________________
२१८1 अनेकान्त
[किरण. स्था पूर्णरूपसे परिपुष्ट और संगठित नहीं हो पाई थी। निम्नलिखित विवरण तामिल देश स्थित जे नियोंका परन्तु जैनियोंकी उपासना, आदिके विधान ब्राह्मणोंकी मिलता है। अपेक्षा सीदे साधे ढंगके थे और उनके कतिपय सिद्धान्त (१) थोलपियरके समय में जो ईसके ३५० वर्ष पूर्व सर्वोच्च और सर्वोत्कृष्ट थे । इस लिये द्राविडोंने उन्हें पसंद विद्यमान था, कदाचित् जैनी सुदूर दक्षिण देशोंमें न पहुँच किया और उनको अपने मध्यमें स्थान दिया यहाँ तक कि पाये हो। अपने धार्मिक जीवन में उन्हें अत्यन्त आदर और विश्वास- (२) जैनियोंने सुदूर दक्षिणमें ईसाके अनन्तर प्रथम का स्थान प्रदान किया।
शतीमें प्रवेश किया हो।
(३) ईसाकी दूसरी और तीसरी शतियोंमें, जिसे कुरलोत्तरकाल
तामिल-साहित्यका सर्वोत्तमकाल कहते हैं, जोनियोंने भी . कुरळके अनन्तर युगमें प्रधानतः जैनियोंकी संरचतामें
अनुपम उन्नति की थी। तामिल-साहित्य अपने विकासको चरमसीमा तक पहुंचा। . ४) ईसाकी पांचवीं और छटी शतियोंमें जैन धर्म तामिल साहित्यकी उन्नतिका समय वह सर्वश्रेष्ठ काल इतना उन्नत और प्रभावयुक्त हो चुका था कि वह पायथा । वह जैनियोंकी भी विद्या तथा प्रतिभाका समय था, राज्यका राजधर्म हो गया था। यद्यपि राजनैतिक-सामर्थ्यका समय अभी नहीं आया था। शैव-नयनार और वैष्णव-अलवार कालइसी समय (द्वितीय शती) चिर-स्मरणीय शिलप्पदिकारम्' नामक काम्यकी रचना हई । इसका कर्त्ता चेर राजा इस कालमें वैदिकधर्मकी विशिष्ट उन्नति होनेके कारण सेंगुत्तवनका भाई 'इलंगोबदिगाल' था । इस ग्रन्थमें बौद्ध और जैनधर्मों का पासन डगमगा गया था। सम्भव जैन सिद्धान्तों, उपदेशों और जैनसमाजके विद्यालयों है कि जैनधर्मके सिद्धान्तोंका द्राविडी विचारों के साथ
और प्राचारों भादिका विस्तृत वर्णन है। इससे यह निःस- मिश्रण होनेसे एक ऐसा विचित्र दुरंगा मत बन गया हो न्देह सिद्ध है कि उस समय तक अनेक दाविडोंने जैन- जिसपर चतुर ब्राह्मण अ
जिसपर चतुर ब्राह्मण आचार्योंने अपनी बाण-वर्षा की होगी। धर्मको स्वीकार कर लिया था।
कट्टर अजैन राजाओंके आदेशानुसार, सम्भव है राजकर्मईसाकी तीसरी और चौथी शतियों में तामिलदेशमें जैन
चारियोंने धार्मिक अत्याचार भी किये हो। , धर्मकी दशा जाननेके लिये हमारे पास काफी सामग्री नहीं
किसी मतका प्रचार और उसकी उन्नति विशेषतः है। परन्तु इस बातके यथेष्ट प्रमाण प्रस्तुत हैं कि श्वीं
शासकोंकी सहायता पर निर्भर है। जब उनकी सहायता शतीके प्रारम्भमें जैनियोंने अपने धर्मप्रचारके लिये बड़ाही
द्वार बन्द हो जाता है तो अनेक पुरुष 'उस मतसे अपना उत्साहपूर्ण कार्य किया।
सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। पल्लव और पाण्ड्य-सम्राज्योंमें जैन.. 'दिगम्बर दर्शन' (दर्शन सार) नामक एक जैन ग्रंथमें
धर्मकी भी ठीक यही दशा हुई थी। इस विषयका एक उपयोगी प्रमाण मिलता है। उक्त ग्रन्थ
इस काल (श्वीं शतीके उपरान्त के जैनियोंका वृत्तांत में लिखा है कि सम्बत् १२६ विक्रमी (४७० ईसवीं) में
सेक्किक्लार नामक लेखकके प्रन्थ 'पेरिय पुराणम्' में पूज्यपादके एक शिष्य वज्रनन्दी द्वारा दक्षिण मथुरामें एक
मिलता है । उक्त पुस्तकमें शैवनयनार और अन्दारनम्धीके दविव-संघकी रचना हुई और यह भी लिखा है कि उक्त- जीवनका वर्णन है, जिन्होंने शैव गान और स्तोत्रोंकी संघ दिगम्बर जैनियोंका था जो दक्षिणमें अपना धर्मप्रचार रचना की है। करने पाये थे।
तिज्ञान-संभाण्डकी जीवनी पढ़ते हुए एक उपयोगी । यह निश्चय है कि पाण्ड्य राजाभोंने उन्हें सब प्रकार ऐतिहासिक बात ज्ञात होती है कि उसने जैनधर्मावलम्बी से अपनाया। लगभग इसी समय प्रसिद्ध 'नलदियार' कुन्-पाण्डको शैवमतानुयायी किया। यह बात ध्यान देने नामक अन्धकी रचना हुई और ठीक इसी समबमें ब्राह्मणों याग्य है। क्योंकि इस घटनाके प्रनन्तर पाण्ड्य नृपति और जैनियोंमें प्रतिस्पर्धाकी मात्रा उत्पन्न हुई।
जैनधर्मके अनुयायी नहीं रहे। इसके अतिरिक्त जैनीइस प्रकार इस संघकालमें रचित ग्रन्थोंके आधार पर लोगोंके प्रति ऐसी निष्ठुरता और निर्दयताका व्यवहार
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org