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परम्पराका द्योतक है जिसमें समन्तभद्र से शताब्दियों • बाद भारी परिवर्तन हुआ और उसके अणुव्रतोंका
स्थान पचदम्बर फलोंने ले लिया। एक चाण्डालपुत्रको 'देव' अर्थात् आराध्य बतलाने और एक गृहस्थको मुनिसे भी श्रेष्ठ बतलाने जैसे उदार उपदेश भी बहुत प्राचीनकालके संसूचक हैं जबकि देश और समाजका वातावरण काफी उदार और सत्यको • ग्रहण करने में सक्षम था । परन्तु यहाँ उन संब बातोंके विचार एवं विवेचनका अवसर नहीं है - वे तो स्वतन्त्र लेखके विषय हैं, अथवा अवसर मिलनेपर 'समीचीन धर्मशास्त्र' की प्रस्तावना में उनपर यथेष्ट प्रकाश डाला जायगा । यहाँ मैं उदाहरण के तौरपर सिर्फ दो बातें ही निवेदन कर देना चाहता हूँ और वे इस प्रकार हैं
(क) रत्नकरण्डमें सम्यग्दर्शनको तीन मूढताओं से रहित बतलाया है और उन मूढताओं में पाखण्डि मूढताका भी समावेश करते हुए उसका जो स्वरूप दिया है वह इस प्रकार हैसग्रन्थाऽऽरम्भ-हिंमानां संसाराऽऽवर्त-वर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डि - मोहनम् ||२४||
'जो सग्रन्थ हैं - धन-धान्यादि परिग्रहसे युक्त हैं —श्ररम्भ सहित हैं—कृषि-वाणिज्यादि सावधकर्म करते हैं-, हिंसामें रत हैं और संसार के आवर्ती में प्रवृत्त हो रहे हैं - भवभ्रमण में कारणीभूत विवाहादि कर्मोंद्वारा दुनिया के चक्कर अथवा गोरखधन्धे में फँसे हुए हैं, ऐसे पाखण्डियोंका - वस्तुतः पापके खण्डन में प्रवृत्त न होने वाले लिङ्गी साधुओं का जो (पाखण्डी रूपमें अथवा साधु-गुरु-बुद्धिसे) आदर-सत्कार है उसे 'पाखण्डिमूढ' समझना चाहिए ।'
अनेकान्त
१ इस विषयको विशेष जाननेके लिये देखो लेखकका 'जैनाचार्यों का शासन : भेद' नामक ग्रन्थ पृष्ठ ७ से १५ । उसमें दिये हुए 'रत्नमाला' के प्रमाणपरसे यह भी जाना जाता है कि रत्नमालाकी रचना उसके बाद हुई है जबकि मूलगुणोंमें व्रतोंके स्थानपर पञ्चदम्बरकी कल्पना रूढ होचुकी थी और इस लिये भी रत्नकरण्डसे शताब्दियों बादकी रचना है ।
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[ वर्ष ९
इमपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि रत्नकरण्ड ग्रन्थकी रचना उस समय हुई है जब कि 'पाखण्डी' शब्द अपने मूल अर्थ में - 'पापं खण्डयतीति पाखण्डी' इस नियुक्ति के अनुसार – पापका खण्डन करने के लिये प्रवृत्त हुए तपस्वी साधुओंके लिये आमतौर पर व्यवहृत होता था, चाहे वे साधु स्वमतके हों या परमतके । चुनाँचे मूलाचार ( ० ५) में 'रत्तवड - चरग तापस-परिहत्तादीयअरपासंडा' वाक्य के द्वारा रक्तपादिक साधुओं को अन्यमतके पाखण्डी बतलाया है, जिससे साफ ध्वनित हैं कि तब स्वमत (जैनों) के तपस्वी साधु भी 'पाखण्डी ' कहलाते थे । और इसका समर्थन कुन्दकुन्दाचार्यके समयासार प्रन्थकी 'पाखंडी-लिंगारिण व गिहलिंगाणि होता है, जिनमें पाखण्डीलिङ्गको अनगार साधुओं बहुप्पयारा' इत्यादि गाथा नं० ४०८ आदि से भी (निर्मन्थादि मुनियों) का लिङ्ग बतलाया है । परन्तु 'पाखण्डी' शब्द के अर्थकी यह स्थिति आजसे कोई दशों शताब्दियों पहले से बदल चुकी है और तबसे यह अर्थ में व्यवहृत होता रहा है । इस अर्थका रत्न'शब्द' प्रायः 'धूर्त' अथवा 'दम्भी कपटी' 'जैसे विकृत करण्डके उक्त पद्यमें प्रयुक्त हुए 'पाखण्डिन् ' शब्दके प्रयोगको यदि धूर्त, दम्भी, कपटी अथवा झूठे साथ कोई सम्बन्ध नहीं हैं । यहाँ 'पाखण्डी' शब्द के (मिध्यादृष्टि) साधु जैसे अर्थ में लिया जाय, जैसा कि कुछ अनुवादकोंने भ्रमवश आधुनिक दृष्टिसे ले लिया है, तो अर्थका अर्थ हो जाय और 'पाखण्डऔर असम्बद्ध ठहरे। क्योंकि इस पदक अर्थ है मोहम्' पदमें पड़ा हुआ 'पाखण्डिन् ' शब्द अनर्थक 'पाखण्डियों के विषय में मूढ होना' अर्थात् पाखण्डीके वास्तविक' स्वरूपको न समझकर अपाखण्डियों
१ पाखण्डीका वास्तविक स्वरूप वही है जिसे ग्रन्थकार महोदय 'तपस्वी' के निम्न लक्षणमें समाविष्ट किया है। ऐसे ही तपस्वी साधु पापोंका खण्डन करने में समर्थ होते हैं:- विषयाशा-वशाऽतीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान- तपोरतस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १० ॥
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