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________________ २२४ ] डालता है। राग, द्वेष क्रोध और मानादि विभाव उत्पन्न करता है । शान्त भाव व सच्चे विश्वाससे भ्रष्ट करता है । मोह आत्माका प्रबल शत्रु है परपदार्थोंमें ममताका होना । मोद है। इसका जीवन सहज नहीं है जो इसे जीत । लेता है वही संसारमें महान एवं पूज्य बनता है। । आयुकर्म कर्म जीवोंको शरीरके अन्दर रोक कर रखता है। जैसे अवधि समाप्त होने तक बन्दीको कारागृह में रखा जाता है और अवधि समाप्त होनेके पश्चात् उसे मुक्त कर दिया जाता है । नामकर्म - यह कर्म जीवोंके शरीरकी चित्रकारकी तरह अनेक तरहकी अच्छी बुरी रचना करता है और आत्मा अश्व गुणका बात करता है। 1 व गोत्रकर्म यह कर्म आत्माका माननीय व निन्दनीय कुल में जन्म कराता है, तथा उसके प्रभावसे हम जगत में ऊँच नीच कहे जाते हैं। वास्तव में हमारा अच्छा बुरा श्राचारण ही ऊँचता नीचताका कारण है। हम अपने भावोंसे जैसा आचरण करेंगे, उसीके परिपाक स्वरूप ऊँचा नीचा कुछ प्राप्त करते हैं। अन्तरायकर्म - चाहे हुए किसी भी कार्य में विघ्न उपस्थित हो जाता है, इस कर्मके उदयसे हमारे कामोंदान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य आदि कार्यो यांचा पहुँचाता है। इसके उदयसे जीवात्मा अपने अभि सचित कार्योंको समय पर करने में समर्थ नहीं होता है। इन कर्मोंके द्वारा श्रात्मा सदा परतन्त्र और बंधन से युक्त रहता है और इन कमोंके सर्वथा रूय हो जाने पर आत्मा भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है- परब्रह्म परमात्मा हो जाता है । और अनन्तकाल तक वह अपने मी सुखमें मन रहता है और वहांसे कभी भी फिर वापिस नहीं आता | कविवर द्यानतरायजीने श्रष्ट कर्मोंके स्वरूपका कथन करते हुए उनके रहस्यको आठ दृष्टान्तों द्वारा व्यक्त किया है देव परयो है पर रूको म ज्ञान होय जैसे दरबान भूप देखनो निवारे है। शहद लपेटी असि धारा सुख दुक्खकार, मदिरा क्यों जीवनको मोहनी विधारे है | काट दियो है पांच करे थिति को सुभाव; चित्रकार नाना भांति चीतके सम्हार है । Jain Education International अनेकान्त [ किरण ७ चक्री ऊँच नीच धरें, भूप दियो मने करें, पई आठ कर्म हरे सोई हमें तारे है । यह कर्मबन्ध चार भेदोंमें विभक्त है प्रकृतिवन्ध स्थितिबन्ध, प्रदेशबन्ध और अनुभागबन्ध। क्योंकि इन । चारों भेदोंका मूल कारण कषाय और योग है । प्रकृति और प्रदेश रूप भागोंका निर्माण योग प्रवृत्तिसे होता है और स्थिति तथा अनुभाग रूप अंशोंका निर्माण कपायसे होता है प्रबन्धक पुद्गलोंमें शानको धात करने अथवा टकने हर्शनको रोकने, सुख दुखका वेदन कराने, आत्मस्वभावको विपरीत एवं अज्ञानी बनाने आदिका जो स्वभाव बनता है वह सब प्रकृति से निष्पन्न होने के कारण प्रकृतिबन्ध कहलाता है। स्थितिबन्ध बनने वाले उस स्वाभाव में अमुक समय तक विनष्ट न होनेकी जो मर्यादा पुद्गल परमाणुओंमें उत्पन्न होती है उसे कालकी मर्यादा अथवा स्थितिबन्ध कहा जाता है । अनुभावबन्ध - जिस समय उन पुद्गल परमाणुश्रोंमें टक्क स्वभाव निर्माण होता है उसके साथ ही उनमें हीनाधिक रूपमें फल दान देने की विशेषताओंका भी बन्च होता है उनका होना ही अनुभागबन्ध कहलाता है । प्रदेशबंधकर्मरूप ग्रहण किये गये पुद्गल परमाणुओं में भिन्न भिन्न नाना स्वभाव रूप परिणत होने वाली उस कर्मर | शिका अपने अपने स्वभावानुसार अमुक अमुक परि माय में अथवा प्रदेश रूपमें बँट जाना प्रदेशबन्ध कहलाता है । For Personal & Private Use Only - 1 कर्मोंकी इन श्रठमूल प्रकृतियोंको दो भागों अथवा भेदों में बांटा जाता है- घालिया २ अपाविया । ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराव कमको घातिया कर्म कहते हैं, क्योंकि ये चारों ही कर्म धमाके निज स्वभावकों बिगाड़ते है-उसे प्रगट नहीं होने देते। वेदनीय, नाम, गोत्र, और आयु इन चार कर्मोंको अघातिया कर्म कहते हैं, क्योंकि ये जीवके निज स्वभावको घातियाकी तरह बिगाड़ते तो नहीं हैं किन्तु उनमें विकृति होनेके बाह्य साधनको मिलाने में निमित होते हैं । इन श्रष्टकर्मोंमें मोहनीय कर्म अत्यन्त प्रबल है और आत्माका शत्रु हैं । इसके द्वारा अन्य घातिया कर्मों में शक्तिका संचार होता है। इन्द्रियों विषयोंकी ओर विशेष रूपसे प्रवृत होती है। यह जीव इन विषयोंसे निरत रह कर भ्रमवश दुखको भी सुख मानता है। कविवर बनारसी www.jainelibrary.org
SR No.527321
Book TitleAnekant 1953 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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