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________________ हिन्दी जैन-साहित्यमें तत्वज्ञान (लेखिका-कुमारी किरणबाला जैन) प्रत्येक प्राणीके शरीरके साथ प्रात्मा नामकी नित्य कर्म-परमाणुओंमेंसे प्रति समय कर्मवर्गणाओंकी निर्जरा वस्तुका सम्बन्ध है । परन्तु फिर भी प्रास्मा और शरीर होती रहती है अर्थात् पुराने कर्म अपना फल देकर मह दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। प्रारमा अनन्त गुणोंका पुंज है, जाते हैं और नवीन कर्म रागादि भावोंके कारण बन्धनप्रकाशमान है, तथा चैतन्य ज्योतिर्मय है, अविनाशी है रूप होते हैं। और अजर, अमर है। शरीर अचेतन एवं जड़ पदार्थ है। जैन दर्शन में जो कर्म सचम शरीरमें बंधते हैं उनके नाशवान है और वह पौद्गलिक कर्म-परमाणुओंसे मूल पाठ भेद बताये गये हैं-1. ज्ञानावरणीय, २. निर्मित हुआ है । गलना और पूर्ण होजाना इसका दर्शनावरणोय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, १. प्रायु, स्वभाव है। ६. नाम. ७. गोत्र और ८. अन्तराय । _ विश्वमें जो सुख-दुख, सम्पत्ति-विपत्ति आदि अव. ज्ञानावरणीय कर्म-ज्ञान प्रास्माका निजगुण है। स्थायें आती हैं उनका कारण कर्म है। शुभकर्मोंका फल प्रारमा और ज्ञानका अभेद सम्बन्ध है। ज्ञानावरणीयकर्म शुभ और अशुभकर्मोंका परिणाम अशुभ होता है। प्रास्माके ज्ञानगुणको मन्द करता है उसे आच्छादित या जीवात्मा जैसे-जैसे कर्म करता है उसका वैसा-वैसा ही फल विकृत बनाता है। इस कर्मके क्षयोपशमसे मानवमें ज्ञानका भुगतना पड़ता है । जीवात्माके साथ कर्म-पुद्गलोका क्रमिक विकास हीनाधिक रूपमें होता रहता है। जीवात्मासम्बन्ध अनादिकालसे है । जीव-प्रदेशांके साथ कर्म-प्रदेशो में ज्ञानशक्तिका जो तरतम रूप देखने में आता है वह सब का एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध होना बन्ध कहलाता है। उसके क्षयोपशमका ही फल है। इस कर्मके क्षयोपशममें यह कर्मबन्ध ही सुख-दुख रूप परम्पराका जनक है। ज्यों-ज्यों निर्मलता बढ़ती जाती है त्यों-त्यों ज्ञानका विकास बन्धन ही परतन्त्रता है। और परतन्त्र या पराधीन होना भी निर्मल रूप में होता रहता है और जब उस प्राबरण ही दुःख है। अाज विश्वमें हम जो कुछ भी परिवर्तन या कर्मका सर्वथा अभाव या क्षय हो जाता है तब आत्मा सुख दुखादि रूप अवस्थाको देखते हैं, या उन विविध पूर्ण ज्ञानी बन जाता है । और उस ज्ञानको अनन्तज्ञान अवस्थाओं में समुत्पन्न जीवोंकी उन दुःखपूर्ण अवस्थाओंका या केवलज्ञान कहा जाता है। इस कर्मसे मुक्त होने पर अवलोकन करते हैं। तब हमें यह स्पष्ट अनुभबमें आता आत्मा अनन्त ज्ञानसे युक्त होता है। है कि यह संसारके सभी प्राणी स्वकीयोपार्जित कर्मबन्धन- दर्शनावरणीयकर्म-दर्शन भी आत्माका गुण है। से ही परतन्त्र होकर दुखके पात्र बने हैं। दर्शनगुणका आच्छादन करनेवाला कर्म दर्शनावरणीय विश्वमें अनन्त कर्म-परमाणु भरे हुए है। जब कहलाता है। इस कर्मका उदय आत्मदर्शनमें रुकावट प्रास्माकी सकषाय मय मन-वचन-काय रूप योग प्रवृत्तियोंसे डालता है, अथवा दर्शन नहीं होने देता, जैसे ब्यौढ़ी पर मात्मप्रदेश सकम्प एवं चंचल होते हैं तब आत्मा अपनी बैठा हुआ दरवान राजाके दर्शन नहीं करने देता । इसी सराग परिणतिसे कर्मबन्ध करता है यह कर्मबन्ध नवीन कर्मके सर्वथा अभावसे प्रास्मा अनन्त दर्शनका पात्र नहीं हुमा किन्तु अनादिकालसे है। जिस तरह खानसे बनता है। निकले हुए सुवर्ण पाषाणमें सोना किसीने आजतक नहीं वेदनीयकर्म-जो सुख दुखकी सामग्री मिलाकर सुखरक्खा, किन्तु जबसे खानमें पाषाण है तभीसे उसमें सोना दुख रूप फलके भोगने में अथवा वेदन (अनुभव) में निमित्त भी विद्यमान है। इससे सुवर्ण पाषाणकी अनादिता स्वयं होता है । अनुकूल सामग्रीकी प्राप्तिसे सुख और प्रतिकूल सिद्ध है। इसी तरह प्रात्मा और कर्म जुदे-जुदे थे, बादमें सामग्रीकी प्राप्तिसे दुख होता है। किसीने प्रयत्न करके इन्हें मिलाया नहीं, किन्तु अनादिसे मोहनीयकर्म-यह कर्म श्रदा और चारित्र गुणकामतक बीवात्माकै साथ कर्मका सम्बन्ध बन रहा है। बम्धन युक्त है। यह जीवको मदिराके समान उन्मत्त करता अथवाश्रम Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527321
Book TitleAnekant 1953 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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