके निवासी जैनियोंको उपदेश दिया । इसका तात्पर्य यह है कि भद्रबा हुक्रे मरण (अर्थात् २६७ ई० पू० ) के पूर्व भी जैनी सुदूर दक्षिण में विद्यमान थे । यद्यपि इस बातका उल्लेख 'राजावलये' के अतिरिक्त और कहीं नहीं मिलता और न कोई अन्य प्रमाण हो इसके निर्णय करने के लिये उपलब्ध होता हैं, परन्तु जब हम इस बातपर विचार करते हैं कि प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय में विशेषतः उनके जन्म काल में प्रचारका भाव बहुत प्रबल होता है, तो शायद यह अनुमान अनु चित न होगा कि जैनधर्मके पूर्वतर प्रचारक पार्श्वनाथके संघ दक्षिणकी और अवश्य गये होंगे। इसके अतिरिक्त जैनियोंके हृदयों में ऐसे बुकांत वास करनेका भाव सर्वदा चला आया है। जहाँ वे संसारके मंझटों से दूर प्रकृतिकी गोदमें परमानन्दकी प्राप्ति कर सकें । अतएव ऐसे स्थानों की खोज में जैनीलोग अवश्य दक्षिणकी ओर निकल गये होंगे। माठ प्रांत में जो अभी जैनमन्दिरों, गुफाओं और हस्तियों के भग्नावशेष और घुस पाये जाते हैं वहीं उनके स्थान रहे होंगे । यह कहाजाता है कि किसी देशका साहित्य उसके निवासियोंके जीवन और व्यवहारोंका चित्र है। इसी सिद्धान्तके अनुसार तामिल साहित्य की ग्रन्थावली से हमें इस बात का पता लगता है कि जैनियोंने दक्षिण भारतकी सामाजिक एवं धार्मिक संस्थानोंपर कितना प्रभाव डाला है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527321
Book TitleAnekant 1953 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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