Book Title: Akbar Pratibodhak Kaun
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 18
________________ : अकबर प्रतिबोधक कोन ?: आपके साथ आये हुए मुनि जिनसिंह की आचार्य पदवी, मुनि गुणविनय और मुनि समयसुन्दर को वाचनाचार्य की पदवी, वाचक जयसोम और मुनि रत्नविधान को उपाध्याय पदवी से विभूषित किया। इस अवसर पर कर्मचन्द की प्रार्थना पर सम्राट ने एकदिन के लिए जीवहिंसा बन्द कराई। जिनचन्द्र सूरि के प्रभाव से सम्राट ने सौराष्ट्र में द्वारका के जैन-जैनेतर मंदिरों की रक्षा का फ़रमान वहाँ के सूवा के नाम भेजा । एकबार सम्राट ने काश्मीर जाने की तैयारी की, जाने से पहले सूरि जी को बुलाकर उनसे धर्मलाभ लिया। उसके उपलक्ष्य में सम्राट ने आषाढ़ सुदि 9 से 15 तक सात दिनों के लिए जीवहिंसा बन्द करने का फ़रमान अपने सारे राज्य के 12 सूबों में भेजा। उस फ़रमान में लिखा थाकि 'श्रीहीरविजयसूरि के कहने से पर्युषणों के 12 दिनों में जीवहिंसा का निषेध पहले कर चुके हैं अब श्री जिनचंद्रजी की प्रार्थना को स्वीकार करके एक सप्ताह के लिए वैसा ही हुक्म दिया जाता है। खंभात के समुद्र में एक वर्ष तक हिंसा न हो और लाहौर में आज एक दिन के लिए हिंसा न हो। ऐसे फ़रमान भी जारी किये। इस प्रकार जिनचंद्र सूरि लाहौर में अकबर के सानिध्य में एक वर्ष व्यतीत (वि. सं. 1649 का चौमासा) करके वि. सं. 1650 में गुजरात की तरफ़ विहार कर गये । हम लिख आए हैं कि वि. सं. 1650 में तपागच्छीय आचार्य विजयसेन सूरि लाहौर में अकबर के वहाँ पधारे। इससे पहले जिनचंद्र वापिस लौट चूके थे । उपर्युक्त वर्णन 'कर्मचन्द प्रबंध', जिसकी रचना खरतरगच्छीय क्षोमशाखा के प्रमोदमाणिक्य के शिष्य जयसोम उपाध्याय ने वि. सं. 1650 में विजया -दसमी के दिन लाहौर में की है और उस पर संस्कृत व्याख्या इनके शिष्य गुणविजय ने वि. सं. 1655 में की है। इसी वर्ष इसी गुणविनय ने इसका गुजराती पद्य में भी अनुवाद किया है, यह ग्रंथ जिनचंद्र के वापिस लौटने के बाद उसी वर्ष लिखा गया है। अकबर द्वारा आ. श्री हीरविजयसूरिजी एवं आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी को दिये गये फरमान, स्वयं महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और उन फरमानों से अकबर की पूज्य गुरुवरों के प्रति की श्रद्धा और उसके हृदय में कालक्रम से हुए दया भाव के विकास के दर्शन होते हैं। अतः सर्वप्रथम आ. श्री हीरविजयसूरिजी म.सा. को दिये गये * 'सच्चाई छुपाने से सावधान' पुस्तक के पृष्ठ 337 में यह पुरा प्रकरण ज्युं का त्युं लिखा है। मूल प्रकरण के उपर 3 नं. लिखा था, वह भी उसमें कायम रखा परंतु 'मूगल साम्राज्य और जैन धर्म' के अंतर्गत उस प्रकरण के आगे के 2 प्रकरण (1. भावदेवसूरिजी, 2. हीरविजयसूरिजी म.सा. के प्रकरण) को छोड़कर 3 नं. का प्रकरण छापा है और उसमें भी बीच की ये दो पंक्तियाँ जिनमें विजयसेनसूरिजी का केवल उल्लेख आया था, उसे भी उडा दिया गया है। 12

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