Book Title: Anekant 1948 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 23
________________ गौरव गाथा पराक्रमी जन पथिक ! इस बाटिकाकी बर्बादीका कारण इन उल्लुओं और कौओंसे न पूछकर हमसे सुन । ये तु भ्रम में डाल देंगे। हमारे ही बड़ोंने इसे अपने रक्तसे सींचा था । उन्हींकी हड्डियोंकी खातसे यह सर सब्ज हुआ था। वे चल बसे, हम चलने वाले हैं, पर इसके एक-एक अणुपर हमारा अमिट बलिदान अति है । जो लोग कहते हैं - 'भारतके आदि निवासी मैदान में उसकी पौद लगनी चाहिये, सार्व-प्रेमकी हवा उसको पिलाई जानी चाहिये, विचार स्वातन्त्र्यकी धूप उसे खिलानेकी जरूरत है, वह वट वृक्षकी तरह अमर है, बढ़ेगा, फैलेगा, फूलेगा, फलेगा । । अगर कोई धर्म प्रगति-शील है, उसके प्रन्थों में नित्य कुछ घटाया बढ़ाया जाता है तो समझना चाहिये कि अनेकान्तका सिद्धान्त उस धर्ममें जीता जागता है यदि ऐसा नहीं है तो समझना चाहिये कि उस धर्मके . पण्डितों और अनुयायियोंकी जिह्वापर है काममें नहीं है। विज्ञानमें, कानून में, साहित्य में, कलामें, सङ्गीत इत्यादि में वह जीवित है। देशमें, राजमें, धर्ममें वह मर चुका है । अनेकान्त व्यावहारिक धर्मका प्राण है और समुदायकी शान्तिका ईश्वर है । अनेकता ने कान्तके बिना टकरायेगी, टूटे-फूटेगी मरेगी नहीं । और अनेकता अनेकान्तके साथ, मिलेगी - जुलेगी, मीठे स्वर निकालेगी, आनन्दके बाजे बजायेगी, सुख देगी । अनेकान्तका फल है स्वसमय, आत्माकी मिर्लेप अवस्थाका ज्ञान, बेखुदीका इल्म, कर्मयोग, अनासक्तियोग, जीवन मुक्त होजाना और परमात्मा [ वीरसे] बन जाना । Jain Education International और थे, हम एरियन (आर्य) यहाँ दूसरी जगह से आकर बसे', वे सचमुच दूसरी जगहसे प्राये होंगे । मगर हम यहाँके क़दीमी बाशिन्दे हैं । क़दीमी बाशिन्दे क्या, हम यहाँके मालिक हैं । यहाँके कणकरणपर हमारे आधिपत्यकी मुहर लगी हुई है । भारतवर्ष हमारे प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेवके पुत्र भरत चक्रवर्तीके नामसे प्रसिद्ध है । उनकी अमर कीर्तिका सजीव स्मारक है । उससे पहले हमारा भारत जम्बूद्वीप आदि किन नामोंसे प्रसिद्ध था, इस गहराई में उतरनेकी यहाँ आवश्यकता नहीं । पहले से आजतक भारतकी धान और मानपर मिटने हमारा देश जबसे 'भारत' हुआ, उससे भी बहुत यद्यपि सबकी सब चिथड़ोंके बने काग़जपर लिखी की जो शानदार कुर्बानियाँ जैन-वीरोंने की हैं, वे हुई नहीं हैं, फिर भी इतिहासके अधूरे पृष्ठों और पृथ्वी के गर्भमें जो छुपी पड़ी हैं, आँख वाले उन्हें देख सकते हैं । सबसे उज्ज्वल पृष्ठ है, उसे न भी खोला जाय तो भी जिसे पौराणिक युग कहा जाता है, जो जैनोंका ऐतिहासिक युग के अवतरण जैनोंकी गौरव गरिमाके चारण बने हुए हैं । ३२५ ई० पूर्व यूनानसे तूफ़ानकी तरह उठकर सिकन्दर महान् पर्वतोंको रौंदता, नदियोंको फलाँगता देशके- देश कुचलता हुआ भूखे शेरकी भाँति जब भारतपर टूटा, तबका चित्र काश लिया गया होता तो आज के युवक उसे देखकर दहशत से चीख उठते। बाज़ जैसे चिड़ियोंपर, सिंह जैसे हरिण समूहपर और नाग जैसे चूहोंपर झपटता है, उससे भी अधिक उसका भयानक आक्रमण था । करारी बूंदोंकी मार और सूर्यकी प्रचण्ड धूपको पर्वत जिस अनमने भाव For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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