Book Title: Agam 39 Chhed 06 Mahanishith Sutra
Author(s): Punyavijay, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 231
________________ १५० महानिसीह-सुय-खंधं अ. ... कमल-विरइयंजली देवया । तं च दद्रूण विम्हिय भूयमणे लिप्प-कम्म-निम्मविए । _ [२५] एयावसरम्मि उ गोयमा ! सहरिस-रोमंच-कंचुपुलइयसरीराए ‘णमो अरहंताणं' ति समुच्चारिऊणं भणिरे गयणट्ठियाए पवयण-देवयाए से कुमारे । तं जहा जो दलइ मुट्ठि-पहरेहि मंदरं, धरइ करयले वसुहं' । सव्वोदहीण वि जलं आयरिसइ एक्क घोट्टेणं ।।११३।। टाले सग्गाओ हरि, कुणइ सिवं तिहुयणस्स वि खणेणं। अक्खंडिय सीलाणं कुद्धो वि ण सो पहप्पेज्जा ॥११४॥ अहवा सो च्चिय जाओ गणिज्जए तिहुयणस्स वि स वंदो। पुरिसो वि महिलिया वा कुलुग्गओ जो न खंडए सीलं ॥११५॥ परम-पवित्तं सप्पुरिस-सेवियं सयल-पाव-निम्महणं । सव्वुत्तम-सुक्ख-निहिं सत्तरसविहं जयइ सीलं' ॥११६।। ति भाणिऊणं गोयमा ! झत्ति मुक्का कुमारस्सोवरि कुसुमबुद्धिं पवयण-देवयाए । पुणो वि भणिउमाढत्ता देवया, तं जहा 'देवस्स देंती दोसे पवंचिया अत्तणो स-कम्मेहिं। ण गुणेसु ठविंतऽप्पं मुहाई मुद्धाए जोएंति' ॥११७।। मज्झत्थभाववत्ती सम-दरिसी सव्व-लोय-वीसासो। निक्खेवय-परियत्तं दिव्वो न करेइ, तं ढोए ॥११८॥ ता बुज्झिऊण सव्वुत्तमं जणा, सील-गुण-महिड्डीयं । तामसभावं चिच्चा कुमार-पय-पंकयं णमह ॥११९।। त्ति भाणिऊणं असणं गया देवया इति' ते छइल्ल-पुरिसे लहुंच गंतूण साहियं तेहिं नरवइणो। [२६] तओ आमओ बहु-विकप्प-कल्लोल-मालाहि णं आऊरिज्जमाण-हियय-सागरो हरिस-विसाय-वसेहिं भीऊड्डपायातत्थ चकिर-हियओ सणियं गुज्झ-सुरंग-खडक्किया-दारेणं कंपंत-सव्वगत्तो महया कोऊहल्लेणं कुमार-दंसणुक्कंठिओ य तमुद्देसं। दिट्ठो य तेणं सो सुगहियणामधेज्जो महायसो महासत्तो महाणुभावो कुमार-महरिसी, अपडिवाइ महोही पच्चएणं साहेमाणो संखाइयाइ-भवाणुहूयं दुक्ख-सुहं सम्मत्ताइलभं संसार-सहावं कम्मबंध-द्विती-विमोक्खमहिंसा-लक्खणमणगारे वयरबंधं णरादीणं सुहनिसण्णो सोहम्माहिबई धरिओवरिपंडुरायवत्तो । ताहे य तं अदिठ्ठपुव्वं अच्छेरगं दट्टणं पडिबुद्धो सपरिगहो पव्वइओ य गोयमा ! सो राया परचक्काहिवई वि । एत्थतरम्मि पहय-सुस्सर-गहिर-गंभीर-दुंदुभि-निग्घोस-पुव्वेणं समुग्घुटुं चउव्विहं देवणिकाएणं । तं जहा 'कम्मट्ठ-गंठि-मुसुमूरण, जय जय परमेट्ठी महायस ! जय जय जयाहिचारित्त-दसण-णाण-समण्णिय ! ॥१२०|| स चिंय जणणी जगे एक्का, वंदणीया खणे खणे। जीसे मंदरगिरि गरुओ उयरे वुत्थो तुमं महा मुणि ! ॥१२१।। १ सु ठवियंतणं सु. ठविंतप्पं सु./ सुविततं ख. । २ण गुणेसु ठविंतूणं सुहाई मुद्धा य जो सं. । ३ दिट्ठो सं. । ४ भीउठ्या सं. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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