________________
किरण ४]
अथवा पावट्याभासोंको पाखण्डी मान लेना और वैसा मानकर उनके साथ तद्रूप आदर-सत्कारका व्यवहार करना । इस पदका विन्यास प्रन्थमें पहले से प्रयुक्त 'देवतामूढम् ' पदके समान ही है, जिसका श्राशय है कि 'जो देवता नहीं हैं- रागद्वेषसं मलीन देवताभास हैं - उन्हें देवता समझना और वैसा समझकर उनकी उपासना करना । ऐसी हालत में 'पाखण्डिन' शब्दका अर्थ 'धूत' जैसा करनेपर इसका ऐसा अर्थ होजाता है कि धूर्तोंके विषय में मूढ होना अर्थात जो धूत नहीं हैं उन्हें धूर्त समझना और वैसा समझकर उनके साथ आदर-सत्कारका व्यवहार करना' और यह अर्थ किसी तरह भी मंङ्गत नहीं कहा जा सकता । अतः रत्नकरण्डमें 'पाखण्डिन्' शब्द अपने मूल पुरातन अर्थही व्यवहृत हुआ है, इसमें जरा भी सन्देहके लिये स्थान नहीं हैं । इस अर्थकी विकृति विक्रम सं० ७३४से पहले हो चुकी थी और वह धूर्त जैसे अर्थ में व्यवहृत होने लगा था, इसका पता उक्त संवत् अथवा वीरनिर्वाण सं० १२०४में बनकर समाप्त हुए श्रीरविषेणाचार्य कृत पद्मचरितके निम्न वाक्यसे चलता है-- जिसमें भरत चक्रवर्तीके प्रति यह कहा गया है कि जिन ब्राह्मणों की सृष्टि आपने की है वे वर्द्धमान जिनेन्द्रके निर्वाणके बाद कलियुग में महाउद्धत 'पाखण्डी' हो जायेंगे । और अगले पद्य में उन्हें 'सदा पापक्रियोद्यताः' विशेषरण भी दिया गया हैवर्द्धमान-जिनस्याऽन्ते भविष्यन्ति कलौ युगे । एते ये भवता सृष्टाः पाखण्डिनो महोद्धताः ॥। ४- ११६
रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय
- ऐसी हालत में रत्नकरण्डकी रचना उन विद्या नन्द आचार्यके बाकी नहीं हो सकती जिनका समय प्रो० साहबने ई० सन् ८१६ (वि० संवत् ८७३) के लगभग बतलाया है।
(ख) रत्नकर एडमें एक पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है:
गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य | भैक्ष्याऽशन स्वपस्यन्नुत्कृष्टश्वेल-खण्ड-धरः ॥ १४७॥
इसमें, ११वी प्रतिमा (कक्षा) - स्थित उत्कृष्ट श्रावक
Jain Education International
१३९
का स्वरूप बतलाते हुए, घरसे 'मुनिवन'को जाकर गुरुके निकट व्रतोंको ग्रहण करनेकी जो बात कही गई है उससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि यह प्रन्थ उस समय बना है जबकि जैन मुनिजन श्रमतौर पर वनोंमें रहा करते थे, वनोंमें ही यत्याश्रम प्रतिष्ठित थेऔर वहीं जाकर गुरु (आचार्य) के पास उत्कृष्ट श्रावकपदकी दीक्षा ली जाती थी। और यह स्थिति उस समयकी हैं जबकि चैत्यवास - मन्दिर - मठों में मुनियोंका आमतौर निवास - प्रारम्भ नहीं हुआ था । चैत्यवास विक्रमकी ४थी ५वीं शताब्दी में प्रतिष्ठित हो चुका था - यद्यपि उसका प्रारम्भ उससे भी कुछ पहले हुआ था - ऐसा तद्विषयक इतिहाससे जाना जाता है। पं० नाथूरामजी प्रेसीके 'वनवासी और 'चैत्यवासी सम्प्रदाय' नामक निबन्धसे भी इस विषयपर कितना ही प्रकाश पड़ता है' और इस लिये भी रत्नकरण्डकी रचना विद्यानन्द आचार्यके बादकी नहीं हो सकती और न उस रत्नमालाकार के समसामयिक अथवा उसके गुरुकी कृति हो सकती है जो स्पष्ट शब्दों में जैन मुनियोंके लिये वनवासका निषेध कर रहा है - उसे उत्तम मुनियोंके द्वारा वर्जित बतला रहा है - और चैत्यवासका खुला पोषण कर रहा है । वह तो उन्हीं स्वामी समन्तभद्रकी कृति होनी चाहिये जो प्रसिद्ध वनवासी थे, जिन्हें प्रोफेसर साहबने श्वेताम्बर पट्टावलियोंके आधारपर 'वनवासी' गच्छ अथवा सङ्घके प्रस्थापक 'सामन्तभद्र' लिखा है जिनका श्वेताम्बर - मान्य समय भी दिगम्बरमान्य समय (विक्रमकी दूसरी शताब्दी) के अनुकूल है और जिनका आप्तमीमांसाकार के साथ एकत्व माननेमें प्रो० सा०को कोई आपत्ति भी नहीं है ।
रत्नकरण्डके इन सब उल्लेखोंकी रोशनी में प्रो० साहबकी चौथी आपत्ति और भी निःसार एवं निस्तेज हो जाती हैं और उनके द्वारा प्रन्थके उपान्त्य पथमें की गई क्षेषार्थकी उक्त कल्पना बिल्कुल ही १ जैन साहित्य और इतिहास पृ० ३४७ से २६६ २ कलौकाले वने वासो वर्ज्यते मुनिसत्तमैः । स्थापितं च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः || २२ - रत्नमाला
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org