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ववहान ॥४४
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: णिसिवा उडु उड्ढ नोत्सए वा पायए वा. एसलेस कप्पो परिहारियस्स उद्देसमो.
॥२॥ __ अपरिहारियायो ॥३०॥-त्ति बेमि. भावार्थ ॥ ३० ॥ परिहार कल्प स्थितिनो साधु स्थिवरना पात्रने लइने उपाश्रयनी बहार स्थिवरनी वैयावचने अर्थे । आहारने काजे जातो होय ते वारे तेने जातो देखीने परिहार कल्प स्थितिमा साधुने ते स्थिवर एम कहे, हे आर्य साधु ! तमारो आहार पण मारा आहार साथे एज पात्रमा लावजो ने तमे पण ते आहार पछी भोगवजो ने पाणी पीजो. एम को थके ते स्थिवरने पात्रे आहार लाववो कल्पे पण तिहां परिहारीने अपरिहारी स्थिवरना पात्रने विषे अश्नादिक चार प्रकारनो आहार जमवो के पाणी पी, कल्पे नहिं पण ते परिहारी साधुने पोताना पात्रमां, मात्रीयामां, कमंडळ (लोट) मां, खोवामा के पोताना हाथमां लइने अश्नादिक जमवो ने पाणी पीयूँ कल्पे. ए समाचारी परिहारीने अपरिहारीनी जाणवी ॥३०॥ एम हुं कहुं छु ॥
अर्थ ॥ व० व्यवहार सबनो। वि० बीजो । उ० उद्देसओ । स० पुरो थयो ॥२॥ .. मूळपाठ ॥ ववहारस्स बिइयो डद्देसयो समत्तो ॥२॥
भावार्थ ॥ व्यवहार सूत्रनो बीजो उद्देसो पुरो थयो ॥२॥
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-ACCASSAGAR
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१F (एचमां) पाणियंसि. २ H. (एच) पीत्तए. ३ B. b F (वी. वी. एचमां) एस. ४ B (बी) कप्पे.
॥४४॥
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