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अनेकान्त
[किरण
गुरु भाइयोंका भी संग्रह देखने में पाया तो सम्भव है कि टीकामें अपने नामके आगे 'जी' विशेषण कभी महोपाध्याय रूपचन्दजीके और भी ग्रंथ उपलब्ध हो नहीं लिखते और टीकाका स्पष्टीकरण भी कुछ भिन्न जाय।
तरहसे करते। संक्षेपमें जितनी जानकारी प्राप्त हई है प्रकाशमें लाई।
प्रस्तुत संस्करणमें मूल ग्रन्थके समाप्तिके बाद टीकाजा रही है। विस्तारसे फिर कभी अवकाश मिला तो उप
के रचना कालका सूचक पद्य भी छपा है उस पद्यके 'सत्रहस्थित करूंगा।
सौ बीते परि बानुजा' वर्ष में जिस पाठ पर ध्यान न देकर (अनुपूर्ति)
अर्थ करने में रचनाकाल सम्वत् १७०. सत्रहसौसे और - दो महीने हुए अभी-अभी नाथूरामजी प्रेमीसे रूपचंद छंदमय पथ सुबोध ग्रन्थ लिखके पूर्ण किया लिख दिया गया जी रचित समयसार टीकाका नया संस्करण ब्र. नन्दलाल है। जब कि पद्यमें वार्तिक वात रूप शब्द पाते हैं जिसका दिगम्बर जैनग्रन्थमाला भिंडसे प्रकाशित होनेकी सूचना अर्थ 'भाषामें गद्य टीका' होता है। पारिवानुवा पाठका मिली। ता. ६ अगस्तको रोडयो प्रोग्रामके प्रसङ्गसे दिल्ली सन्धि विच्छेद परिवानु और 'श्रा' अलग छपनेसे उनके जाना हुना, तो दिल्ली हिन्दू कॉलेजके प्रो० दशरथ शर्माके शन्दोंकी ओर ध्यान नहीं गया प्रतीत होता है। टीकाकारके संग्रहीत पुस्तकोंमें इसकी प्रति देखने में आई इस संस्करण परिचायक प्रशस्ति पद्य भी लेखन पुस्तिकाके बाद छापने में भी वही भ्रम दुहराया गया है। इसके मुख पृष्ठ पर के कारण रचयितासे सम्बन्धित सारी बातें स्पष्ट होने परभी रूपचन्दजीको 'प्रांडे' लिखा है। प्रस्तावनामें पं० झम्मन- सम्पादकका उस ओर ध्यान नहीं गया उन दो सवैयोंमें बालजी तर्कतीर्थने इन्हें बनारसीदासजीके गुरु पंचमंगल- टीकाकारने अपनेको क्षेम शाखाके सुख वर्धनके शिष्य दयाके रचयिता बतलाया है। पर इस भाषा टीकाके शब्दों सिंहका शिष्य बतलाया है। खरतर गच्छके प्राचार्य जिन एवं अन्तकी प्रशस्ति पद्योंपर जराभी ध्यान देते तो इसके भक्ति सूरिके राज्यमें सोनगिरिपुरमें गंगाधर गोत्रीय नथरचयिता पांडे रूपचन्दजीसे भिन्न खरतरगच्छीय रूपचन्दजी मलके पुत्र फतेचन्द पृथ्वीराजमें से फतेचन्दके पुत्र जसरूप, हैं, यह स्पष्ट जान लेते । देखिये पृ.५६८,२८० में टीका जगन्नाथमेंसे जगनाथके समझानेके लिये वह सुगम विवकारने श्वेताम्बर होनेके कारण ही ये शब्द लिखे हैं 'साधुके रण बनाया गया लिखा है। २८ मूल गुण कहे सो दिगम्बर सम्प्रदाय हैं।
. वास्तव में पांडे रूपचंदजीका स्वर्गवास तो अर्ध कथा२. अप्रमत्त गुणस्थानके कथनको 'ये कथन दिगम्बर नकके पद्यांक ६३५के अनुसार सम्बत् १६६२से १४के बीच सम्प्रदायको है' लिखा है। पृ०६१०.६.१ में जिस पद्य में हो गया, सिद्ध होता है । यह टीका उनके सौ वर्षके बनारसीदासजीने पण्डित रूपचन्दका उल्लेख कियाहै उसकी पश्चात् खरतरगच्छके यति महोपाध्याय रूपचन्दने बनाई टीका करते हुए रूपचन्द नामके मागे 'जी' विशेषण दिया है। भविष्यमें इस भ्रमको कोई न दुहराये इसीलिये मैंने है और केवल मूल गत उल्लेख को ही दुहरा दिया यह विशेष शोधपूर्ण लेख प्रकाशित करना आवश्यक है। यदि इसके रचयिता पांडे रूपचन्दजी होते तो समझा । "
'समयसारकी १५ वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी नामका सम्पादकीय लेख सम्पादकजीके बाहर रहने आदिके कारण, इस किरणमें नहीं जा रहा है । वह अगली किरणमें दिया जावेगा।
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