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प्रस्तावना "३. दशवकालिक चूर्णिके कर्ता श्री अगस्त्यसिंहगणी हैं। ये भाचार्य कौटिकगणान्तर्गत श्री वनस्वामीकी शाखामें हुए भी ऋषिगुप्त क्षमाश्रमण के शिष्य है। इन दोनों गुरुशिष्यों के नाम शाखान्तरवर्ति होनेके कारण पट्टावलियोंमें पाये नहीं जाते। कल्पसूत्रकी पट्टावलीमें जो श्री ऋषिगुप्तका नाम है वे स्थविर आर्य सुइस्तिके शिष्य होने के कारण एवं खुद वज्रस्वामीसे भी पूर्व होने के कारण श्री अगस्त्यसिंहगणिके गुरु ऋषिगुप्तसे भिन्न हैं। कल्पसूत्रकी स्थविरावलिका उल्लेख इस प्रकार है'थेरस्सणं अज्जसुहत्थिस्स वासिटुसगुत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्था। तं जहा
थेरेय अज्जरोहण १...........
इसिगुत्ते ९...................... स्थविर आर्य सुहस्ति श्री वज्रस्वामिसे पूर्ववर्ती होनेसे ये ऋषिगुप्त स्थविर दशकालिकचूर्णिप्रणेता श्री अगस्त्यसिंहके गुरु भी ऋषिगुप्त क्षमाश्रमणसे भिन्न हैं यह स्पष्ट है। आवश्यकचूर्णि, जिसके प्रणेताके नामका कोई पता नहीं है-उसमें तपसंयमके वर्णनप्रसंगमें आवश्यकचूर्णिकारने इस प्रकार दशवैकालिकचूर्णिका उलेख किया है
तवो दुविहो-शो अन्मंतरो य। जघा दसवेतालियचुण्णीए चाउलोदणंत (चालणेदाणत) अलुद्धेण णिज्जरलु साधुसु पडिवायणीयं ८१८ आवश्यकचूर्णि विभाग २ पत्र ११७॥
आवश्यकचूनि के इस उद्धरणमें दशवैकालिकचूर्णिका नाम नजर आता है। दशवकालिक सूत्र के उपर दो चूर्णियां आज प्राप्त हैंएक स्थविर अगस्यसिंहप्रणीत और दूसरी जो आगमोद्धारक श्री सागरानन्दसूरिमहाराजने रतलामकी श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्थाकी ओरसे संपादित की है जिसके कर्ताके नामका पता नहीं मिला है और जिसके अनेक उद्धरण याकिनी महत्तरापुत्र भाचार्य श्री हरिभद्रसरिने अपनी दशवकालिक सूत्रकी शिष्यहितावृत्तिमें स्थान स्थान पर वृद्धविवरण के नामसे दिये हैं। इन दो चूर्णिओं में से आवश्यकचूर्णिकारको कौनसी चूर्णि अभिप्रेत है, यह एक कठिनसी समस्या है। फिर भी आवश्यकचूर्णिके उपर उल्लिखित उद्धरणको गोरसे देखनेसे हम निर्णयके समीप पहुंच सकते हैं। इस उद्धरण में 'चाउलोदणंतं' यह पाठ गलत हो गया है। वास्तव में 'चाउलोदगतं' के स्थानमें मूलपाठ 'चालणेदाणंतं' ऐसा होगा। दशवैकालिकसूत्रकी प्राप्त दोनों चूर्णियोंको मैंने बराबर देखी है। किन्तु 'चाउलोदणंतं' का कोई उलेख नहीं पाया है और इसका कोई सार्थक संबंध भी नहीं है। दशवकालिकसूत्रकी अगस्त्यसिंहीया चूर्णिमें तपके निरूपणकी समाप्ति के बाद 'चालणेदाणिं' (पत्र-१९) ऐसा चूर्णिकारने लिखा है, जिसको आवश्यक चूर्णिकारने 'चालणे दाणंत' वाक्य द्वारा सूचित किया है।......अतः मैं इस निर्णय पर आया हूं कि आवश्यक चूर्णिकारनिर्दिष्ट दशवकालिकचूर्णि अगस्त्यसिंहीया ही है। और इसी कारण अगस्त्यसिंहीया चूर्णि आवश्यकचूर्णि के पूर्व की रचना है।
आचार्य श्री हरिभद्रसरिने अपनी शिष्यहिता वृत्तिमें इस चूर्णिका खास तौरसे निर्देश नहीं किया है। सिर्फ रइवक्का (सं. रतिवाक्या) नामक दशवकालिक सूत्र की प्रथमचूलिकाकी व्याख्या (पत्र २७३-२)-“अन्ये तु व्याचक्षते"-ऐसा निर्देश करके अगस्त्यसिंहीयचूर्णिका मतान्तर दिया है। इस के सिवा कहीं पर भी इस चूर्णिके नाम का उल्लेख नहीं किया है।'
इस अगस्त्यसिंहीया चूर्णिमें तत्कालवर्ती संख्यावन्ध वाचनान्तर-पाठभेद, अर्थभेद एवं सूत्र पाठोंकी कमी-बेशीके काफी निर्देश हैं बो अति महत्त्व के हैं। ___ यहां पर ध्यान देने जैसी एक बात यह है कि दोनों चूर्णिकारोंने अपनी चूर्णिमें दशवैकालिकसूत्रकी एक प्राचीन चूर्णि या वृत्तिका समानरूपसे उल्लेख रइवक्काकी चूर्णिमें किया है जो इस प्रकार है
"पत्थ इमातो वृत्तिगतातो पदुद्देसमेत्तगाधाओ जहादुक्खं च दुस्समाए...पदमद्वारसमेतं वीरवरसासणे भणितं ॥५॥"
-अगस्त्यसिंहीया चूर्णि दूसरी मुद्रित चूर्णिमें (पत्र ३५८) "एस्थ इमाओ वृत्तिगाधाओ। उक्तं च-" ऐसा लिखकर उपर दी गई गाथाएँ उद्घ कर दी हैं।
इन उल्लेखोंसे यह निर्विवाद है कि दशवकालिकसूत्रके ऊपर इन दो चूर्णिओंसे पूर्ववर्ती एक प्राचीन चूर्णि भी थी जिसका दोनों चूर्णिकारोंने वृत्तिनामसे उल्लेख किया है।"-ज्ञानाजलि-पृ० ७८ (हिन्दी)
पूज्य मुनिजीके लेखोंसे समयके विषयमें ये नतीजे निकलते हैं१ अगस्त्यचूर्णि भाष्योंके पूर्व रची गई थी। २ आवश्यकचूर्णिसे भी यह प्राचीन है।
१. पृ. ३८ की टिप्पणी में पू. मुनिजीने आचार्य हरिभद्रका जो पाठ उद्धृत किया है उससे यह संभव प्रतीत होता है कि आ. हरिभद्रने
इस चूर्णिको देखा हो। उन्हें चूर्णिनिर्दिष्ट पाठान्तर प्रतोंमें बहुत मिले अत एव उनकी व्याख्या करना उचित नहीं जंचा।
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