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________________ २२६/ ] अनेकान्त [किरण . कषाय कहते हैं यह कषाय ही बन्ध परिणतिका मूल भिनवेश रहित जीवादि तस्वार्थका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शनका कारण है। लक्षण है । जीव. अजीव. पाश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, योग-योगके अनेक दार्शनिकोंने भिन्न-भिन्न अर्थ मोक्ष यह सात तस्वार्थ हैं इनका जो श्रद्धान 'ऐसे ही हैं स्वीकार किये हैं। जैन-दर्शन उनमेंसे एकसे भी सहमत अन्यथा नाहीं' ऐसा प्रतीत भाव पो तत्वार्थश्रद्धान है नहीं है। वह मानता है कि मन, वचन, कायके, निमित्तसे बहुरि विपरीताभिनवेशका निराकरणके अर्थि 'सम्यक होने वाली प्रात्म-प्रदेशोंकी चंचलताको योग कहते हैं। पद कया है। जाते सम्यक्' ऐसा शब्द प्रशंसा वाचक इस दृष्टिसे जैन दर्शनमें योग शब्द अपनी एक पृथक परि है। सो श्रद्धान विषय विपरीताभिनवेशका अभाव भये भाषा रखता है, योगके १५ भेद हैं-चार मनोयोग, चार ही प्रशंसा संभव है। ऐसा जानना .." वचनयोग और सात काययोग। सम्यग्ज्ञान-पदार्थके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान इन कर्मोके बन्धनसे सर्वथा मुक होना ही मोक्ष है। है अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जानना इन कर्मोंसे मुक्त होनेके तीन अमोघ उपाय हैं-1. सम्य सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ग्दर्शन, सम्मग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र । अचार्य श्री उमा सम्यग्दर्शनके पश्चात् जीवको सम्यग्ज्ञान- की उत्पत्ति स्वामीने इन कर्मोकी परतन्त्रतासे छूटनेका सरल उपाय होती है। अर्थात् जीवात्मा उपादेय है और और उससे बतलाते हुए लिखा है. कि-'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारि भिन्न समस्त पदार्थ हेय हैं । इस भेद विज्ञानकी भावना त्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी उत्पन्न हो जाने पर ही आत्माको जो सामान्य या विशेष एकताही मोक्षका मार्ग है। अथवा इन तीनोंकी एकताही ज्ञान होता है वह यथार्थ होता हे उसीको सम्यग्ज्ञान मोक्षमार्गकी नियामक है। इन तीनों से एकका अभाव हो कहते हैं। जाने पर मोक्षके मार्ग में बाधा पडती है। श्रीयोगीचन्द्रदेव सम्यग्चारित्र पापकी कारणभूत क्रियाओंसे विरक्त लिखते हैं होना सम्यग्चारित्र है । सम्यग्ज्ञानके साथ विवेक पूर्वक __ 'दसण भूमि वाहिरा जिय वयरुक्ख ण होति' अर्थात् विभाव परिणतिसे विरक्त होनेके लिए सम्यग्चारित्रकी सम्यग्दर्शन रूपी भूमिके बिना है जीव ! व्रत रूपी वृक्ष प्रावश्यकता होती है। इस ताह रत्नत्रयकी प्राप्ति ही नहीं होता।. सम्यग्दर्शन-तत्वोंके श्रद्धानको अथवा जीवादि मोक्षका मार्ग है-मोक्षको प्राप्तिका उपाय है उसीकी प्राप्तिपदार्थोके विश्वासको कहते हैं। प्रज्ञान अंधकारमें बीन का हमें निरन्तर उपाय करना चाहिए । सम्यग्दर्शन और रहने के कारण यह आत्मा पर पदार्थोंको उपादेय समझता सम्यग्ज्ञानके साथ जीवात्मा बन्धनसे मुक्त होनेके लिये है-उन्हें अपने मानता है। और उनसे अपना सम्बन्ध यथार्थप्रवृत्तियाँ करने में समर्थ और प्रयत्नशील होता है। जोड़ता है परन्तु विवेक उत्पन्न होने पर वह उनको हेय उसकी वही प्रवृत्तियाँ सम्यग्चारित्र कहलाती हैं। प्रात्माअर्थात् अपनेसे पृथक् समझने लगता है। इसी भेद-विज्ञान की निर्विकार, निलेप, अजर, अमर, चिदानन्दधन, कैवरूप प्रवृत्तिको सम्यग्दर्शन कहते हैं । समीचीनदृष्टि या ल्यमय, सर्वथानिर्दोष और पवित्र बनानेके लिए उपयुक्त सम्यग्दर्शन हो जानेके बाद जीवकी विचारधारामें खासा तीन तत्व रत्नके समान हैं । इसलिये जैनशासनमें ये परिवर्तन हो जाता है। उसकी संकुचित एकान्तिक दृष्टिका 'रत्नत्रय' के मामसे स्थान-स्थान पर निर्दिष्ट किये गये हैं। प्रभाव हो जाता है विचारोंमें सरलता समुदारताका दर्शन इसीका पल्लवित रूप यह है-तीन गुप्ति, पांच समिति, होने लगता है विपरीत अभिनिवेश अथवा झूठे अभि दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाइस परीषहोंका जय, पांच प्रायके न होनेसे उसकी दृष्टि सम्यक हो जाती है. वह चारित्र, छह बाह्य तप और छह प्राभ्यान्तर तप, धर्मध्यान सहिष्णु और दयाल होता है। उसकी प्रवृत्तिमें प्रशम. और शुक्लध्यान, इनसे बंधे हुए कर्म शनेः २ निजीर्ण होकर संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा रूप चार भावनाओंका जब प्रात्मासे सर्वथा सम्बन्ध छोड़ देते हैं उसी अवस्थाको समावेश रहतात टोडरमलजी अपने मोचमार्ग मोक्ष कहते हैं। मुक्त जीव फिर बंधनमें कभी नहीं पड़ता। प्रकाशक' नामक ग्रन्थमें सम्यग्दर्शनका लक्षण तथा उतके क्योंकि बन्धनके कारणोंका उसके सर्वथा क्षय हो गया है। भेद बताते हुये लिखते हैं-- अत: उसके कर्म बन्धनका कोई कारणही नहीं रहता। अब सम्यग्दर्शनका सांचा लषय कहिये है-विपरीता १ मोक्ष. प्रकाशक पृ० ४६१. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527321
Book TitleAnekant 1953 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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