Book Title: Agam 42 mool 03 Dashvaikalik Sutra Author(s): Shayyambhavsuri, Bhadrabahuswami, Agstisingh, Punyavijay Publisher: Prakrit Granth ParishadPage 12
________________ संपादन पद्धति। (३) सापूर्वोक दशवकालिक की आचार्य हरिभद्रकी टीका में जो नियुक्ति मुद्रित है - उसीकी संज्ञा सा है। आचार्य आनन्द सागरजीने इसका संपादन किया था अत एव उसकी सा संज्ञा रखी है। हाटी दशवकालिक की आचार्य हरिभद्रकृत टीकामें स्वीकृत पाठ ३- स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि मूलादर्श-इसकी एकमात्र ताडपत्रकी प्रत जेसलमेरके मंडारमें उपलब्ध है। अत एव जहाँ उसमें संशोधन करना जरूरी लगा है वहाँ पूज्य मुनिराजश्रीने किया है और मूलपत का जो पाठ है उसे मूलादर्श-इस संकेतके साथ टिप्पण में दिया है। इस हस्तप्रत का विस्तृत परिचय पूज्य मुनिजीने अपने जेसलमेर-भंडारके नये सूचिपत्रमें पृ. २८ में क्रमांक ८५/२ में दिया है। इस हस्तप्रतका लेखनसमय दिया नहीं गया है। किन्तु वह १२ वीं विक्रमशतीके पूर्वार्धकी होनेका पू. मुनिजीने अपने जेसलमेरके सूचिपत्रमें निर्देश किया है। इस हस्तप्रतकी जो पट्टिका है उस पर जो लिखा है उससे यह प्रत आचार्य जिनदत्तसूरिकी होनेका प्रमाण मिलता है।। प्रतके अंतमें जो प्रशस्ति दी गई है उसमें यह बताया गया है किपल्लिका पुरीमें धर्कटवंशीय शालिभद्रनामक श्रावक रहता था। उसकी बहुदेवी नामक पत्नी थी। साधारणनामक उनका पुत्र था। उसकी पत्नीका नाम शान्तिमती था उसके दो पुत्र हुए-पूर्णभद्र और हरिभद्र। शांतिमतीने अपने मोक्षके लिए इस प्रतका लेखन करवाया है। यहां इस प्रतका फोटो छापा गया है। संपादनपद्धति प्रस्तुतमें 'दसकालिय' 'निज्जुत्ति' और 'चुण्णि' जो मुद्रित हैं उनके संपादनकी पद्धति यह जान पड़ती है-जिन प्रतोंका तथा मुद्रित पुस्तकोंका उपयोग प्रस्तुत संपादनमें किया गया है उनका उल्लेख हो चुका है। उन सभीका उपयोग होते हुए भी दसकालिय और निज्जुत्तिके प्रस्तुत सम्पादनमें स्थविर भगस्त्यसिंहकृत चूर्णिकी एकमात्र प्रति जो मिली है उसको ही प्रधानता दी गई है। और यदि उसमें पाठ अशुद्ध नहीं है तो उसीके पाठ दसकालिय मूल भौर निज्जुत्तिमें स्वीकृत किये गये हैं। मूलकी गाथाओमें जहां जिस प्रतमें न्यूनाधिकता देखी गई है या पाठान्तर उपलब्ध हुआ है, वहां उसका निर्देश टिप्पणोंमें दिया गया है। उनमें स्थविर अगस्त्यसिंहकी चूर्णिकी विशेषता भी दिखाई गई है। ___स्थविर अगस्त्यसिंहकी चूर्णिकी तो एकमात्र हस्तप्रत उपलब्ध थी अत एव उसमें जहां अशुद्धि थी उसेही ठीक किया गया है और प्रतिका पाठ नीचे टिप्पणमें निर्दिष्ट कर दिया है। शेष संपूर्ण जैसाका तैसा पदच्छेद आदि ठीक करके छापा गया है। प्रस्तुत सम्पादनमें मुख्यतः जिन हस्तप्रतोंका तथा मुद्रित पुस्तकोंका उपयोग किया गया है उसका विवरण संकेतके स्पष्टीकरणमें कर दिया है। किन्तु उसके अलावा भी कह अन्योंका उपयोग पू. मुनिजीने किया है। तब जा कर पाठशुद्धि वे कर पाये हैं। अत एव यह नहीं समझना चाहिए कि पूर्वनिर्दिष्टके अलावा प्रस्तुत सम्पादनमें किसी ग्रन्थका उपयोग नहीं हुआ है। टिपप्पणोंमें चूर्णिके समान या असमान विवरण जो वृद्धविवरण, आचार्य हरिभद्रकी टीका तथा सुमतिरिकृत टीकामें देखा गया उसका भी निर्देश यत्र तत्र कर दिया है जिससे तीनों टीकाकारों के समान-असमान मन्तव्योंको जाना जा सकेगा। दसकालियसुत्तं नाम : अब तक जो इस ग्रन्थके संस्करण प्रकाशित हुए हैं उनमें संस्कृतरूप 'दशवकालिक' और प्राकृतरूप दसवेयालिय' ग्रन्थके नामके लिए स्वीकृत हुए हैं और यह ग्रन्थ प्रायः इन्हीं नामोसे पहचाना और छापा जाता है। किन्तु प्रस्तुत आवृत्तिमें पूज्य मुनिराजश्रीने इसे 'दसकालियसुत्तं' ऐसा जो नाम दिया है वह इस कारण कि उसकी नियुक्तिमें जो नामके निक्षेप किए गए हैं वे 'दस' और 'काल' पदों के ही किये हैं अत एव उसका मुख्य नाम 'दसकालिय' ही सिद्ध होता है। आचार्य स्थविर अगस्त्यसिंहने भी मुख्यरूपसे प्रारंभमें यही नाम स्वीकृत किया है-देखें मंगलाचरण तथा पृ० १५० ३, २. ११, १४, ३. १८, २१, ६. २४; २३० इत्यादि। साथ ही 'अथवा' कह कर 'दसवेकालिय' और 'दसवेतालिय' भी स्वीकृत किया है-पृ. ३,५, २४, २४५ इत्यादि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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