Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 12
________________ समन्तभद्र - विचारमाला [सम्पादकीय ] -- श्रीवर्द्धमानमभिनम्य समन्तभद्रं सद्बोध-चाम्चरिताऽनघवाक्स्वरूपम् । तच्छास्त्रवाक्यगतभद्रविचारमालां व्याख्यामि लोक-हित शान्ति विवेकवृद्धये ॥ १॥ मंगलपद्य के साथ मैंने जिस लेखमालाका प्रारम्भ किया है वह उन स्वामी समन्तभद्र के विचारोंकी उन्हींके शास्त्रोंपर से लिये हुए उनके सिद्धान्तसूत्रों, सूक्तों अथवा अभिमतोंकीव्याख्या होगी जो सद्बोधकी मूर्ति थे जिनके अन्तःकरण में देदीप्यमान किरणोंके साथ निर्मल ज्ञान-सूर्य स्फुरायमान था —, सुन्दर सदाचार अथवा चारित्र ही जिनका एक भूषण था, और जिनका वचनकलाप सदा ही निष्पाप तथा बाधारहित था; और इसीलिये जो लोक में श्रीवर्द्धमान थे - बाह्याभ्यन्तर लक्ष्मी वृद्धिको प्राप्त थे और आज भी जिनके वचनोका सिक्का बड़े बड़े विद्वानों के हृदयोंपर अंकित है * । इ सुग्व वास्तव में स्वामी समन्तभद्रकी कुछ भी वचन प्रवृत्ति होती थी वह सब लोककी हिनकामना - लोक में विवेककी जाति, शान्तिकी स्थापना और वृद्धि की शुभभावनाका लिये हुए होती थी । यह व्याख्या भी उसी उद्देश्यका लेकर - लोकमे हितकी. विवेककी और सुग्वशान्तिकी एकमात्र वृद्धिके लिये - लिखी जाती है । अथवा यो कहिये कि जगनका * स्वामी ममन्तभद्रका विशेष परिचय पानेके लिये देखो, लेखकका लिखा हुआ 'स्वामी समन्तभद्र' इतिहास | स्वामीजी के विचारोंका परिचय कराने और उनसे यथेष्ट लाभ उठानेका अवसर देनेके लिये ही यह सब कुछ प्रयत्न किया जाता | मैं इस प्रयत्न में कहाँतक सफल हो सकूँगा, यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता । स्वामीजी का पवित्र ध्यान, चिन्तन और आगधन ही मेरे लिये एक आधार होगा- - प्रायः व ही इस विषय में मेरे मुख्य सहायक - मददगार अथवा पथप्रदर्शक होंगे। यह मैं जानता हूँ कि भगवान समन्तभद्रस्वामी के वचनोंका पूरा रहस्य समझने और उनके विचारोंका पूरा माहात्म्य प्रकट करनेके लिये व्यक्तित्व रूपसे मैं असमर्थ हूं, फिर भी अशेष माहात्म्यमनीग्यन्नपि शिवाय संस्पर्शमिवामृताम्बुधेः "'श्रमृत समुद्र के अशेषमाहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी उसका संस्पर्श कल्याणकारक होता है' स्वामीजीकी इस सूक्तिके अनुसार ही मैंन यह सब प्रयत्न किया है । आशा है मेरी यह व्याख्या आचार्य महादयके विचारों और उनके वचनोंके पूरे माहात्म्य को प्रकट न करती हुई भी लोकके लिये कल्याणरूप होगी और इसे स्वामीजीके विचाररूप श्रमृतसमुद्रका केवल संम्पर्श ही समझा जायगा । मेरे लिये यह बड़ी ही प्रसन्नताका विषय होगा,

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