Book Title: Anekant 1948 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 7
________________ किरण ३] रत्नकरण्डके कतृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय १२९ ही ठीक होनेपर मैं उस पद्यके 'देव' पदको समन्त- कोठियाके लेखमें उद्धृत होचुके हैं। इसके सिवाय, भदका ही वाचक मानता है और इस तरह तीनों वादिराजके पार्श्वनाथचरितसे ४७ वर्ष पूर्व शक सं० पद्योंको समंतभद्रके स्तुति-विषयक समझता हूँ। अस्तु। ९०० में लिखे गये चामुण्डरायके त्रिषष्ठिशलाका__अब देखना यह है कि क्या उक्त तीनों पद्योंको महापुराणमें -भी 'देव' उपपदके साथ समन्तभद्रका स्वामी समन्तभद्रके साथ सम्बन्धित करने अथवा स्मरण किया गया है और उन्हें तत्त्वार्थभाष्यादिका रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी कृति बतलाने में कर्ता लिखा है । ऐसी हालतमें प्रो० साहबका कोई दुसरी बाधा आती है ? जहाँ तक मैने इस समन्तभद्रके साथ 'देव' पदकी अ. विषयपर गंभीरताके साथ विचार किया है मुझे उसमें करना ठीक नहीं है-वे साहित्यिकोंमें 'देव' विशेषणकोई बाधा प्रतीत नहीं होती। तीनों पद्योंमें क्रमशः के साथ भी प्रसिद्धिको प्राप्त रहे हैं। तीन विशेषणों स्वामी, देव और योगीन्द्र के द्वारा और अब प्रो० साहबका अपने अन्तिम लेखमें ममन्तभद्रका स्मरण किया गया है। उक्त क्रमसे रक्खे यह लिखना तो कुछ भी अर्थ नहीं रखता कि "जो हुए तीनों पद्योंका अर्थ निम्न प्रकार है: उल्लेख प्रस्तुत किये गये हैं उन सबमें 'देव' पद 'उन स्वामी (समन्तभद्रका चरित्र किसके लिये समन्तभद्रके साथ-साथ पाया जाता है। ऐसा कोई विस्मयकारक (आश्चर्यजनक ) नहीं है जिन्होंने एक भी उल्लेख नहीं जहाँ केवल 'देव' शब्दसं 'देवागम' (आप्तमीमांसा) नामके अपने प्रवचन-द्वारा समन्तभद्रका अभिप्राय प्रकट किया गया हो।" यह आज भी सर्वज्ञको प्रदर्शित कर रक्खा है । वे अचि- वास्तवमें कोई उत्तर नहीं, इसे केवल उत्तरके लिये न्त्यमहिमा-युक्त देव (समन्तभद्र) अपना हित चाहने ही उत्तर कहा जा सकता है: क्योंकि जब कोई विशेषण वालोंके द्वारा सदा वन्दनीय हैं, जिनके द्वारा (सर्वज्ञ किसीके साथ जुड़ा होता है तभी तो वह किसी ही नहीं किन्तु) शब्द भी' भले प्रकार सिद्ध हो प्रसङ्गपर संकेतादिके रूपमें अलगसे भी कहा जा वे ही योगीन्द्र (समन्तभद्र) सच्चे अर्थोंमें त्यागी (त्याग- सकता है, जो विशेषण कभी साथमें जुड़ा ही न हो भावसे युक्त अथवा दाता) हुए हैं जिन्होंने सुखार्थी वह न तो अलगसे कहा जा सकता है और न उसका भव्यसमूहके लिये अक्षयसुखका कारणभूत धर्मरत्नों- वाचक ही हो सकता है। प्रो० साहब ऐसा कोई भी का पिटारा–रत्नकरण्ड' नामका धर्मशास्त्र-दान उल्लेग्य प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे जिसमें समन्तभद्रक किया है। साथ 'स्वामी' पद जुड़नेसे पहले उन्हें केवल 'स्वामी' इस अर्थपरसे स्पष्ट है कि दूसरे तथा तीसरे पदके द्वारा उल्लेखि पदके द्वारा उल्लेखित किया गया हो । अतः मूल बात पद्यमें ऐसी कोई बात नहीं जो स्वामी समन्तभद्रके समन्तभद्रके साथ 'देव' विशेषणका पाया जाना है, साथ सङ्गत न बैठती हो । समन्तभद्रके लिये 'देव' जिसके उल्लेख प्रस्तुत किये गये हैं और जिनके विशेषणका प्रयोग काई अनावी अथवा उनके पदसे आधारपर द्वितीय पद्यमें प्रयुक्त हुए 'देव' विशेषण कोई अधिक चीज नहीं है। देषागमकी वसुनन्दि-वृत्ति, अथवा उपपदको समन्तभद्रकं साथ सङ्गत कहा जा पं० आशाधरकी. सागारधर्मामृत-टीका, आचार्य सकता है। प्रो० साहब वादिराजके इमा उल्लेखको जयसेनकी समयसार-टाका, नरेन्द्रसेन आचायेके वैसा एक उल्लेख समझ सकते हैं जिसमें 'देव' सिद्धान्तसार-संग्रह और आप्तमीमांसामूलकी एक शब्दसे समन्तभद्रका अभिप्राय प्रकट किया गया है। वि० संवत् १७५२की प्रतिको अन्तिम पुष्पिकामें क्योंकि वादिराजके सामन अनेक प्राचीन उल्लेखोंके समन्तभद्रके साथ 'देव' पदका खुला प्रयोग पाया जाता है, जिन सबके अवतरण पं० दरबारीलालजी १ अनेकान्त वर्ष ८ कि० १०-११, पृ० ४१०-११ १ मूलमें प्रयुक्त हुए 'च' शब्दका अर्थ । २ अनेकान्त वर्ष कि० १ पृ०३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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