Book Title: Agam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Shayyambhavsuri, Bhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay
Publisher: Prakrit Granth Parishad

Previous | Next

Page 26
________________ स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि (१७) उनके ये लेख अगस्त्यसिंहीया चूर्णिके सम्पूर्ण सम्पादनके पूर्व लिखेगये थे। अत एव अब मुद्रितके प्रकाशमें समयविचारणा की जाय यह उचित होगा। स्वयं पू. मुनिजीने ही अपने सम्पादन में प्रस्तुत अगस्त्यसिंहचूर्णिमें जो उद्धरण हैं उनके मूलस्थानकी शोध करके जहां जहां मूल ग्रंथोंका निर्देश किया है उनमें पृ० २, पृ० २४ तथा पृ० २०० में कल्पसूत्रभाष्यकी-क्रमसे गा० १४९, गा० १७१६' तथा ११६९ होनेका निर्देश किया है। तथा पृ.८४ में मुद्रित हो जानेके बाद अपने हाथसे कल्पभाष्यकी गा. ४९४४ उद्धृत होनेका लिखा है। तथा व्यवहारभाष्यकी गा० २८९ भी प्रस्तुतके पृ० ९८ में उद्धृत है-ऐसा निर्देश किया है। आ० हरिभद्रमें दशवैकालिकनियुक्तिकी जो अधिक गाथाएं मिलती हैं उन्हें यदि मूलभाष्यकी मानी जायँ तब यह भी मानना होगा कि प्रस्तुत चूर्णिमें जो ऐसी गाथाएं उद्धृत हैं वे भी भाष्यकी है-इसके लिए देखें पृ० २२ और २५। यहां पृ० २२ में जो हरिभद्रसंमत नियुक्तिकी मानी गई है वह वस्तुतः सन्मति (१.१८) की गाथा है। यह भी ध्यान देने की बात है कि आचार्य हरिभद्र जिन्हें भाष्यकी गाथा मानते हैं उसे प्रस्तुतमें नियुक्ति मानी गई हैं-इसके लिए देखें पृ० ९८, गाथा १४६ । ____ आवश्यकमूलभाष्य भी प्रस्तुत चूर्णिमें (पृ० २६) उद्धृत है-ऐसा संकेत पू. मुनिजीने दिया है। इस गाथाको आचार्य हरिभद्रने मूलभाष्य कहा है। किन्तु वह गाथा विशेषावश्यक भाष्य (२९३६) में उपलब्ध है। इसके प्रकाशमें पू. मुनिजी अपना पूर्वोक्त अभिप्राय अवश्य बदल देते ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि कल्पभाष्यके प्रारम्भमें ही टीकाकारका यह स्पष्टीकरण है कि प्रस्तुतभाष्य तथा व्यवहारभाष्यमें भाष्य और नियुक्तिकी गाथाएँ मिलकर एक ग्रन्थ हो गया है। अत एव दोनोंका पृथक्करण करना सरल नहीं। फिर भी यत्र तत्र टीकाकारने नियुक्तिका निर्देश किया है। विशेषावश्यककी-वह गाथा भी प्राचीन होनेका संभव माना जा सकता है। अभिप्राय नहीं बदलनेका यह भी एक कारण हो सकता है कि प्रस्तुत चूर्णिमें जहां अनेक गाथाएँ उद्धृत की गई है वहां भाष्योंकी मानी जाने वाली गाथाओंकी संख्या अत्यल्प है। अन्य चूर्णिओंमें बहुतायतरूपसे भाष्य गाथाएं उद्धृत हैं जब कि यहां भाष्योंमें विद्यमान ऐसी पांच ही गाथाएँ हैं। पू. मुनिजी अपना अभिप्राय यदि बदलते तो और कारणोंकी खोज करके ही ऐसा मुझे लगता है। मेरा यह अभिप्राय भ्रान्त भी हो सकता है। किन्तु पू. मुनिजीकी जो विधान करनेकी शैली थी उसे देखते हुए अभी तो यही जंचता है। __ अब यह देखा जाय कि आवश्यकचूर्णि से मी पूर्व यह प्रस्तुत अगस्त्य सिंहकृतचूर्णि है या नहीं। भाष्य की पूर्ववर्ती मानने पर आवश्यकचूर्णिके पूर्ववर्ती होने में संदेह का स्थान नहीं होना चाहिए किन्तु प्रस्तुत संस्करण में आवश्यकचूर्णिके उद्धरण हैं ऐसा निर्देश पू. मुनिजीने किया है-पृ. ५०, ५१ और ५४ । अत एव यह जांचना जरूरी है कि वस्तुस्थिति क्या है। इन तीनों ही स्थानोंमें "जहा आवस्सए" ऐसी ही सूचना मूल चूर्णिमें है। कहीं भी आवश्यक चूर्णिमें उन कथानकों के होने की बात कही गई नहीं है। पूरी कथा के लिए 'आवश्यक' देखनेको कहा गया है। अत एव उससे अगस्त्यसिंह को वहां मुद्रित आवश्यकचूर्णि ही अभिप्रेत है ऐसा नहीं कहा जा सकता फिर भी उन स्थानोंमें कौंसमें पू. मुनिजीने आवश्यकचूर्णि के पृष्ठोंका निर्देश किया है उसका इतना ही अर्थ है कि उस उस कथा के विषयमें चूर्णि देखी जाय। इसका यह अर्थ नहीं कि वहां अगस्त्यसिंह को आवश्यकचूर्णि जो मुद्रित है वही अभिप्रेत है। जिस प्रकार प्रस्तुत दशवकालिक की प्राचीन वृत्ति थी उसी प्रकार भावश्यककी भी प्राचीन वृत्ति होना संभव है जिसको लक्ष्य करके आचार्य अगस्त्यने आवश्यक देखने को कहा हो। ___भाष्यपूर्व यदि अगस्त्यसिंह को माना जाय तब उनका समय नियुक्ति के समय के बाद और भाष्यके पूर्व अर्थात् ई० छठी शती के मध्यमें ठहरता है। अगस्त्यसिंहकी चूर्णिमें अन्यग्रन्थोंके या व्यक्तिओंके बो निर्देश मिलते हैं उनमें-तत्त्वार्थ (पृ. १, १६, १९, ८५ इत्यादि), कप्प (पृ. २), तंदुलवेयालिय (पृ. ३), भदियायरिय (पृ. ३), दत्तिलायरिय (पृ. ३), पंचकप्प (पृ. २३), वैशेषिक (पृ. २३), गोविंदवाचक (पृ. ५३), अज्जवर (पृ. ५१), कोकास (पृ. ५४), पंचजातकसताणि (पृ. ६८), कक्की (कल्की) (पृ. १६६), बडुकहा (पृ. १९९) इत्यादि ऐसे नहीं है जो उक्त समयके बाधक बन सकें। प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तमें दिये गये परिशिष्टोंका निर्माण श्री रमेशचन्द मालवणियाने किया है। एतदर्थ मैं उनको धन्यवाद देता हूँ। ला. द. विद्यामंदिर, अहमदाबाद-९ दलसुख मालवणिया ता.१-१०-७२ ) १. यद्यपि इस गाथाको चूर्णिमें तो ओघनिज्जुत्ति की कहा गया है -पृ० २४ । २. संभव यह भी है कि वे बदल देते क्यों कि मूलमें जहां 'पंचकप्पे' शब्द है (पृ. २३) वहाँ उन्होंने टिप्पणमें ‘पञ्चकल्पभाष्ये इत्यर्थः' ऐसा टिप्पण जोडा है। किन्तु यहाँ भी कोई 'पंचकल्प' को सूत्र न समझ ले इसी उद्देशसे 'भाष्य'शब्दका निर्देश किया है। ३. बृहत्कल्पभाष्य टीका पृ०२। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 ... 323