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टीकाकार रूपचन्दजीका विशेष परिचय कराना आवश्यक समझा गया। गत कार्तिक में राजस्थान विश्व विद्यापीठ उदयपुरके महाकवि सूर्यमल श्रासनके 'राजस्थानी जैन साहित्य' पर भाषण देनेके लिये उदयपुर जानेका प्रसंग मिला, तब चित्तौड़ भी जाना हुआ। और संयोगवश प्रस्तुत रूपचन्दजी के शिष्य परम्पराके यतिवर श्री बालचंद जीके हस्तलिखित ग्रन्थोंको देखनेका सुअवसर मिला । आपके संग्रह में रूपचन्दजी व उनके गुरु एवं शिष्यादिके हस्तलिखित व रचित अनेक ग्रन्थोंकी प्रतियाँ अवलोकन में श्राईं, इससे आपका विशेष परिचय प्रकाशित करने में और भी प्रेरणा मिली । प्रस्तुत लेख उसी प्रेरणाका परिणाम है ।
अनेकान्त
महोपाध्याय रूपचन्दजी अपने समयके एक विशिष्टका विद्वान एवं सुकवि थे । आपकी रचनाओंका परिचय मुझे गत् २५ वर्षसे बीकानेरके जैन ज्ञानभंडारोंका अवलोकन करने पर मिल ही चुका था। पर आपके जन्म स्थान, वंश श्रादि जीवनी सम्बन्धी बातें जाननेके लिये कोई साधन प्राप्त नहीं था । १६ वीं सदीके प्रसिद्ध विद्वान, उपाध्याय क्षमाकल्याणजीने महोपाध्याय रूपचन्द्रजीका गुण वर्णनारमक - अष्टक बनाया । वह अवलोकनमें श्राया पर उसका कुछ इतिवृत्त नहीं मिला। गत वर्ष मेरे पुत्र धर्मचंदके विवाहके उपलक्ष्य में लश्कर जाना हुआ, तो वैवाहिक कार्यों में जितना समय निकल सका, वहांके श्वेताम्बर मन्दिरके प्रतिमा लेखों की नकल करने एवं हस्तलिखित भंडारके अवलोकन में लगाया। क्योंकि हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज मेरा प्रिय विषय बन गया है। जहाँ कहीं भी उनके होनेकी सूचना मिलती है उन्हें देख कर अज्ञात सामग्रीको प्रकाश में लानेकी प्रबल उत्कंठा हो उठती है इसीके फलस्वरूप जब भी मेरा कहीं जाना होता है सर्व प्रथम जैन मन्दिरोंके दर्शनके साथ वहांकी मूर्तियोंके लेख लेने एवं हस्तलिखित ज्ञानभंडारोंके अवलोकन इन दो कार्यों के लिये अपना समय निकाल ही लेता हूँ । अपने पुत्रके विवाहके उपलक्ष में जाने पर भी इन दोनों कामों के लिए लश्कर में कुछ समय निकाला गया। वहांके श्वेताम्बर जैन मन्दिरकी धातु मूर्तियोंके लेख लिये गये और उस मन्दिर में ही इस्तलिखित ग्रन्थोंका खरतर गच्छीय यतिजी का संग्रह था, उसे भी देख लिया गया !
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[ किरण ७
रूपचंदका जन्म समय वंश व स्थान
लश्कर मंदिरके इस संग्रह में महोपाध्याय रूपचन्दजी के अष्टकी एक पत्रकी प्रतियें प्राप्त । इस अष्टक रूपचन्दजी सम्बन्धित कुछ ज्ञातव्य ऐतिहासिक बातें विदित हो सकीं । तथा इसके पांचवें पद्यमें रूपचन्दजीके वंशका परिचय इस प्रकार दिया है
'वाग्देवता मनुजरूप धरामरौ च, श्रीश्रो सवंशवद चंचलगोत्र शुद्धाः । श्री पाठकोत्तमगुणैर्जयति प्रसिद्धाः सत्पल्लिकापुष्करे भरुमण्डले च ॥ श्रष्टादशेव शतके 'चतुरुत्तरे च, त्रिंशतमेव समये गुरुरूपचन्द्राः । श्रारधिनां धवलभावयुतां विधाय श्रयु सुखं नवति वर्षमितं च भुक्त्वा ॥
अर्थात् श्रापका वंश ओसवाल व गोत्र श्रांचलिया था । संवत् १८३४ में आराधना सहित आपका स्वर्गवास ६० वर्षकी उम्र में पालीमें हुआ ।
चित्तौड़ के यति बालचन्दजीके संग्रहके एक गुटके में इनका जन्म सं० १७३४ लिखा है और स्वर्गवास सं० १८३५ । यद्यपि ये दोनों उल्लेख रूपचन्दजीके शिष्य परंपराके ही है। पर हमें ष्टक वाला उल्लेख अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता | अष्टककी रचना शिवचन्दके शिष्य रामचन्द्र ने की थी । सम्वत् १६१० के मार्गशिर सुदी पूनमको यह अष्टक बनाया गया है। इसमें रूपचन्दजीके स्वर्गवास पर फालर के पासमें जिनकुशलसूरिजी के रूपके दक्षिण दिशा में रूपचन्दजीकी पादुकायें संवत् १८५७ में स्थापित करनेका उल्लेख है। चित्तौड़ के गुटकेके अनुसार रूपचन्दजीकी आयु १०१ वर्षकी हो जाती है और अष्टकमें स्पष्टरूपसे 8० वर्ष की आयु में स्वर्गवास होनेको लिखा है । मेरी राय में वही उल्लेख ठीक है इनके अनुसार रूपचन्दजीका जन्म संवत् १७४४ सिद्ध होता है। चित्तौड़ वाले गुटके में १७३४ स्मृति कोषसे लिखा गया प्रतीत होता है इनके गोत्रका नाम श्रांचलिया है । जिसकी बस्ती बीकानेर के देशनोक आदि कई गांवो में अब भी पाई जाती है । अतः रूपचन्दजीका जन्म स्थान बीकानेरके ही किसी ग्राम में होना चाहिये ।
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