Book Title: Anekant 1948 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 11
________________ रण ३] रत्नकरण्डके कतृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय १३३ जाता है कि रत्नकरण्डमें भी योगीके लिये 'यति' लिये जबतक जैनसाहित्यपरसे किसी ऐसे दूसरे समन्तशब्दका प्रयोग किया गया है। इसके सिवाय, अक- भद्रका पता न बतलाया जाय जो इस रत्नकरण्डका कर्ता लकुदेवने अष्टशती (देवागम-भाष्य)के मङ्गल-पदामें होसके तब तक 'रत्नकरण्ड'के कर्ताके लिये 'योगीन्द्र' प्राप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रको 'यति' लिखा विशेषणके प्रयोग-मात्रसे उसे कोरी कल्पनाके है। जो मन्मार्गमें यत्नशील अथवा मन-वचन-कायके आधारपर स्वामी समन्तभद्रसे भिन्न किसी दूसरे नियन्त्रणरूप योगकी साधनामें तत्पर योगीका समन्तभद्र की कृति नहीं कहा जा सकता। और श्रीविद्यानन्दाचार्यने अपनी अष्ट- ऐसी वस्तुस्थितिमें वादिराजके उक्त दोनों पद्योंसहस्रीमें उन्हें 'यतिभृत्' और 'यतीश' तक लिखा को प्रथम पद्यके साथ स्वामिसमन्तभद्र-विषयक ४२, जो दोनों ही 'योगिराज' अथवा 'योगीन्द्र' अर्थ- समझने और बतलाने में कोई भी बाधा प्रतीत नहीं के द्योतक हैं, और 'यतीश'के साथ 'प्रथिततर' होती' । प्रत्युत इसके, वादिराजके प्रायः समकालीन विशेषण लगाकर तो यह भी सूचित किया गया है विद्वान् आचार्य प्रभाचन्द्रका अपनी टीकामें 'रत्नकि वे एक बहुत बड़े प्रसिद्ध योगिराज थे। ऐसे ही करण्ड' उपासकाध्ययनको साफ तौरपर स्वामी उल्लेखोंको दृष्टिम रखकर वादिराजन उक्त पद्यमें समन्तभद्रकी कृति घोषित करना उसे पुष्ट करता है। 'समन्तभद्रकं लिये 'योगीन्द्र' विशेषणका प्रयोग किया उन्होंने अपनी टीकाके केवल मंधि-वाक्योंमें ही जान पड़ता है। और इसलिये यह कहना कि 'समन्तभद्रस्वामि-विरचित' जैसे विशेषणों-द्वारा वैसी योगी नहीं थे अथवा योगीरूपसे उनका घोषणा नहीं की बल्कि टीकाकी आदिम निम्न कहीं उल्लेख नहीं किसी तरह भी समुचित नहीं कहा प्रस्तावना-वाक्य-द्वारा भी उसकी स्पष्ट सूचना की है-- जा सकता । रत्नकरण्डकी अब तक ऐसी कोई प्राचीन "श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरल. प्रति भी प्रोः साहबकी तरफसे उपस्थित नहीं की गई करण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं जिसमें ग्रन्थको 'योगीन्द्र' नामका कोई विद्वान् रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कतकामोनिविघ्नत:शास्त्रपरिलिखा हो अथवा स्वामी समन्तभद्रसे भिन्न दूसरा समाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेष कोई समन्तभद्र उसका कर्ता है ऐसी स्पष्ट सूचना नमस्कुर्वन्नाह ।" माथमें की गई हो। हाँ, यहाँपर एक बात और भी जान लेनेकी है समन्तभद्र नामके दूसरे छह विद्वानोंकी खोज और वह यह कि प्रो० साहबने अपने विलुप्त अध्याय' करके मैंने उसे रत्नकरण्डश्रावकाचारकी अपनी में यह लिखा था कि दिगम्बर जैन साहित्यमें जो प्रस्तावनामें आजसे कोई २३ वर्षे पहले प्रकट किया प्राचार्य स्वामीकी उपाधिसे विशेषतः विभषित किये था-उसके बादसे और किसी समन्तभद्रका अब तक गये हैं वे श्राप्तमीमांसाके कर्ता समन्तभद्र ही कोई पता नहीं चला। उनमेंसे एक 'लघु', दूसरे हैं।" और आगे श्रवणबेल्गोलके एक शिलालेखमें 'चिक', तीसरे ‘गेरुसोप्पे', चौथे 'अभिनव', पाँचवे भद्रबाह द्वितीयके साथ 'स्वामी' पद जुड़ा हुआ देख'भट्रारक', छठे 'गृहस्थ' विशेषणसे विशिष्ट पाये जाते कर यह बतलाते हुए कि "भद्रबाहुकी उपाधि स्वामी हैं। उनमेंसे कोई भी अपने समयादिककी दृष्टिसे थी जो कि साहित्यमें प्रायः एकान्ततः समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड'का कता नहीं हो सकता। आर इस लिये ही प्रयक्त हुई है," समन्तभद्र और भद्रबाह १ "येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः संततम् ।" १ सन् १९१२में तंजोरसे प्रकाशित होनेवाले वादिराजके २ "म श्रीस्वामिसमन्तभद्र-यतिभृद-भयाद्विभुर्भानुमान् ।” 'यशोधर-चरित की प्रस्तावनामें, टी. ए. गोपीनाथराव "स्वामी जीयात्स शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलङ्कोरुकीर्तिः ।” ३माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामें प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचार एम. ए. ने भी इन तीनों पद्योंको इसी क्रमके माथ प्रस्तावना पृ० ५से ६। समन्तभद्रविषयक सूचित किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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