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तत्त्व-चर्चा
शंका-समाधान
१३ शङ्का – दिगम्बर- परम्परा और समस्त दिगम्बर - साहित्य में भगवान महावीरके बालब्रह्मचारी एवं अविवाहित होनेकी जो मान्यता पाई जाती है वह क्या श्वेताम्बर - परम्परा और श्वेताम्बर - साहित्य में उपलब्ध होती है ?
१३ समाधान - हाँ, उपलब्ध होती है । विक्रम की छठी शताब्दी के विद्वान् और बहु सम्मानास्पद एवं विभिन्न नियुक्तियों के कर्ता आचार्य भद्रबाहुने अपनी प्रधान और महत्वपूर्ण रचना 'आवश्यक निर्युक्ति' में भगवान महावीरकी उन चार तीर्थंकरोंके साथ परिगणना की है जिन्होंने न राज्य किया और न विवाह किया तथा जो कुमारावस्था में ही प्रवृजित (दीक्षित) होगये और जिससे यह जाना जाता है कि श्वेताम्बर परम्परामें भी भद्रबाहु जैसे महान् आचार्य और उनके अनुयायी भगवान महाबीरको बाल. ब्रह्मचारी एवं अविवाहित स्वीकार करते थे । यथा
वीरं नेिमिं पासं मल्लिं च वासुपूज्जं च ॥ एए मुत्तण जिणे श्रवसेसा श्रासि रायाणो || रायकुलेसु वि जाया विसुद्धवंसेसु खत्तियकुलेसु । न य इत्थाभिसेया कुमारवासंमि पव्वइया || - आवश्यक० नि०गा० २२१, २२२ अर्थात् वीर, अरिष्टनेमि, पार्श्व, मल्लि और वासुपूज्य इन पाँच जिनों (तीर्थकरों ) को छोड़कर शेष जिन राजा हुए। तथा उक्त पाँचों जिन विशुद्ध क्षत्रिय राजकुलों में उत्पन्न होकर भी स्त्री-सम्बन्धसे रहित रहे और कुमारावस्थामें ही इन्होंने दीक्षा ली ।
आचार्य भद्रबाहु का यह सम्मुल्लेख दोनों परम्प: राके मधुर सम्मेलनमें एक अन्यतम सहायक हो सकता है ।
१४ शङ्का - पंच णमोकार मंत्रमें जो 'मो लोए सव्व साहूणं' अन्तिम वाक्य है उसमें 'लोए' और 'सव्व' इन दो पदोंको जो पहलेके चार वाक्यों
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में भी नहीं हैं, क्यों दिया गया है ? यदि उनका देना वहाँ सार्थक है तो पहले अन्य चार वाक्यों में भी प्रत्येकमें उन्हें देना चाहिए था ?
१४ समाधान - 'लोए' और 'सव्व' ये दोनों पद अन्त दीपक हैं, वे अन्तिम वाक्यमें सम्बन्धित होते हुए पूर्वके अन्य चार वाक्योंमें भी सम्बन्धित होते हैं। मतलब यह कि जिन दीपक पदको एक जगह से दूसरी जगह भी जोड़ा जाता है वे तीन तरह ' के होते हैं-१ आदि दीपक पद, २ मध्य दीपक पद और ३ अन्त दीपक पद । प्रकृत में 'लोए' और 'सव' पद अंतिम वाक्यमें आनेसे अन्त दीपक पद हैं अतः वे पहले वाक्यों में भी जुड़ते हैं और इसलिए पूरे नमस्कार मंत्र का अर्थ निम्न प्रकार समझना चाहिए१ लोक में (त्रिकालगत) सर्व अरिहन्तों को नमस्कार हो । २ लोक में (त्रिकालवर्ती) सर्व सिद्धोंको नमस्कार हो । ३ लोक में (त्रिकालवर्ती) सर्व आचार्योंको नमस्कार हो । ४ लोक में (त्रिकालवर्ती) सर्व उपाध्यायों को नमस्कार हो ५ लोक में (त्रिकालवर्ती) सर्व साधुओं को नमस्का रहो ।
यही वीरसेन स्वामीने अपनी धवला टीकाकी पहली पुस्तक ( पृ० ५२) में कहा है- .
'सर्व नमस्कारेष्वत्र तनसर्वलोक शब्दावन्त दीपकत्वा दध्यासकल क्षेत्रगतत्रिकालगोचरार्हदादि देवता
हर्तव्यौ प्रणमनार्थम् ।'
१५ शङ्का - परीक्षामुख, प्रमेयरत्नमाला आदि जैनन्यायके ग्रन्थोंमें प्रत्यभिज्ञान प्रमाणके, जो परोक्ष प्रमाणका एक भेद है, दोसे अधिक भेद बतलाये गये हैं; परन्तु अष्टसहस्री ( पृ० २७९) में विद्यानन्द स्वामीने उसके दो ही भेद गिनाये हैं। क्या यह श्राचार्यमतभेद है अथवा क्या है ?
१५ समाधान - हाँ,
यह आचार्यमतभेद है । विद्यानन्दने न केवल अष्टसहस्री में ही प्रत्यभिज्ञानके दो भेदों को गिनाया है अपितु लोक
आचार्य
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