Book Title: Agam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra Author(s): Shayyambhavsuri, Bhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay Publisher: Prakrit Granth ParishadPage 23
________________ (१४) • प्रस्तावना गुणवत्ता के कारण भिक्षु है और यदि गुण नहीं तो भिक्षु मी नहीं-इस अनुमानकी सिद्धि सुवर्णदृष्टान्तसे की गई है और भन्यत्र प्रसिद्ध कस-छेद-ताव-तालण द्वारा सुवर्णकी प्रसिद्ध परीक्षाविधिका उल्लेख है -नि० गा० २४९। इसकी तुलना तत्त्वसंग्रहगत निम्नकारिकासे करना योग्य है - "तापाच्छेदाच निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः। परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्य मद्धचो न तु गौरवात् ॥ ३५८८ ॥ दशवकालिकमें (८.२७) "देहदुक्खं महाफलं" कहा है उसकी व्याख्यामें आचार्य अगस्त्यसिंहने कहा है-“दुक्खं एवं सहिज्जमाणं मोक् वपज्जवसाणफलत्तेण महाफलं"-पृ० १९२। और अन्यत्र बौद्धोंने जो चित्तको ही नियन्त्रणमें लेना जरूरी है-ऐसा माना है उसका निराकरण करते हुए काय का भी नियन्त्रण जरूरी है-ऐसा कहा है-पृ०२४१।। प्रस्तुत चूर्णिगत कुछ दार्शनिक चर्चाएं भी ध्यान देने योग्य हैं जिससे जैनोंके दार्शनिक मन्तव्यों के इतिहास पर प्रकाश मिलता है। अनेकान्तवादकी यथावत् स्थापना जैसी दार्शनिक ग्रन्थोंमें देखी जाती है उसके पूर्व उस वादकी क्या क्या भूमिकाएं थीं यह एक गवेषणाका विषय है। प्रस्तृत चूर्णिमें उस विषयमें जो भूमिका है वह इस प्रकारकी है-नियुक्तिमें धम्म शब्दके अनेक अर्थ बताए हैं। उससे यह स्पष्ट होता है कि धर्म शन्दका प्रयोग द्रव्यके लिए और उसके पर्यायोंके लिए भी होता है-गा० १८ की चूर्णिमें पर्यायोंके विवरणमें लिखा है-"जीवदम्बस्स वा अजीवदन्वस्स वा उप्याय-हिति-भंगा पजाया त एव धम्मा। जीवदधस्स इमे उप्पादहितिभंगा-देवभवातो मणुस्सभवमागतस्स मणुस्सत्तेग उप्पातो, देवत्तेण विगमो, जीवदव्वमवद्वितं।" इत्यादि-पृ.१० इसमें ध्यान देनेकी बात यह है कि स्थिति को भी पर्याय कहा है फिर भी विवरणमें जीवद्रव्य को अवस्थित कहा गया है। इस विषमता का निवारण दार्शनिकोंने आगे चलकर कर दिया है। प्रस्तुत चर्चा में आकाशादि तीन द्रव्योंके उत्पादादि परप्रत्ययसे' होते हैं यह स्पष्टीकरण किया गया है यह ध्यान देने योग्य है-पृ०१० 'अनेकान्तपक्ष' के अवलंबनसे जीव द्रव्यार्थतासे नित्य है और पर्यायार्थितासे अनित्य है-यह भी सन्मतिकारके प्रभावसे कहा गया है और आत्माको सर्वथा नित्य माना जाय तो सुखदुःखादिका संभव नहीं होगा यह भी सिद्धसेनके सन्मतिके अवतरणद्वारा सिद्ध किया गया है-पृ० २२ जीवके अस्तित्वको अनुमानसे सिद्ध किया गया है किन्तु एकेन्द्रिय जीवकी सिद्धि के विषयमें कहा है कि हेतुसे उसकी सिद्धि गुरुके अनुसार छज्जीवनिकाय नामक अध्ययनसे होती है किन्तु यहाँ तो आगमके आश्रयसे की जाती है-पृ. २३ । जीवके अस्तित्वके विषयमें 'णाहितवादी' (नास्तिकवादी) के समक्ष जो दलील दी गई है। वह यह कि 'यदि तुम कहो कि सर्वभाव ही जब नहीं तो जीव कैसे अस्ति होगा ?' तो तुम्हारा यह वचन 'है' या 'नहीं है' १ यदि 'है' तब तो सर्वभावका निषेध नहीं कर सकते-इत्यादि।' इस चर्चासे स्पष्ट है कि यहाँ नास्तिक से अभिप्राय शून्यवादीसे है। किन्तु वह शून्यवादी बौद्ध है या चार्वाक यह स्पष्ट नहीं होता। चार्वाकके तत्त्वोपप्लववादका मूल यदि इसमें माना जाय तब इसे चार्वाकमत कहा जा सकता है। 'लोकायत'का उल्लेख पृ० १४३ में है। लौकिकशास्त्र गीतासे तथा वैदिक योंके फलकी चर्चाके आधार पर भी जीवकी सिद्धिका समर्थन किया गया है-पृ०६८। अन्यत्र भी इसमें जीवके अस्तित्व आदिकी चर्चा की गई है किन्तु चर्चासे स्पष्ट है कि कहीं भी स्थविर अगस्त्यसिंहने जिनभद्रके विशेषावश्यकमें से उद्धरण नहीं दिया है, यद्यपि चर्चा में अन्यकृत गाथाएँ उद्धृत है-पृ० २२, २३, २५। तजीव तच्छरीरवादकी चर्चा आचार्य जिनभद्रने' मी की है किन्तु उस चर्चाका भी उपयोग प्रस्तुतमें नहीं है-पृ० २१ । 'लोकायतिक' आदि मोक्ष और परलोक तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विषयमें जो कुछ कहें किन्तु वे जिनप्रवचनमें ही अस्तिथ हैं, अन्यत्र नहीं-यह नियुक्तिकी व्याख्या में कहा गया है। द्रन्यजीवके विषयमें आचार्य उमास्वातिने कहा है-"गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो जीव उच्यते। अथवा शून्योऽयं भङ्गः। यस्य हि अजीवस्य सतो भव्यं जीवत्वं स्यात् स द्रव्यजीवः स्यात् । अनिष्टं चैतत् ।" तत्त्वार्थभाष्य १.५। किन्तु १. आचार्य उमास्वातिने इन तीनों के परिणामको अनादि कह कर संतोष माना था।-५.४२। पूज्यपादने सामान्य परिणामको अनादि और विशेषको सादि माना था किन्तु परप्रत्ययसे होनेवाले परिणामकी चर्चा नहीं की थी। २. पृ० २४ । ३. आचार्य जिनभद्रने शून्यवादीके विरुद्ध अनेक दलीलें दी हैं उनमें एक यह भी है-विशे० २१८८ से। प्रस्तुतमें जिनभद्रकी युक्तियोंकी असर नहीं है यह स्पष्ट है। ४. २२.१५, २३.२४, २५.२८, २६.१०, १४; २८.२; इत्यादि । ५. विशेषा० २१०४ से। ६. गाथा १६८१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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