Book Title: Anekant 1948 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 30
________________ १५२ १) ले लेते और उसके बदले वायना (मिठाई) आदिके रूपमें उसे दसों रुपये का सामान दे देते थे । सहधर्मियोंसे वात्सल्य रखने वाले ऐसे पुरुष पहले होते थे। पर आज मनुष्य तो चाहते हैं हमारा घर ही धनसे भर जावे और दूसरे दाने-दानेके लिये फिरें । इन विचारों के रहते हुए भी क्या आप अपनेको जैनी कहते हो ? अनेकान्त धन इच्छा करनेसे नहीं मिलता। यदि भाग्य होता है तो न जाने कहाँसे सम्पत्ति आ टपकती है मैं मडावरेका हूँ । मेरा एक साथी था - परसादी | परसादी ब्राह्मरणका लड़का था । हम दोनों एक साथ चौथी क्लास में पढ़ते थे । परसादीके बापको ८) पेंशन मिलती थी और १०००) एक हजार उसके पास नकद थे । वह इतना अधिक कंजूस था कि कभी परसादी एक आध पैसेका अमरूद खाले तो वह उसे बुरी तरह पीटता था । बापके बर्ताव से लड़का बड़ा दुखी रहता था । अचानक उसका बाप मर गया। बापके मरनेके बाद लड़केने खूब खाना पीना शुरू कर दिया। बापकी जायदादको मिटाने लगा। मैंने उसे समझाया - परसादी ! अनाप-शनाप खर्च क्यों करता है? पीछे दुःखी होगा । वह बोला, बड़े भाग्यसे बाप मरा तो भी न खावें पीवें। भैया ! उसने एक साल में ही एक हजार मिटा दिये। मैंने कहा, परसादी अब क्या करोगे ? वह बोला, भाग्यमें होगा तो और भी मिलेगा । मेरे भाग्य से कोई महन्त मरेगा उसकी जायदाद मैं भोगूंगा। ऐसा ही हुआ । वह वहाँसे मालवा चला गया। देखनेमें सुन्दर था ही, किसी महन्तकी सेवा खुशामद करने लगा । महन्त प्रसन्न होगया और जब मरने लगा तब लिख गया कि मेरा उत्तराधिकारी परसादी होवे । क्या था? अब वह लखपति बन गया। हाथी, घोड़े आदि महन्तोंका क्या वैभव होता हैं सो आप लोग जानते ही हैं। मैं इलाहाबादमें पण्डित ठाकुरदासजी के पास पढ़ता था । वह भी एक वक्त गङ्गास्नानके लिये इलाहाबाद गया । मैं पुस्तक लेकर पण्डितजीके पास पढ़ने जारहा था, वह भी एक हाथीपर बैठा बड़े Jain Education International [ बर्ष ९ ठाटबाट के साथ जारहा था । मेरा ध्यान तो उस ओर नहीं गया, पर उसने मुझे देख लिया और हाथी खड़ाकर मुझसे बोला ? मुझे पहचानते हो मैंने कहा अरे परसादी ! उसने अपना किस्सा सुनाते हुए कहा, कि तुम तो कहते थे कि अब क्या करोगे ? मैं अब मालवाका महन्त हूँ । दस-पाँच लाखकी जायदाद है । सो भैया ! जिसको सम्पत्ति मिलनी होती है सो अनायास मिल जाती है । व्यर्थकी चिन्तामें रात दिन पड़े रहना अच्छा नहीं । जब बाईजीको मरनेके १० दिन रह गये तब लम्पूने उनसे कहा, बाईजी ! कुछ चिन्ता तो नहीं है । उन्होंने कहा, नहीं है । लम्पूने कहा, छिपाती क्यों हो ? वर्गीजीकी चिन्ता नहीं है । उन्होंने कहा, पहले थी; अब नहीं है। पहले तो विकल्प था कि हमने इसे पुत्रसे भी कहीं अधिक पाला, इसलिये मोह था कि यदि यह दो-चार हजार रुपये किसी तरह बचा लेता तो इसके काम आते। पर मैंने इसके कार्योंसे देखा कि यह एक भी पैसा नहीं बचा सकता । मैंने यह सोचकर संतोषकर लिया है कि लड़का भाग्यवान है । जिस प्रकार मैं इसे -मिल गई ऐसा ही कोई उल्लू और मिल जायेगा । मैं एक बार अहमदाबाद कांग्रेसको गया । पं० मुन्नालालजी, राजधरलाल वरया तथा एक दो सज्जन और भी साथ थे । अहमदाबाद में एक मारवाड़ीने नेवता किया । पूरी, खीर आदि सब सामान उसने बनवाया। मुझे ज्वर आता था, इसलिये पहले तो मैंने खीर नहीं ली । पर जब दूसरोंको खाते देखा और उसकी सुगन्धि फैली तो मैंने भी ले ली और खूब खाली । एक घण्टे बाद मुझे ज्वर आगया । इच्छा थी कि इतनी दूर तक आया तो गिरनार जीके दर्शन और कर आऊँ । शामको गाड़ी में सवार हुआ । मेरे पैरोंमें खूब दर्द हो रहा था । पर संकोच था, इसलिये किसीसे यह कहते न बना कि कुछ दबा दो । रातको एक पूनाका वकील हमारे पास आया । कुछ देर तो चर्चा करता रहा पर बादमें मेरे सो जानेपर वह वहीं बैठा रहा। न जाने उसके मनमें क्या आया । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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