Book Title: Agam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Shayyambhavsuri, Bhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 16
________________ दसकालियनिज्युत्ति। दसकालियनिज्जुत्तिनियुक्तियाँ-आचार्य भद्रबाहुने दश नियुक्तियाँ लिखी हैं। उनमें एक दसकालिय निज्जुत्ति भी है। नियुक्तिका प्रयोजन बताते हुए आचार्य भद्रबाहुने स्पष्टीकरण किया है कि ये नियुक्तियाँ आहरण दृष्टांत, हेतु, कारण-उपपत्तिका संक्षेपमें प्रदर्शनपूर्वक की जायेंगी'। स्पष्ट है की नियुक्ति के समय उपदेशमें अगमका प्राधान्य नहीं रहा। उसका स्थान क्रमशः अनुमान और तर्कने ले लिया था। यही कारण है की तत्कालीन सभी धर्मों और दर्शनाने अपने अपने शास्त्र-आगम प्रतिपादित तथ्यों के लिए दलीलें देना शुरू कर दिया था। उस प्रवाहसे मुक्त रहना जैन विद्वानों के लिए भी संभव नहीं रहा। अत एव अपने आगमगत तथ्यों के लिए अनुमान और उपपत्ति देना शुरू कर दिया। उस प्रवाहपतनका प्रारूप हमें नियुक्तिओंमें, खास कर प्रस्तुत दसवेयालियकी नियुक्तिमें मिलता है जहां अनुमान विद्याका प्रवेश ही नहीं है बल्कि उसका विविध प्रभीमें प्रयोग भी है। नियुक्तिकी एक विशेषता यह भी है कि उसमें किसी भी शब्द की व्याख्या प्रायः नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन निक्षेपों के 'द्वारा की जाती हैं। परिणामस्वरूप एक ही शब्द किन किन विविध अर्थोंमें प्रयुक्त होता है यह ज्ञात हो जाता है। उपरांत इस शब्दके जो एकार्थक पर्यायवाची शब्दांतर होते है उन्हें भी दे दिया जाता है। इस प्रकार ये नियुक्तियाँ प्राकृत और संस्कृत भाषा के कोषोंके लिए उत्तम साधन बन गया है। खेद है कि भारतीय कोषकारोंका इस ओर विशेष ध्यान नहीं गया है। इस दृष्टिसे आचार्य भद्रबाहुकी नियुक्ति ही नहीं किंतु उसके जो अनेक भाष्य और चूर्णि बने हैं उनका भी विशेष अध्ययन जरूरी है। __ जैनों की एक अपनी विशेषता यह भी है कि किसी भी वस्तुके जो अनेक प्रकार और उपप्रकार होते हो उन्हें भी बता देना। इस विशेषताका विशेषरूपसे प्रदर्शन नियुक्तिमें पाया जाता है जहां वस्तुके भेदानुभेद गिनानेका प्रयन किया गया है। प्रस्तुत नियुक्ति में भी यह विशेषता स्पष्टरूपसे ज्ञात होती है। नियुक्तिकी एक अन्य विशेषता यह भी है कि किसी भी प्रतिपाद्य विषयको स्पष्ट करनेके लिए कथानकोंका प्रयोग करना। ये कथानक मूलनियुक्तिमें केवल सूचित किये जाते हैं जिनका विस्तार भाष्य और चूर्णिमें देखा जा सकता है। इसके कारण ये नियुक्तिय प्राचीन लोककथा और शिष्टकथाओंके भंडाररूप बन गई हैं जिनका इस दृष्टिसे अध्ययन अभी शेष ही है। नियुक्ति के कर्ता चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु हैं या अन्य यह भी एक चर्चा का विषय बना हुआ है। पू. मुनिश्री पुण्यविजयजीने यह तो निश्चित कर दिया है कि विद्यमान नियुक्तिओं के कर्ता चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु नहीं हो सकते। यह संभव अवश्य है कि विद्यमान नियुक्तिओंमें प्राचीन नियुक्तिओंका संग्रह किया गया हो। यदि प्रस्तुत नियुक्तिको देखा जाय तो पू. मुनिजीके उक्त अभिप्रायकी पुष्टि होती है। गा० ५५ में स्पष्टरूपसे नियुक्तिकारने कहा है कि यहां जो व्याख्या की गई है वह संक्षिप्त है। इसका विशेष अर्थ तो जिन और चतुर्दशपूर्वी कहते हैं। इससे फलित यह होता है कि प्रस्तुत नियुक्तिके कर्ता न तो जिन हैं और न चतुर्दशपूर्वी । अत एव वे चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु तो हो ही नहीं सकते। अन्य भद्रबाहु हो सकते हैं। नियुक्तिके समयके विषयमें इतना ही कहा जा सकता है कि उसका प्रस्तुत संग्रह या रचना आचार्य जिनभद्र और उनसे भी पूर्व में होनेवाले बृहत्कसके भाष्यके रचयिता संवदास गणि के पूर्व है। आचार्य जिनभद्र ई० ६०९ में जीवित थे। ऐसी स्थितिमें नियुक्तिकी रचना ई. ५७५ से पूर्वही कभी हुई एसा माना जाय तो उचित होगा। पूज्य मुनिजी के अनुसार तो नियुक्तियां आगम वाचनाके बाद लिखी गई हैं। यह वाचना भगवान महावीर के निर्वाणके बाद ९८० अथवा ९९३ में हुई ऐसा माना जात है। तदनुसार सामान्य तौरपर यह कहा जा सकता है कि विक्रमकी छठी शतीके प्रारंभके बाद ये नियुक्तियां बनी हैं। १. आनि० ८४-८६ = विशेषा. १०७१-७३ । २. दनि० २२-२५, ५४ ३. दनि० २६-२९ ४. प्रस्तुतमें देखें दनि० १, ३, १३, १७, ६८ इत्यादि । ५. दनि० १४, २४, ६५, ६६ इत्यादि । ६. दनि० १८-२०; २५; ६९-७२, ७४-८१; ९२-११४ इत्यादि ७. दनि० २५ और उसकी चूर्णिमें उदाहरणों के प्रकारों का निरूपग है। प्रस्तुतमें कथाओंकी ऐसी सूचना नहीं मिलती किन्तु अन्य नियुक्तिमें यह पद्धति देखी जाती है जैसे आवश्यक नि० गा० १४१, १४२, १४६, १४७, ६७१-२ इत्यादि ८. बृहत्कल्पभाष्यप्रस्तावना; ज्ञानांजलि पृ० ५७ (गुजराती) ९. कल्पसूत्र-१४७ । Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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