Book Title: Anekant 1948 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ किरण ३] शङ्का-समाधान वार्तिक और प्रमाणपरीक्षामें भी उसके दो ही भेद करता । केवल प्रन्थकारोंके विवक्षाभेद या दृष्टिभेदको स्पष्टतः बतलाये हैं । यथा प्रकट करता है। (क) 'तत् द्विधैकत्वसादृश्यगोचरत्वेन निश्चितम्' १७ शङ्का-अतिक्रम और व्यतिक्रम, अतिचार _ -त० श्लो० पृ० १६०। और अनाचार इनमें परस्पर क्या अन्तर है ? (ख) 'द्विविधं हि प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदमित्येकत्व- १७ समाधान-मानसिक शुद्धिकी हानि होना निबन्धनं तादृशमेवेदमिति सादृश्यनिबन्धनं च ।' अतिक्रम है और मनमें विषयाभिलाषा होना व्यति प्र०प० पृ०६६। क्रम है। तथा इन्द्रियोंमें आलस्य (असावधानी)का अतः यह एक आचार्यमान्यताभेद ही समझना होना अतिचार है और लिये व्रतको तोड़ देना चाहिए। १६ शङ्का-जैसा प्रत्यभिज्ञानको लेकर आपने अनाचार है। यथा अतिक्रमो मानसशुद्धिहानियंतिक्रमो यो विषयाभिलाषः । जैनन्यायमें आचार्यों का मान्यताभेद बतलाया है वैसा और भी किसी विषयको लेकर उक्त मान्यताभेद तथातिचारः करणालसत्वं भंगो ह्यनाचार इह बतानाम् ।। -षट प्रा० टी० पृ० २६८ (उद्धृत)। पाया जाता है? १६ समाधान-हाँ पाया जाता है १८ शङ्का-नरकगतिमें सातवीं पृथिवीमें क्या (क) प्राचार्य माणिक्यनन्दि और उनके सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है ? व्याख्याकार 'आचार्य प्रभाचन्द्र तथा अनन्तवीर्य १८ समाधान-हाँ, सातवीं पृथिवीमें भी सम्य आदिने हेत्वाभासके चार भेद बतलाये हैं-असिद्ध, क्त्व उत्पन्न हो सकता है। सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थविरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिश्चित्कर। यथा- 'हेत्वा- वार्तिक श्रादि आर्षग्रन्थों में नरकगतिमें सम्यक्त्वकी भासा प्रसिद्धविरुद्धानकान्तिकाऽकिश्चित्कराः'-परी- उत्पत्तिके कारणोंको निम्न प्रकार बतलाया है:क्षा ६-२१ । पर वादिराजसूरिने उसके तीन ही 'नारकाणां प्राकचतुर्थ्याः सम्यग्दर्शनस्य साधन केषांचिद भेद गिनाये हैं। यथा जातिस्मरणं । केषांचिद् धर्मश्रवणं । केषांचिद् वेदनाभि'तत्र त्रिविधो हेत्वाभासः असिद्धानकान्तिकविरुद्ध- भषः । चतुर्थीमारम्य पा सप्तम्यां नारकाणं जातिस्मरणं विकल्पात् ।' -प्रमाणनिर्णय पृ० ५०। वेदनाभिभवश्च ।' -सर्वार्थसि० पृ० १२ । . (ख) इसी तरह जहाँ अन्य अनेक श्राचार्यों तत्रोपरि तिसृषु पृथिवीषु नारकास्त्रिभिः कारणैः ने परोक्षप्रमाणके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान सम्यक्त्वमुपजनयन्ति-केचिजाति स्मृत्वा, केचिद्धम श्रुत्वा, और आगम ये पाँच भेद प्रतिपादन किये हैं वहाँ केचिद्वदनाभिभूताः । अधस्ताच्चतसृषु पृथिवीषु द्वाभ्यां आचार्य वादिराजने परोक्षके दो ही भेद बतलाये हैं कारणाभ्यां-केचिजाति स्मृत्वा, अपरे वेदनाभिभूताः।' और उन दो भेदोंमें अन्य प्रसिद्ध पाँच भेदोंका -तत्त्वार्थवा पृ०७२। स्वरुचि अनुसार अन्तर्भाव किया है । यथा- ___ इन उद्धरणोंमें बतलाया गया है कि नरकगतिमें 'तच्च (परोक्ष) द्विविधमनुमानमागमश्चेति । अनुमान- पहलेकी तीन पृथिवियोंमें तीन कारणोंसे सम्यग्दर्शन मपि द्विविधं गौणमुख्यविकल्पात् । तत्र गौणमनुमानं होता है-जाति स्मरण, धर्मश्रवण और वेदनाभिभव त्रिविधं स्मरणं प्रत्यभिज्ञा तर्कश्चेति । तस्य चानुमानत्वं यथा से । नीचेकी चार पृथिवियोंमें धर्मश्रवणको छोड़कर पूर्वमुत्तरोत्तरहेतुतयाऽनुमाननिबन्धनत्वात् ।' प्र.नि.प्र.३३ शेष दो । इसी तरहके आचार्यों के मान्यताभेद और भी उत्पन्न होता है । अतएव सातवीं पृथिवीमें दो मिल सकते हैं । कहनेका मतलब यह कि जैनसिद्धान्त कारणोंका सद्भाव रहनेसे वहाँ सम्यक्त्व उत्पन्न हो की तरह जैनन्यायमें भी प्राचार्योंका मतभेद उपलब्ध जाता है । परन्तु निकलते समय वह छूट जाता है। होता है और यह मतभेद कोई विरोध उत्पन्न नहीं ३-४-४८] -दरबारीलाल कोठिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46