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=अकबर प्रतिबोधक कोन ?== अतः स्पष्ट समझ सकते हैं कि वि. सं. 1650 एवं 1651 में जब आ. जिनचंद्रसूरिजी का उपदेश ही अकबर को प्राप्त नहीं हुआ तो, अकबर का अंतिम 11 वर्षीय जीवन अहिंसामय बनाने का श्रेय आ. जिनचंद्रसूरिजी को कैसे मिल सकता है? ___ हकीकत तो यह है कि, आ. हीरविजयसूरिजी ने अकबर के आग्रहभरी विनंतिवाले पत्र को पढ़कर अपनी अंतिम अवस्था में उनकी जरुरत महसूस करते हुए भी शासन एवं देश के हित हेतु अपने पट्टधर आ. विजयसेनसूरिजी को मनमक्कम करके भेजा था। उन दिनों में अकबर बादशाह आ. विजयसेनसूरिजी (गु. सं. 1649-50-51) (हि.सं. 1650-51-52) की उपदेंशधारा से पुनित हो रहे थे। अतः यह श्रेय उनको ही देना चाहिए।*
हिन्दी विक्रम सं. का प्रारंभ चातुर्मास के पहले चैत्र सुंद 1 से होता है और गुजराती विक्रम सं., चातुर्मास के अंत में कार्तिक सुद 1 से प्रारंभ होता है। अतः चातुर्मास में दोनों संवतों में 1 वर्ष का अंतर आता है। हिन्दी वि. सं. 1 साल आगे चलता है और ई. सन् को 57 वर्ष मिलाने से वह प्राप्त होता है, जबकि चातुर्मास में गुज. वि. सं., ई सन् को 56 वर्ष मिलाने से प्राप्त होता है।
खरतरगच्छ के आचार्यों के चातुर्मास के वर्णन में हि. सं. का प्रयोग किया गया देखने में आता है, जैसे कि आ. जिनचंद्रसूरिजी सं. 1648 फ. सु. 12 को लाहौर पधारे और वि. सं. 1649 का चातुर्मास लाहोर में किया, ऐसा उल्लेख 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' पृ. 74 एवं 84 पर मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि उनके इतिहास में हिन्दी संवतों का प्रयोग हुआ है। जबकि तपागच्छीय आचार्यों के इतिहास में गुजराती संवतों का प्रयोग पाया जाता है। अतः ऐसा कह सकते हैं कि आ. जिनचंद्रसूरिजी ने (गु. सं. 1648) (हि. सं. 1649) का चातुर्मास लाहौर में किया था। जबकि आ. विजयसेनसूरिजी ने (गु. सं. 164950-51 (हिं. सं. 1650-51-52) के चातुर्मास लाहोर में किये थे।
*1. यह बात पहले भी आ. जिनचंद्रसूरिजी की अकबर से भेंट के विषय में पृष्ठ 12 पर दिये गये लेख में आयी है, वहाँ देख सकते हैं।
*2. वास्तव में देखा जाय तो आ. हीरविजयसूरिजी से प्रतिबोध पाने के बाद उनके शिष्य उपा. शांतिचंद्रजी, उपा. भानुचंद्रजी आदि तथा उनके बाद आ. जिनचंद्रसूरिजी एवं आ. जिनसिंहसूरिजी एवं अंत में आ. विजयसेनसूरिजी के उपदेशों का सतत श्रवण करने के कारण अकबर में इतना परिवर्तन आया था। अतः उसका श्रेय उन सभी जैन साधओं को देना चाहिए। परंतु अगर इस उल्लेख के समय में जिनकी उपस्थिति थी उनको ही यह श्रेय दिया जावे, ऐसा माना जाय तो यह श्रेय आ. विजयसेनसूरिजी को ही देना उचित प्रतीत होता है।
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