Book Title: Agam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Shayyambhavsuri, Bhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 138
________________ मुत्तगा० १३१-३९] दसकालियसुत्तं । १११ दोण्हं अवणीते भोयणे एगस्स निमंतणे बितियस्स अभिप्पायरक्खणत्थमुपदि8 । इदं तु फुडमेव१३६. दोण्हं तु मुंजमाणाणं दो वि तत्थ णिमंतए । दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा जं तत्थेसणियं भवे ॥ ५४ ॥ १३६. दोण्हं तु मुंजमाणाणं० सिलोगो । दोण्हं, तुसद्दो तहेव, भुंजमाणाणं सम्म निमंतणे वयणोवलक्खियाभिप्पायाणं तं दिजमाणं पडिच्छेजा जं एसणादोसेहिं वजितं एसणिज्जं भवे ॥५४ ॥ । परचित्तपीडापरिहरणं सिलोगदुयएणावदिटुं । इध तदेव सुहुमतरमुपदिस्सति१३७. गुठ्विणीयमुवण्णत्थं विविधं पाण-भोयणं ।। भुजमाणं विवजेज्जा भुत्तसेसं पडिच्छए ॥ ५५ ॥ १३७. गुषिणीयमुवण्णत्थं० सिलोगो । गुग्विणी गम्भिणी तीए डोहलविणयणत्थं उपण्णत्थं उवणीयं विविधं अणेगागारं पाण-भोयणं, तं तीए अण्णण वा दिजमाणं भुजमाणं उवणीयं, ण ताव भ॑जति 10 तं, “वर्तमानसामीप्ये" [पाणि० ३-३-३१] इत्यति भुजमाणमेव, अहवा भुंजति अण्णो देति तं विवजणीयं । इमे दोसा-परिमितमुवणीतं, दिण्णे सेसमपज्जत्तं ति डोहलस्साविगमे मरणं गन्भपतणं वा होज्जा, तीसे तस्स वा गब्भस्स सण्णीभूतस्स अप्पत्तियं होज, तम्हा तं विवजेत्ता तेत्तीए से सोमणसं समुपजातं लक्खेऊण भुत्तसेसं उव्वरियं पडिच्छए गेण्हेजा ॥ ५५ ॥ गन्माभिघाय-पीडापरिहरणमुपदिटुं । इदं तु सरीरपीडापरिहरणत्थं भण्णति१३८. सिया य समणट्ठाए गुग्विणी कालमासिणी । 15 उट्ठिता वा णिसीएज्जा णिसण्णा वा पुणुट्ठए। 'देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥ ५६ ॥ .. - १३८. सिया य समणट्ठाए० सिलोगो । सिया कयायि गुम्विणी गुरुगमा प्रसूतिकालमासे कालमासिणी सुधणिसण्णा भिक्खं दाहामि किंचि वा गिण्हमाणी एवमुहिता वा णिसीएज्जा पढमणिसण्णा वा भिक्खदाणत्थं पुणुट्ठए पुणसद्देण चारेण वा जं दुक्खं णीति । एवमादिचेट्ठा [ए] तीसे विसेसेण गम-20 सरीरपीड त्ति । पुव्वपत्थुयं वयणमवहारिजति-देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पति तारिसं ॥५६॥ गन्भमणो-सरीरपीडापरिहरणत्थमुपदिढें । इदं तु जातस्स पीडापरिहरणत्थं भण्णति१३९. थणगं पज्जेमाणी दारगं वा कुमारियं । तं निक्खिवित्तु रोयंतं आहरे पाण-भोयणं "देंतिथं पडियातिक्खे न मे कप्पति तारिसं ॥ ५७ ॥ १३९. थणगं पजेमाणी सिलोगो । थणो पओहरो तं पाएंती दारगं वा कुमारियं । को पुण विसेसो दारगस्स कुमारियाए वा जं पिधं वयणं किंचि थिरयरो दारगो । तं उभयं निक्खिवित्तु रोयंतं आहरे १देण्हं खं २ ॥ २ देज खं २ ॥ ३°णीए उव अचू० विना ॥ ४ भुंजमाणं खं १-२-३-४ जे. ॥ ५व खं १॥ ६ एतदर्घश्लोकस्थाने सर्वाखपि सूत्रप्रतिषु हाटी. च तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं । देतियं पडियाइक्खे ण मे कप्पह तारिसं॥ इति पूर्णः सूत्रश्लोको दृश्यते । श्रीअगस्त्यपादैः वृद्धविवरणकृता च अर्धसूत्रश्लोक एव पूर्वसूत्र लोकपञ्चमषष्ठपादतया निर्दिष्टोऽस्ति । ७ सुखनिषण्णा ॥ ८'चारेण' चलनादिना ॥ ९ “जा पुण कालमासिणी पुन्बुट्ठिया परिवेसेंती य थेरकप्पिया गेण्हंति । जिणकप्पिया पुण जदिवसमेव आवण्णसत्ता भवति तद्दिवसाओ आरद्धं परिहरति ।" इति वृद्धविवरणे ॥ १० दृश्यता टिप्पणी ६॥ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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