Book Title: Anandghanji tatha Chidanandji Virachit Bahotterio
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 86
________________ चिदानंदजी कृत पद. ७३ सुणावे, पण अकल कला नवि पावे ॥ कथ॥१॥ षत्रीश प्रकारें रसोई, मुख गणतां तृप्ति न हो। शिशु नाम नही तस लेवे, रस स्वादत मुंख अति लेवे ॥ कथा ॥२॥ बंदीजन कडखा गावे, सुणी सूरा सीस कटावे ॥ जब रुंढमूमता नासे, सदु आगल चारण नासे ॥ कथ०॥ ३ ॥ कहणी तो जगत मजू री, रहणी हे बंदी हजूरी ॥ कहणी साकर सम मीठी, रहणी अति लागे अनीठी॥ कथ ॥४॥ जब रह गीका घर पावे, कथणी तब गिणती आवे ॥ अब चिदानंद श्म जोई, रहणीकी सेज रहे सोई ॥ ॥ कथ० ॥ ५ ॥ इति पदं ॥ ॥ पद गणत्रीशमुं॥ राग आशावरी ॥ ॥ ज्ञानकला घट जासी॥ जाकू झा ॥ ए आंक णी॥ तन धन नेह नही रह्यो ताकू, बिनमें जयो उ दासी॥ जा ॥१॥ अविनाशी नाव. जगतके, निश्चे सकल. विनाशी ॥ एहवी धार धारणा गुरुगम, अनुजव मारग पासी ॥ जाण ॥ २ ॥ में मेरा ए मो ह जनित जस, ऐसी बुद्धि प्रकाशी ॥ ते निःसंग पग मोह सीस दे, निश्चें शिवपुर जासी ॥ जा ॥३॥सुम ता.नई सुखी श्म सुनके, कुमता नई उदासी॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114