Book Title: Anekant 1948 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 31
________________ किरण ४] त्यागका वास्तविक रूप १५३ वह मेरे पैर दाबने लगा और रातके ३ बजे तक कुम्हार मिट्टीका घड़ा बनाता है क्या उसके हाथ-पैर दाबता रहा। तीन बजे बोला-पण्डितजी, उठिये आदि घड़ारूप होजाते है ? नहीं, एक द्रव्यका दूसरे आपको यहाँ गाड़ी बदलनी है। द्रव्यमें प्रवेश त्रिकालमें भी नहीं हो सकता। जब ____ हम लोग धनकी चिन्तामें रात दिन व्यग्र होरहे दूसरा द्रव्य हमारा है ही नहीं तब उसका त्याग । हैं पर व्यग्र होनेमें क्या धरा ? धन रखते हो तो करना कैसा ? यहाँ त्यागसे अर्थ है पर पदार्थोंमें उसकी रक्षाके लिये तैयार रहो । लोग कहते हैं कि आत्मबुद्धिका छोड़ना । धनका जोड़ना बुरा नहीं। ग भीतर ही भीतर पहलेसे तैयारी करते रहे। आपके पास जितना धन है उससे चोगुना अपनी अरे ! तुम्हारे दादाको किसने रोक दिया था ? जैन तिजोरियोंमें भरलो पर उसमें जो आत्मबुद्धि है उसे धर्म यह कब बतलाता है कि तुम नपुंसक बनकर छोड़ दो। जब तक हम किसीको अपना समझते रहो । लोग कहते हैं कि जैनधमेने भारतको गारत रहेंगे तब तक उसके सुख-दुःखके कारणोंसे हम सुखीकर दिया ।.अरे ! जैनधर्मने भारतको गारत नहीं कर दुःखी होते रहेंगे । यह नरेन्द्र बैठा है इसे यदि हम दिया । जबसे लोगोंने जैनधर्म छोड़ा तबसे गारत हो अपना मानेंगे तो इसपर आपत्ति आनेपर हम स्वयं गये । जैनधर्म तो प्राणीमात्रका उपकार चाहता है वह दुःखी हो उठेगे। इसीलिये तो आचार्य कहते हैं कि किसीका भी बुरा नहीं सोचता। वहाँ तो यही उपदेश आत्मातिरिक्ति किसी भी पदार्थको अपना नहीं है 'सर्वे सन्तु निरामयाः' सब निरामय नीरोग रहें। समझो । जिस समय आत्मामें ही आत्मबुद्धि रह • 'क्षेम सर्वप्रजानां' सारी प्रजाका कल्याण हो। जैन- जायगी उसी समय आप सुखी हो सकेंगे, यह तीर्थंकरोंने छह खण्डकी पृथिवीका राज्य किया, सो निश्चय है । क्या कायर बनकर किया ? नपुंसक बनकर किया ? जैनधर्मका उपदेश मोह घटानेके लिये ही है। नहीं, जैनके समान तो कोई वीर हो नहीं सकता। आपके त्यागसे किसी पदार्थका त्याग नहीं हो सकता उसे कोई घानीमें पेल दे तो भी अपने आत्मासे च्युत त्याग करके आप उस पदार्थकी सत्ता दुनियासे मिटा नहीं होता। जिन तो एक आत्मा विशेष का नाम है। देने में समर्थ नहीं हैं। आप क्या कोई भी समर्थ नहीं जिसने रागादि शत्रुओंको जीत लिया वह जिन है। है। उससे केवल मोह ही छोड़ा जा सकता है। जब उसने जिस धर्मका उपदेश दिया वह जैनधर्म है । इसे तक अपने हृदयमें मोह रहता है तब तक ही इस कायरोंका धर्म कौन कह सकता है ? परिग्रहकी चिन्ता रहती है । मोह निकल जानेपर __आज त्याग-धर्म है। मैं धनके त्यागका उपदेश कोई भी इसे लेजाओ, इसका कुछ भी होता रहे, नहीं देता। और मेरी समझमें जो धनके त्यागका इसका विकल्प रञ्चमात्र भी नहीं होता। कल आपने उपदेश देता है वह वक्ता बेवकूफ है । धन तुम्हारा है वज्रदन्त चक्रवर्तीका कथानक सुना था । जब उसका ही कहाँ ? वह तो स्पष्ट जुदा पदार्थ है । यह चादर मोह दूर हुआ तब उसके मनमें यह विकल्प नहीं जो मेरे शरीरपर है न मेरी है न मेरे बापकी है और आया कि हमारे इस विशाल राज्यको कौन सँभालेगा? न मेरी सात पेरीकी है । वह द्रव्य दूसरा है और मैं लड़कोंको राज्य देना चाहा, पर जब उन्होंने लेनेसे द्रव्य दूसरा । एक द्रव्यका चतुष्टय जुदा, दूसरे द्रव्यका इंकार कर दिया तब अनुन्धरीके छह माहके पुंडरीकचतुष्टय जुदा । आप पदार्थको जानते हैं । क्या पदार्थ को राज्य देकर जङ्गलमें चला गया। निर्मोह दशाका आपमें जाता है ? आप पेड़ा खाते हैं, मीठा लगता कितना अच्छा उदाहरण है। चक्रवर्ती के दीक्षा लेनेके है क्या मीठा रस आपके आत्मामें घुस जाता है ? बाद उनकी स्त्री लक्ष्मीमती अपने जमाई वनजंघको औरत बड़ी सफाई के साथ रोटी बनाती है क्या उसके जो कि भगवान आदिनाथके जीव थे, पत्र लिखती हाथ या उसकी अङ्गुलियाँ रोटीरूप होजाती हैं ? है कि पति और पुत्र सभी साधु होगये हैं। जिसपर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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