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________________ करण हिन्दी जैन-साहित्य में तत्वज्ञान ( २१६ किया गया, जैसा कि दक्षिण भारतके इतिहासमें और कभी की शरण ली, जिन्होंने उनका रक्षय तथा पालन किया नहीं हुअा। सभापडके घृणाजनक भजनोंसे, जिनके प्रत्येक यद्यपि अब जैनियोंका राजनैतिक प्रभाव नहीं रहा, और दशवें पद्यमें जैनधर्मकी भर्सना थी, यह स्पष्ट हो जाता उन्हें सब भोरसे पल्लव पाल्य और चोल राज्यवाले तंग है कि वमनस्यकी मात्रा कितनी बढ़ी हुई थी। करते थे, तथापि विद्यामें उनकी प्रभुता न्यून नहीं हुई। अतएव कुन-पापड्यका समय ऐतिहासिक दृष्टिसे 'चिन्तामणि' नामक प्रसिद्ध महाकाव्यकी रचना तिरुवध्यान रखने योग्य है, क्योंकि उसी समयसे दक्षिण भारतमें कतेबर द्वारा नवीं शतीमें हुई थी। प्रसिद, तामिल-वैयाजैनधर्मकी अवनति प्रारम्भ होती है। मि० टेलरके अनु- करण पविर्नान्दजैनने अपने 'नम्नूल' की रचना १२२५ सार कुन-पाएव्यका समय १३२० ईसवीके लगभग है, ई० में की। इन अन्योंके अध्ययनसे पता लगता है कि परन्तु डा० काल्डवेल १२६२ ईसवी बताते हैं। परन्तु जैनी लोग विशेषतः मेलापुर, निदुम्बई (1) थिपंगुदी शिलालेखोंसे इस प्रश्नका निरय हो गया है। स्वर्गीय (तिरुवलुरके निकट एक ग्राम) और टिण्डीवनम्में निवाश्री वेंकटयाने यह अनुसन्धान किया था कि सन् ६२५ ई. स करते थे में पल्लवराज नरसिंह वर्मा प्रथमने 'वातापी' का विनाश अन्तिम प्राचार्य श्री माधवाचार्यके जीवनकालमें किया इसके अाधार प तिरुज्ञान संभाण्डका समय ७ वी मुसलमानोंने दक्षिण पर विजय प्राप्त को, जिसका परिणाम शतीके मध्यमें निश्चित किया जा सकता है। क्योंकि यह हुआ कि दक्षिणमें साहित्यिक, मानसिक और धार्मिक संभाण्ड एक दूसरे जैनाचार्य तिरुनत्रकरसारं' अथवा लोक उन्नतिको बड़ा धक्का पहुँचा और मूतिविध्यंसकोंके प्रत्याप्रसिद्ध अय्यारका समकालीन था परन्तु संभाण्ड 'अय्यर' चारोंमें अन्य मतालम्बियोंके साथ जैनियोंको भी कष्ट मिला। उस समय जैनियोंकी दशाका वर्णन करते हुये से कुछ छोटा था । और अय्यरने नरसिंहवर्माके पुत्रको श्रीयुत वार्थ सा. लिखते हैं कि 'मुसलमान साम्राज्य तक जैनीसे शैव बनाया था। स्वयं अय्यर पहले जैनधर्मकी . जोनमतका कुछ कुछ प्रचार रहा । किन्तु मुसलिम साम्राज्य: शरण में आया था और उसने अपने जीवनका पूर्वभाग का प्रभाव यह पड़ा कि हिन्दू धर्मका प्रचार रुक गया, प्रसिद्ध जैनविद्याके तिरुप्पदिरिप्पुलियारके विहारोंमें व्य और यद्यपि उसके कारण समस्त राष्ट्रको धार्मिक, राजतीत किया था इस प्रकार प्रसिद्ध ब्राह्मण प्राचार्य संभाण्ड नैतिक और सामाजिक अवस्था अस्तव्यस्त हो गयी। और अय्यारके प्रयत्नोंसे, जिन्होंने कुछ समय पश्चात् - तथापि साधारण अल्प संस्थानों, समाजों और मतोंकी अपने स्वामी तिलकथिको प्रसन्न करनेके हेतु शैवमतकी रक्षा हुई। दीक्षा ले ली थी, पाण्ड्य और पल्लव राज्योंमें जैनधर्मकी जियभारतमें जैनधर्मकी उन्नति और अवनतिके . उन्नतिको बड़ा धक्का पहुँचा ! इस धार्मिक संग्राममें शैवों इस साधारण वर्णनका यह उद्देश सुदूर दक्षिण भारतमें को वैष्णव अलवारोंसे विशेषकर 'तिकमलिप्पिरन'-और प्रसिद्ध जैनधर्मके इतिहासका वर्णन नहीं है। ऐसे इति'तिरूमंगई' अलवारसे बहुत सहायता मिली जिनके हास लिखनेके लिए यथेष्ट सामग्रीका अभाव है । उत्तरकी भजनों और गीतोंमें जैनमत पर घोर कटाक्ष हैं। इस भांति दक्षिण भारतके भी साहित्य में राजनैतिक इतिहासका प्रकार तामिल देशोंमें नम्मलवारके समय. (१०वीं शती बहुत कम उल्लेख है। ई०) जैनधर्मका आस्तित्व सङ्कटमय रहा। हमें जो कुछ ज्ञान उस समयके जैन इतिहासका है अवाचीन काल वह अधिकतर पुरातत्ववेत्ताओं और यात्रियांके लेखोंसे नम्मलवारके अनन्तर हिन्दू-धर्मके उन्नायक प्रसिद्ध प्राप्त हश्रा है, जो प्रायः यूरोपियन हैं। इसके अतिरिक्त प्राचार्योंका समय है। सबसे प्रथम शंकराचार्य हुए जिन- वैदिक ग्रन्थोंसे भी जैन इतिहासका कुछ पता लगता है. का उत्तरकी ओर ध्यान गया। इससे यह प्रगट है कि परन्तु वे जैनियोंका वर्णन सम्भवतः पक्षपातके साथ दक्षिण-भारतमें उनके समय तक जैनधर्मकी पूर्ण अवनति - हो चुकी थी। तथा जब उन्हें कष्ट मिला तो वे प्रसिद्ध इस लेखका यह उद्देश नहीं है कि जैन समाजके श्रा. जैनस्थानों श्रवणबेलगोल (मैसूर ) टिण्डिवनम्- चार विचारों और प्रथाओंका वर्णन किया जाय और न (दक्षिण-अरकाट) आदिमें जा बसे । कुछने गंग राजाओं- एक लेखमें जैन गृह-नि-गण-कला, आदिका ही वर्णन हो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527321
Book TitleAnekant 1953 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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