Book Title: Agam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra Author(s): Shayyambhavsuri, Bhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay Publisher: Prakrit Granth ParishadPage 19
________________ प्रस्तावना (१०) हरि० स्थ० भ०। २२८ १३७ ___ x १३८ २२९ १३९ २३० १४० २३१ १४१ २३२ १४२ भा० ६० १४३ २३३ १४ २३४४ २३५ १४५ भा०६२ १४६ २३६ २३७ ४ २३८४ हरि० स्थ० म० २५१ १५४ २५२ १५५ २५३ १५६ २५४ १५७ २५५ १५८ २५६ १५९ २५७ १६० २५८ १६१ २५९ २६० १६३ २६१ १६४ २६२ १६५ २६३ १६६ २६४४ २६५ १६७ २६६ १६८ २६७ १६९ २६८ १७० २६९ १७१ २७० १७२ २७१ १७३ २७२ १७४ २७३ १७५ २७४ १७६ २७५ १७७ २७६ १७८ । २२.xxxxxxxxx हरि० स्थ०म० हरि० स्थ०म० हरि० स्थ०० हरि० स्थ.. २७७ १७९ ३०३ २०५ ३२६ २२७ ३४८ २४७ २७८ १८० ३०४ २०६ ३२७ *२२८ ३४९ २४८ २७९ १८१ ३०५ २०७ ३२८४ ३५० २४९ २८० १८२ ३०६ २०८ ३२९ २३० ३५१ २५० २८१ १८३ ३०७ २०९ ३३० २३१ ३५२ २५१ २८२ १८४ ३०८ *२१० ३३१४ ३५३ २५२ २८३ १८५ ३०९ २१० ३३२ २३२ ३५४ २५३ २८४ १८६ ३१० २११ ३३३ २३३ ३५५ २५४ २८५ १८७ ३११ २१२ ३३४ २३४ ३५६ २५५ २८६ १८८ ३१२ २१३ ३३५ २३५ ३५७ २५६ २८७ १८९ २१३ २६४ ३३६ २३६ ३५८ २५७ २८८ १९० ३१४ २१५ ३३७ २३७ ३५९ २५८ २८९ १९१ ३१५ २१६ ३३८ २३८ ३६० २५९ २९० १९२ ३१६ २१७ ३३९ २३९ ३६१ २६० २९१ १९३ ३१७ २१८ ३४०४ ३६२ २६१ २९२ १९४ ३१८ २१९ ३४१ २४० २९३ १९५ ३१९ २२० ३४२ २४१ ___x २६२ २९४ १९६ ३२० २२१ ३४३ २४२ ३६४ २६३ ३२१ २२२ ३४ २४३ ३६५ २६४ २९६ १९८ ३२२ २२३ ३४५ २४ ३६६ २६५ २९७ १९९ ३२३ २२४ ३४६ २४५ ३६७ २६६ २९८ २०० ३४७ २४६ x २६७ २९९ २०१ ३२५ २२६ ३६८ २६८ ३०० २०२ * यहाँ गाथासंख्यांक ३०१ २०३ * २१० संख्यांक दो २२९ नहीं दिया ३७० २७० ३०२ २०४ | बार दिया गया है। गया है। ३७१ २७१ २३९४ २४० २४१ ૨૪૨ २४३ २४x २४५ १४८ २४६ १४९ २४७ १५० २४८ १५१ २४९ १५२ २५० १५३ । ३६९ २६९ स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि स्थविर' अगस्त्यसिंहने अपनी वृत्तिको चूर्णि संज्ञा दी है यह अंतिम वाक्यसे स्पष्ट है-"चुण्णिसमासवयणेण दसकालियं परिसमत्तं" और प्रशस्तिकी तीसरी गाथामें भी इसे 'चूर्णि' कहा है। अत एव यह टीका 'चूर्णि' है इसमें संदेह नहीं है। अपना परिचय देते हुए अपनेको कोटिकगणके वज्रस्वामिकी शाखामें होनेवाले 'रिसिगुत्त'-'ऋषिगुप्त' क्षमाश्रमणके शिष्य बताया है। और अपना नाम 'कलसभवमइंद' इस सांकेतिक रूपमें प्रशस्तिमें रखा है। इसका स्पष्टार्थ पू. मुनिराजश्री पुण्यविजयजीने कलसभव = कलशभव = अगस्त्य और मइंद = मृगेन्द्र = सिंह-एसा मानकर अगस्त्यसिंह नाम होनेका जो अनुमान किया है वह उचित ही है। लेखकको प्रस्तुतमें विस्तारसे व्याख्यान करना इष्ट है। व्याख्यानमें एक भी महत्त्वका शब्द बिना व्याख्याके नहीं रहा। इस तरह यह व्याख्या विभाषा-या परिभाषाके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। चूर्णिकारने विभाषा शब्दका प्रयोग पुनःपुनः किया भी है। अत एव १. प्रस्तुत चूणिको ग्रन्थकर्ताने वृत्ति भी कहा है-पृ० ११२ २. वित्थरवक्खाणाहिगारोऽयं-पृ० १, ३. ३.१६; ५.१५; १०.२२; ११.१५, ५०.१५; ११४.२५; १२१.११. इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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