Book Title: Anekant 1948 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 43
________________ किरण ४ ] ठीक-ठीक प्रयत्न नहीं किया । न हमने जैनधर्म सम्बन्धी कोई ऐसा ग्रन्थ निर्माण किया जिससे जनता जैनधर्मके व्यापकरूपको समझ सके; न हमने जैनधर्मानुयायी आचार्यों, कवियों, राजाओं, सेना'नायकों, शूरवीरों और कर्मवीरोंका प्रामाणिक इतिहास ही प्रकाशित किया है; न हमने जैन-चित्रकलाका परिचय दिया है और न हमने अपने लोकसेवी कार्य कर्ताओं का ही उल्लेख किया है। फिर किस आधार पर और किस विशेषतापर लोग जैनधर्मकी ओर आकर्षित हों और क्योंकर सार्वजनिकरूपमें जनताके सामने उल्लेख हो । साहित्य-परिचय और समालोचन इस विज्ञापन के युग में विज्ञापनके बलपर जापानी इमीटेशन घर-घर पहुँच सकते हैं और विज्ञापनका साधन न मिलनेसे हीरे-मोती बक्सोंमें रखे धूल फाँकते रहते हैं । अतः आवश्यकता इस बातकी है कि जैन समाज अपने संकुचित सम्प्रदाय के गड्ढेसे निकलकर जैनधर्म सत्य-अहिंसा अपरिग्रहवादका सार्वजनिकरूप से विश्लेषण करे | हमारे साधु, मुनिराजोंको अ उपाश्रय और मन्दिरकी संकुचित चारदीवारीसे निकलकर आम जनताके सामने अपने दिव्य उपदेश देने चाहिएँ । हमें अपने मन्दिरोंके पुराने ढङ्ग बदलने १ श्रादिपुराण [ छन्दोबद्ध ] लेखक, कवि श्रीतुलसीरामजी देहली। प्रकाशक, मूलचन्द किसनदासजी कापड़िया, चन्दावाड़ी, सूरत । पृष्ठ संख्या ३८४ मूल्य ४) रुपया । Jain Education International इस ग्रन्थका विषय इसके नामसे प्रसिद्ध है। इसमें जैनियोंके प्रथम तीर्थकर भगवान श्रादिनाथका, जिन्हें भागवतके पश्चम स्कन्धमें ऋषावतार के नामसे उल्लेखित किया गया है, जीवन-परिचय दिया हुआ है। साथ ही उनके पूर्वभवोंका चित्रण करते हुए डालमियानगर (विहार) २६ अप्रैल ४८ साहित्य- परिचय और समालोचन होंगे। उनके सोने-चाँदी के चँवर - छतर- उपकरण तथा वर्तमान पूजा-पद्धति ही जैनधर्मके व्यापक प्रचारको रोकती है। जैनधर्मके मन्दिर ऐसे होने चाहिएँ कि जहाँ न चौकीदारकी आवश्यकता रहे, न पुजारीकी और न ताले - कुञ्जी की । एक ऐसी आमफहम ( सबकी समझमें आने योग्य) दर्शन-पूजा-पद्धति हमें चालू करनी होगी जो मानवमात्र के लिये उपयोगी हो सके। हर मनुष्य भगवान्‌की शरण में जा सके, हमें इस ओर अविलम्ब प्रयत्न करना होगा । • १६५ सदियों पूर्व श्रवणबेल्गोलमें भगवान् बाहुबलिकी मूर्तिका निर्माण करके हमारे पराक्रमी पूर्वजोंने हमारे सामने एक आदर्श रख दिया था और बता दिया था कि जिस वीतराग मूर्तिके ऊपर न चँवर है न छतर है, जो न तालेमें बन्द है न पुजारीके आश्रित है, उस मूर्तिके आगे वे भी नतमस्तक होंगे जो हीरे-जवाहरातकी मूर्तियों से भी प्रभावित नहीं होते हैं। हम इस व्यापक और महान आदर्शको न समझ पाए और हमने वीतराग भगवान और जिनवाणी माताको तालोंमें बन्द करके रख दिया ! For Personal & Private Use Only -गोयलीय प्रसङ्गवश अन्य कथाओं को भी दिया गया है । प्रन्थ में २० सर्ग हैं जिनकी श्लोक संख्या चार हजार छह सौ अट्ठाईस बतलाई गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम की १५वीं शताब्दी के विद्वान् भट्टारक सकलकीर्तिके संस्कृत आदिपुराणका हिन्दी पद्यानुवाद है । प्रन्थमें चौपई, पद्धड़ी, घत्ता, दोहा, भुजङ्गप्रयात, मन्दाक्रान्ता, अडिल्ल, मोतियादाम आदि विविध छन्दोंका उपयोग किया गया है । कविता साधारण होते हुए भी वह भावपूर्ण है । इस पद्यानुवादके कर्ता पं० तुलसीरामजी हैं जो दिल्लीके निवासी थे, जो धर्मात्मा, www.jainelibrary.org

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