________________
समयसारके टीकाकार विद्वद्वर रूपचन्दजी
(ले. श्री अगरचन्द नाहटा ) कविवर बनारसीदासजीके समयसार नाटकके भाषा समाजके रूपचन्द नामके दो कवि एवं विद्वान हो भी गये टीकाकार विद्वदवर रूपचन्दजःके सम्बन्धमे कई वर्षों से हैं। अतः नाम साम्यसे उन्हींकी ओर ध्यान जाना सहज नाम साम्यके कारण भ्रम चलता पा रहा है. इसका प्रधान था। मान्यवर नाथूरामजी प्रेमीने अर्धकथानकके पृष्ठ ७१ कारण यह है कि इस भाषाटीकाको संवत् १९३३ न में लिखा था कि समयसारकी यह रूपचन्दकी टोका अभी भीमसी माणिकने प्रकरण रस्नाकरके द्वितीय भागमें प्रका- तक हमने नहीं देखी । परन्तु हमारा अनुमान है कि शित किया। पर मूल रूप में नहीं, अतएव टीकाकारने बनारसीदासके साथी रूपचन्दकी होगी । गुरु रूपचन्दकी अन्त में अपनी गुरु परम्परा, टीकाका रचानाकाल व स्थान नहीं। पता नहीं, यहाँ स्मृतिदोषसे प्रेमीजीने यह लिख प्रादिका उल्लेख किया है, वह अप्रकाशित ही रहा। दिया है या कामताप्रसादजीका उल्लेख परवर्ती है। क्योंकि भीमसी माणिकके सामने तो जनता सुगमतासे समझ सके कामताप्रसादजीके हिन्दी जैन साहित्यके संक्षिप्त इतिहासऐसे ढंगस ग्रन्थोंको प्रकाशित किया जाय, यही एकमात्र पृष्ठ (१८० ) के उल्लेखानुसार प्रेमीजी इससे पूर्व अपने बच्य था । मूल ग्रन्थकी भाषाकी सुरक्षा एवं ग्रन्थकारके हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास पृष्ठ ६८-७१ में इस भावोंको उन्हींके शब्दोंमें प्रकट करनेकी ओर उनका ध्यान ग्रन्थके लिखनेके समय इस टीकाको देखी हुई बताते हैं। नहीं था। इसीलिए उन्होंने प्राचीन भाषा ग्रन्थों में विशेषतः कामताप्रसादजीने लिखा है कि रूपचन्द पांडे ( प्रस्तुत) गत भाषा टोकाओंमें मनमाना परिवर्तन करके विस्तृत रूपचन्दजीसे भिन्न हैं। इनकी रची हुई बनारसीदास कृत टीकाका सार (अपने समयकी प्रचलित सुगम भाषामें ) समयसार टीका प्रेमीजीने एक सज्जनके पास देखी थी। ही प्रकाशित किया । उदाहरणार्थ श्रीमद् प्रानन्दघनजी. वह बहुत सुन्दर व विशद टीका संवत् १७६८ में बनी को चौवीसी पर मस्तयोगी ज्ञानसारजीका बहुत ही सुन्दर हुई है। मताप्रसादजीके उल्लेखमें टीकाका रचनाकास एवं विस्तृत विवेचन है उसे भी आपने संक्षिप्त एवं संवत् १७६८ लिखा गया है पर वह सही नहीं है। टीका अपनी भाषामें परिवर्तन करके प्रकासित किया है। इससे के अन्तके प्रशस्ति पग्रमें 'सतरह से बीते परिवाणवां वर्ष ग्रन्थकी मौलिक विशेषतायें प्रकाशित न हो सकी। टीका- में ऐसा पाठ। अतः रचनाकाल संवत् १७६२ निश्चित कारकी परिचायक प्रशस्तियाँ भी उन्होंने देना आवश्यक हाता है। सम्भव है इस टीकाकी प्रतिलिपी करने वालेने नहीं समझा, केवल टीकाकारका नाम अवश्य दे दिया है। या उस पाठको पढ़ने वाखेने भ्रमसे बाणुवांके स्थानमें यही बात समयसार नाटककी रूपचन्दजी रचित भाषा ठाणवां लिख पढ़ लिया हो । मैंने इस टीकाकी प्रति करीब टीकाके लिये चरितार्थ है।
२३ वर्ष पूर्व बीकानेरके जैन ज्ञानभंडारोंमें देखी थी। पर बनारसीदासजी मूलतः श्वेताम्बर खरतर गच्छीय उस पर विशेष प्रकाश डालनेका संयोग अभी तक नहीं श्रीमालवंशीव श्रावक थे। आगरेमें आने पर दिगम्बर मिसा । मुनि कांतिसागरजीने "विशाखभारतके' मार्च सम्प्रदायकी भार उनका झुकाव हो गया। माध्यात्म १६४७ के अंकमें 'कविवर बनारसीदास व उनके हस्तउनका प्रिय विषय बना । यावत् उसमें सराबोर हो गये। लिखित ग्रन्थोंकी प्रतियाँ' शीर्षक लेखमें इस टीकाकी एक कवित्व प्रतिभा उनमें नैसर्गिक थी। जिसका चमत्कार हम प्रति मुनिजीके पास थी उसका परिचय इस लेखमें दिया उनके नाटक समयसारमें भली भांति पा जाते हैं। मूलतः है। इससे पूर्व मैंने सन् १९४३ में जब प्रेमीजीने मुझे यह रचना प्राचार्य कुन्दकुन्दके प्राकृत ग्रन्थके अमृतचन्द्र अपने सम्पादित अर्धकथानककी प्रति भेजी, भाषा टीकाकार
रूपचन्दजीके खरतर गच्छीय होने आदिकी सूचना दे दी प्रतिभाने उसे मौलिक कृतिकी तरह प्रसिद्ध कर दी। इस थी ऐसा स्मरण है। ग्रन्थ पर भाषा टीका करने वाले भी कोई दिगम्बर विद्वान अभी कुछ समय पूर्व प्रेमीजीका पत्र मिला कि अर्धजी होंगे ऐसा अनुमान करना स्वाभाविक ही था। दिगम्बर कथानकका नया संस्करण निकल रहा है अतः समयसारके
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org