Book Title: Agam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra Author(s): Shayyambhavsuri, Bhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay Publisher: Prakrit Granth ParishadPage 29
________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसंजुयं [ पढमं दुमपुफियज्मयणं ___ तं सवित्थरोदाहरणं पसंगेण परवेउं णियमिजति-इहं सुयनाणेणं अहिगारो, जम्हा सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य । वक्खाणाहिगारोऽयमिति भण्णति - उद्दिट्ठ-समुद्दिट्ठ-अणुण्णातस्स अणुयोगो भवति तेण अहिगारो। सो चउन्विहो, तं जहा - चरणकरणाणुओगो सो य कालियसुयादि १ धम्माणुओगो इसिभासियादि २ गणियाणुओगो सूरपण्णत्तियादि ३ दवियाणुओगो दिद्विवादो ४ । स एव समासओ दुविहो-पुंहत्ताणुओगो 5 अपुहत्ताणुओगो य । जं ऐकतरम्मि पट्ठविते चत्तारि वि भासिजंति एतं अपुहत्त, तं पुण भट्टारगाओ जाव अजव इरा । ततो आरेण पुहत्तं जत्थ पत्तेयं पभासिज्जति । भासणाविहिपुहत्तकरणं अजरक्खिय-पूसमित्ततिकविंझादि विसेसित्ता भण्णति । इहं चरणकरणाणुओगेण अधिकारो । सो इमेहिं अणुओगद्दारेहिं अणुगंतव्वो। तं० निक्खेवेगट्ठ १-२ णिरुत्त ३ विहि ४ पवित्ती य ५ केण वा ६ कस्स ७।। तद्दार ८ भेय ९ लक्खण १० तदरिह ११ परिसा य १२ सुत्तत्थो ॥१॥ [कल्पभाष्ये गा० १४९ पत्र ४६] 10 एत्थ जं “केण वा कस्स" ति एतेण पसंगेण कप्पे जहोववण्णियगुणेण आयरिएण सव्वस्स सुयनाणस्स भाणियव्वो अणुओगो विहिरींत्तपमुहभूयं ति, विसेसेण दसकालियस्स, ईमं पुण पट्ठवणं पडुच्च तस्स पत्थुओ। जदि दसकालियस्स अणुओगो दसकालियं णं किं अंग अंगाइं ? सुयक्खंधो सुयक्खंधा ? अज्झयणं अज्झयणा ? उद्देसो उद्देसा? दसकालियं णं नो अंगं नो अंगाई, सुयक्खंधो णो सुयक्खंधा, णो अज्झयणं अज्झयणा, नो उद्देसो उद्देसा॥ __दसकालियमिति संखाणेण कालेण य निद्देसो, तम्हा दस णिविखंविस्सामि, कालं णिक्खिविस्सामि, सुयं 15 निक्खिविस्सामि, खंधं णिक्खिविस्सामि, अज्झयणं निक्खिविस्सामि, "उद्देसं निक्खिविस्सामि । तत्थ पढमदारं दस, ते पुण एक्कादिसंकलणाते निप्फजंति, तम्हा एक्कस्स निक्खेवो कातव्यो ततो दसण्हं । एक्कस्स दारगाधा Bणामं ठवणा दविए माउयपद संगहेक्कए चेव । पज्जव भावे य तहा सत्तेए एक्कको होति ॥१॥ णाम-ठवणातो जहा आवस्सए । दव्वेक्कगं जहा एवं दव्वं सचित्तमचित्तं मीसं वा । सञ्चित्तं जहा एक्को 20 मणूसो, अञ्चित्तं जहा 'करिसावणो, मीसं जहा पुरिसो वत्था-ऽऽभरणभूसितो । मोतुयपदेक्कगं तं जहा- उप्पण्णे तिवाभूते ति वा विगते ति वा, 'एते दिट्टिवाते मातुयापदा । अहवा इमे माउयापदा-अ आ एवमादि । संगहेक्कगं जहा दव्वं पदत्थमुद्दिस्स एक्को सालिकणो साली भण्णति, जातिं तु पदत्थमुद्दिस्स बहवो सालयो साली भण्णति, जहा निप्फण्णा साली, ण य एक्कम्मि कणे निष्फण्णे निप्फण्णं भवति । तं संगहेक्कगं दुविहं-आदिट्ठमणादिटुं च । आदिटुं नाम विसेसितं, अणादिहँ अविसेसियं । अणादिटुं जहा साली, आदिटुं कलमो । पज्जवेक्ककं पि 25 दुविहं-आदिट्ठमणादिद्वं च । पज्जादो गुणादिपरिणदी । तत्थ अणादिद्वं गुणे त्ति, आइ8 वण्णादि । भावेक्ककमवि अणादिट्ठमादि[{ च] । अणादिद्वं भावो, आदिटुं ओदइओ [ओ]वसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामितो। ओदतियभावककं दुविहं-आदिट्ठमणादिटुं च । अणादिटुं ओदयिओ भावो, आदि8 पसत्थमप्पसत्थं च । पसत्थं तित्थगरणामोदयादि, अप्पसत्थं कोधोदयादि । ओवसमियस्स खझ्यस्स य अणादिट्ठा-ऽऽदिट्ठभेदो सामण्णविसेसस्स अभावे न संभवति । "केति खयोवसमियं एवं चेव इच्छंति, तं ण भवति, जेण सम्मदिट्ठीण मिच्छदिट्ठीण य १ नियम्यते ॥ २ पृथक्त्वानुयोगः अपृथक्त्वानु गश्च ॥ ३ एकतरस्मिन् प्रस्थापिते ॥ ४ भट्टारकः-भगवान् महावीरः । ५ अर्वाग्-अनन्तरम् ॥ ६ भाषणाविधिपृथक्त्वकरणं आर्यरक्षित-पुष्यमित्रत्रिक विन्ध्यादीन् ॥ ७ दुर्बलिकापुष्यमित्र १ घृतपुष्यमित्र २ वस्त्रपुष्यमित्र ३ इति पुष्यमित्रत्रिकम् ॥ ८ विधिसूत्रप्रमुखभूतमिति ॥ ९इमा पुनः प्रस्थापना-प्रारम्भं प्रतीत्य ॥ १० निक्षेप्स्यामि ॥ ११ उद्देसो मूलादर्शे ॥ १२ एकादिसङ्कलनया ॥ १३ °का भणिया वृद्धविवरणे ॥ १४ कार्षापणः ॥ १५ मातृकापदैककम् ॥ १६ भूतशब्दोऽत्र सद्भतार्थवाचकः, ध्रुव इति योऽर्थः । धुवे ति वा इति वृद्धविवरणे पाठः॥ १७ दृष्टिवादसत्कमातृकापदपरिचयार्थ समवायाङ्गसूत्रे ४६ सूत्रं द्रष्टव्यम् पत्र ६९॥ १८ आदिष्टं अनादिष्टं च ॥ १९ केचित् ॥ २० "इयाणि उपसमिय खइय-खओवसमिया-ते तिष्णि वि भावेगा णियच्छणस्स (णिच्छयणयस्स) पसत्था चेव, एतेसिं अपसत्थो पडिवक्खो णस्थि । कम्हा? जम्हा मिच्छट्टिीण केइ कम्मंसा खीणा केई उवसंता, खओवसमेण य कम्माण बुद्धिपाडवादिणो गुणा संता वि तेसिं विवरीयगाहित्तणेणं उम्मत्तवयणभिव अप्पमाणं चेव, तम्हा उवसमिय-खयिय-खओक्समियभावा सम्मदिद्विणो चेव लन्भति" इति वृद्धविवरणे॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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