Book Title: Agam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Shayyambhavsuri, Bhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
Publisher: Prakrit Granth Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि (१५) प्रस्तुतमें (पृ०६६) अन्य प्रकारसे ही स्पष्टीकरण है-“दवजीवो जं अजीवदव्वं जीवदव्यत्तेण परिणमिस्सति त्ति ओरालितादिसरीरपरिणामजोगं। तं कह १ जीवो सरीरं च ण एगंतेण अत्यंतरं। जति अत्यंतरमेव सरीरभावभेदेसु ण सुहदुक्खाणुभवणं होजा।" आचार्य अगस्त्यसिंहने प्रस्तुतमें द्रव्यजीवके विषयमें जो स्पष्टीकरण किया है वह आगमानुसारी है।' आचार्य उमास्वातिने जो स्पष्टीकरण दिया था वह दार्शनिक विकासको अग्रभूमिका थी। किन्तु स्थविर अगस्त्यसिंहने आगमिक भूमिका का ही प्रश्रय लिया है। आचार्य पूज्यपादने द्रव्यनिक्षेपका विस्तारका आश्रय लेकर जो सष्टीकरण किया है उसमें आचार्य उमास्वातिके मतका भी स्वीकार है ही। उपरांत अन्य पक्ष भी देखे जाते हैं जिनमें अगस्त्य सिंहका पक्ष भी समाविष्ट हो जाता हैं।' शून्यवादका निर्देश (पृ. ६८) जीवच को लेकर किया गया है किन्तु यहां भी विशेषावश्यकगत शून्यवादकी विस्तृत चर्चाकी कोई सूचना मिलती नहीं। ___आत्माके अस्तित्वको माननेवालोंमें वेद, कापिल और काणादका भी उल्लेख है-पृ०६८। इतना ही नहीं किन्तु उसी प्रसङ्ग में 'बुद्धस्स पंचजातकसताणि'को भी आत्माके अस्तित्वके समर्थनमें ही उपस्थित किया गया है-पृ०६८। ___ 'क्रियावाद' से तात्पर्य आस्तिकदर्शनोंसे था यह भी यहाँ स्पष्ट होता है-किरिया का अर्थ 'अस्थिभाव' करके जो माता-पिताजीव आदिका अस्तित्व मानता है वह क्रियाकी आशातना नहीं करता यह स्पष्टीकरण है-पृ० १५, २०५. __स्याद्वादके विषयमें विचित्र विधान किया गया है जो आश्चर्यजनक इस लिए है कि सन्मति जैसे ग्रन्थों में स्याद्वादके भङ्गोंकी चर्चा है और उन ग्रन्थोंको अगस्त्यसिंहने देखा है। क्या इसका तात्पर्य यह है कि उनके समय तक 'स्याद्वाद' शब्द जैनोंने अपनाया नहीं था ?' आचार्य अगस्त्यसिंहने लिखा है कि-"सिया इति निच्छय-संदेहवयणो। सन्देहे यथा स्याद्वादः । इतरम्मि-'सिया य केलाससमा अणंतका' [उत्त० ९. ४८] इह णिच्छयवयणो।"-पृ० १७९ । _वैशेषिक संमत जीवकी-नित्यता का खंडन यह कहकर किया है कि यदि अरूपी होने के कारण आकाशकी तरह वह नित्य माना जाय तब तो बुद्धि भी अरूपी होने से नित्य माननी पडेगी-अत एव हेतु अनेकान्तिक है, पृ० २७ । स्थविर अगस्त्यसिंहका समय स्थविर अगस्त्य कब हुए यह एक विचारणीय प्रश्न है। पू. मुनिश्रीने जब सर्वप्रथम इस चूर्णिको देखा तब उनका जो अभिप्राय बना था वह यहां दिया जाता है। सर्वप्रथम अपने एक पत्रमें (ता.५-५-५१) अगस्त्यसिंहकृत दशवकालिकचूर्णिका मात्र उल्लेख किया है " उसके अनन्तर जब उन्होंने इ. १९६१ में अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद के जैन विभागके अध्यक्षपदसे दिये जानेवाले व्याख्यानमें निर्देश किया है वह इस प्रकार है “(३०) अगस्त्यसिंह (भाष्यकारोंके पूर्व)-ये स्थविर आर्य वज्रकी शाखामें हुए हैं। इन्होंने देशवैकालिक सूत्र पर चूर्णिकी रचना की है। यह चूर्णि दशवकालिक सूत्र के विविधपाठभेद एवं भाषाकी दृष्टिसे बहुत महत्त्व की है। इस चूर्णिमें भाष्यकार की गाथाओं का उल्लेख न होनेसे इसकी रचना भाष्यकारों के पूर्वकी प्रतीत होती है। इसमें कई उल्लेख ऐसे भी हैं जो चालू सांप्रदायिक प्रणाली से भिन्न प्रकारके हैं। आचार्य श्री हरिभद्रने अपनी वृत्तिमें कहीं भी इस चूर्णिका उल्लेख नहीं किया है। इसका कारण यही प्रतीत होता है। विद्वानोंकी भी ज्ञातियां होती हैं। इसमें कल्लिविषयक जो मान्यता चलती है और जिसका विस्तृत वर्णन तित्योगालिय पइण्णयमें पाया भी जाता है, इस विषय में-"अणागतमहं ण णिद्वारेज-जधा कक्की अमुको वा एवंगुणो राया भविस्सइ"-ऐसा लिखकर कल्किविषयक मान्यताको आदर नहीं दिया है। इस चूर्णिमें 'भणितं च वररुचिणा अंबं फलाणं मम दालिमं पियं' [पृ. १७३] इस प्रकार वररुचिके कोई प्राकृत ग्रंथका उद्धरण है। वररुचिका यह प्राकृत उद्धरण प्राकृत व्याकरण प्रणेता वररुचिके समयनिर्णय के लिए उपयुक्त होने की संभावना है। इस चूर्णिकी प्रति जेसलमेरके जिनभद्रीय ज्ञानभंडार में सुरक्षित है। इसका प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी की ओरसे मेरेद्वारा संपादित होकर शीघ्र ही प्रकाशित होगा।" __इसके बाद जब उन्होंने इ. १९६६ में अपने नन्दीसूत्रचूर्णिके संपादन में अगस्त्यसिंहकृत चूर्णिका परिचय दिया वहां इस चूर्णि के विषयमें निम्न लिखा है १. आगमयुगका जैन दर्शन, पृ० ६४। २. यह स्पष्ट है कि स्थविर अगस्त्यसिंह, आचार्य उमास्वातिके बाद हुए हैं। वे तत्त्वार्थमूल और उसके भाष्यको भगवान् उमास्वातिके ___नामसे ही उद्धृत करते हैं-पृ० ८५ । ३. सर्वार्थसिद्धि १.५। ४. 'अणेगंतपक्ख' जैसे शब्दका प्रयोग मिलता है-पृ०२२ ॥ ५. ज्ञानांजलि पृ. २७० (गुजराती) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 ... 323